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1950 से 1960 के दशक में भारत तथा चीन के सम्बन्ध

भारत-चीन सम्बन्धों का इतिहास

प्रारंभिक वर्षों में भारत तथा चीन के संबंध

श्री के० एन० रामचन्द्रन के शब्दों में “24 दिसम्बर, 1949 से लेकर, जब भारत ने चीन को लगभग दो मास पूर्व मान्यता दी थी, तीन दशकों तक भारत तथा चीन के सम्बन्धों में सौम्य अशुभ दोनों प्रकार के चरण विद्यमान रहे।” प्रारम्भिक वर्षों में चीन के साथ मित्रता एवं सहयोग के भारत के यत्नों को चीन ने अनदेखा किया क्योंकि चीन भारत को पूँजीवाद का उपांग और जवाहरलाल नेहरू तथा दूसरे भारतीय नेताओं को पूँजीवाद का पिछलग्गू अथवा साम्राज्यवाद के ‘भागते कुत्ते’ कहता रहा। बाद में 1951 के आसपास एशिया में भारत के महत्त्व को देखते हुए तथा भारतीय मित्रता के सम्भावित लाभ के दृष्टिगत, चीन ने भारत एवं भारतीय नेताओं के प्रति अपनी घृणापूर्ण नीति को त्यागने का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप चीन ने भारत की आलोचना को शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा महान् भारत एवं परम्परागत भारतीय लोगों से मित्रता की इच्छा में परिवर्तित कर दिया। इसी परिवर्तन के बाद में ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई‘ की विचारधारा को जन्म दिया।

सन् 1954 में भारत तथा चीन के मध्य कई महत्त्वपूर्ण समझौते हुए लेकिन सन् 1957 के बाद के काल में दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर मनमुटाव पैदा हो गया, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1962 में दोनों देशों के मध्य भारत-चीन सीमा युद्ध (Sino-Indian Border War) हुआ। सन् 1962 के बाद एशिया के दोनों बड़े देशों के सम्बन्धों में भारी गतिरोध आ गया और दोनों के बीच महान् रिक्तता की स्थिति उत्पन्न हो गई। यह गतिरोध सातवें दशक के प्रारम्भिक वर्षों तक चलता रहा। इसके बाद सम्बन्धों को सामान्य बनाने के लिए कुछ कदम उठाए गए। तब से भारत और चीन दोनों अपने सम्बन्धों को बेहतर बनाने का यत्न कर रहे हैं। परन्तु सन् 1962 के युद्ध के घावों तथा दूसरी अनेक हानिकारक तथा नकारात्मक घटनाओं ने सामान्यीकरण की प्रक्रिया को आज तक कठिन, धीमा एवं सीमित ही बनाए रखा है। पिछले कुछ वर्षों, शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के विघटन, के बाद तथा एकल ध्रुवीय व्यवस्था के उभरने के युग में भारत तथा चीन अपने द्विपक्षीय सम्बन्धों को अच्छा बनाने के लिए महत्त्व और अधिक अनुभव करने लगे हैं।

भारत-चीन सम्बन्धों का इतिहास, 1950-1960

(History of Sino-Indian Relations, 1950-1960)

भारत द्वारा साम्यवादी चीन को मान्यता (India’s Recognition of Communist China)-भारत आरम्भ से ही चीन के साथ मित्रता एवं सहयोग को बढ़ावा देने का इच्छुक रहा। 1949 में चीन के साम्यवादी देश के रूप में उभरने के बाद भारत ने इस देश के सम्बन्धों के महत्त्व को पूर्णतया अनुभव किया। इससे पहले ही भारत की अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री बनने के 6 दिन के बाद पं० जवाहर लाल नेहरू ने 7 सितम्बर, 1946 को नई दिल्ली से रेडियो के एक प्रसारण में यह कहा था कि, “चीन अपने महान् इतिहास के साथ एक शक्तिशाली देश है। वह हमारा पड़ोसी है। वह युगों से हमारा मित्र रहा है और यह मित्रता बनी रहेगी और बढ़ेगी, फूलेगी।” इस कथन में चीन के साथ मित्रता एवं सहयोग की भावना का स्पष्ट भाव है। स्वतन्त्रता के पश्चात् चीन के साथ शान्ति एंव मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना नेहरू की विदेश नीति का केन्द्रीय बिन्दु थे।

यह तब अत्यधिक रूप से स्पष्ट हो गया जब दिसम्बर, 1949 में भारत ने साम्यवादी चीन को पूर्ण मान्यता प्रदान की तथा चीन के साथ द्विपक्षीय मित्रता एवं सहयोग बढ़ाने की अपनी तीव्र इच्छा व्यक्त की। कई पश्चिमी देशों, विशेषतया अमरीका द्वारा भारत की आलोचना करने पर भी भारत ने चीन की मित्रता प्राप्त करने की दिशा में काम करने का निश्चय किया। इस उद्देश्य के लिए भारत ने चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश दिलाने के लिए पूरी सहायता देने का निर्णय लिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में फारमोसा-चीन को पूरे चीन के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने की अमरीका नीति की कड़ी आलोचना की। नेहरू को इस बात की आशा थी कि भारत की ऐसी नीति का चीन द्वारा सकारात्मक उत्तर मिलेगा। लेकिन उस समय के चीन के नेता भारत समेत सभी देशों के प्रति भावना कठोर रखते थे। अतः भारत-चीन सम्बन्धों का आरम्भ उचित रूप से न हो सका।

चीन की कठोर नीति तथा भारत

चीन ने 1949 में गैर-साम्यवादी देशों के साथ कठोर नीति अपनाने का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप चीन ने भारत को पश्चिमी साम्राज्यवाद का पिछलग्गू कहा। चीन का विश्वास था कि भारत की स्वतन्त्रता अवास्तविक थी और गुट निरपेक्षता की नीति दिखावा मात्र थी। नेहरू को चीन की प्रेस ने साम्राज्यवादियों का दास, बुर्जुआ तथा प्रतिक्रियावादी चरित्र वाला बताया। अपनी कठोर नीति के युग में, जो 1952 तक चली, चीन ने भारत को कोई महत्त्व नहीं दिया। श्री माओ ने बी० टी० रणदीव (B.T. Randive) को लिखे पत्र में विचार व्यक्त किए थे कि भारत शीघ्र ही साम्यवादी दल द्वारा आग्ल-अमरीकन साम्राज्याद तथा ‘भारतीय पिछलग्गुओं’ से मुक्त करवा लिया जाएगा। इस प्रकार चीन का नकारात्मक तथा कठोर व्यवहार भारत-चीन सम्बन्धों के विकास में बाधक बना रहा।

सन् 1950 के दशक के आरम्भिक वर्षों के दौरान दोनों देश जिन महत्त्वपूर्ण विषयों में उलझे रहे, वे थे- 1. तिब्बत की समस्या। 2. कोरिया का संकट।

  1. तिब्बत समस्या तथा भारतचीन सम्बन्ध

    चीन में साम्यवादी शासन स्थापित होने के बाद चीनी गणराज्य ने देश की सीमाओं के विस्तार का निर्णय लिया और अल्पसंख्यक समुदाय को डराना शुरू किया। चीन तिब्बत को अपना एक हिस्सा समझने लगा और उसे हथियाने की उसने एक योजना तैयार की। भारत को तिब्बत के लोगों से सहानुभूति थी और वह चाहता था कि चीन भी उनके स्वशासन के अधिकार का सम्मान करे। भारत चाहता था कि चीन तिब्बत के नेताओं के साथ शान्तिपूर्वक ढंग से तिब्बत सम्बन्धों के प्रश्न को हल करे। भारत ने चीन को सुझाव दिया कि वह तिब्बत के धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेता से उनकी किसी न किसी रूप में प्रभुसत्तात्मक स्वायत्तता बनाये रखे जाने के लिए बातचीत करे। चीन ने न केवल इस सुझाव की उपेक्षा की बल्कि इसे चीन के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप भी बताया और भारत को आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद का दलाल भी कहा। अक्तूबर 1950 में चीन ने तिब्बत में अपनी सेना भेज दी और तिब्बत पर सैनिक नियन्त्रण कर लिया। चीन की इस चाल ने भारत को स्तब्ध कर दिया । भारत की सदा से यह मान्यता रही थी कि तिब्बत चीन का भाग नहीं था।

  2. कोरिया संकट तथा भारतचीन सम्बन्ध

    कोरिया के विवाद पर भारत-चीन सम्बन्धों का संचालन, भारत की चीन के साथ मित्रता को विकसित करने तथा चीन एवं पश्चिम के बीच मध्यस्थ बनने की इच्छा से हुआ। 1950 से 1951 तक भारत ने कोरिया में युद्ध विराम कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोरिया के संकट के आरम्भ से ही भारत को इस बात का विश्वास था कि कोरिया चीन के लिए सामरिक महत्त्व वाली जगह है, इसलिए भारत ने कोरिया समस्या को हल करने के लिए चीन के प्रभाव एवं सहयोग का प्रयोग किये जाने का समर्थन किया। भले ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का अनुमोदन करते हुए उत्तरी कोरिया को आक्रामक बताते हुए उसकी भर्त्सना की और कोरिया में शान्ति सेना रखने का समर्थन किया किन्तु भारत ने संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव का विरोध किया जिसमें शान्ति सेना को कोरिया में 38वें अक्षांश को पार करने का निर्देश दिया गया था। भारत का विचार था कि इससे चीन सीधे रूप से युद्ध में कूद पड़ेगा। जब संयुक्त राष्ट्र सेनाएँ वास्तव में 38वें अक्षांश को पार कर गई तो भारत ने इसे खतरनाक पश्चिमी नीति बताते हुए इसकी कड़ी भर्त्सना की। नवम्बर 1950 में जब चीन ने सीधे रूप में कार्यवाही की और संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं को पीछे खदेड़ दिया तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव पर मत देने से इन्कार कर दिया जिसमें चीन को आक्रामक कहा गया था। भारत की इस कार्यवाही की अमरीका तथा इसके दूसरे पश्चिमी मित्रों ने कड़ी आलोचना की। किन्तु चीन ने भारत की बड़ी प्रशंसा की। कोरियाई विवाद में भारत की स्वतन्त्रता, सक्रिय एवं साहसिक भूमिका की चीन की सरकार तथा चीनी नेताओं द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई और यहीं से वास्तव में भारत के साथ मित्रता विकसित करने की आवश्यकता का चीन को एहसास हुआ।

  3. सन् 1951 से भारतचीन सम्बन्ध

    अध्यक्ष माओ ने 26 जनवरी, 1951 को बीजिंग में भारतीय दूतावास में भारतीय गणतन्त्र दिवस के समारोहों में शामिल होकर चीन के लोगों की भारत के लोगों के साथ मित्रता को नया आयाम दिया। चीन के लोग गणराज्य को चीन का वास्तविक प्रतिनिधि मानने के लिए भारत का पूर्ण समर्थन तथा 1951 में जापान के साथ शान्ति सन्धि करने के लिए अमरीका द्वारा सानफ्रांसिस्को में बुलाई गई कान्फ्रेंस में भाग लेने से भारत द्वारा इन्कार करने के कारण, चीन ने भारत की बहुत प्रशंसा की। इस कानफ्रैंस में चीन को नहीं बुलाया गया था, इस कारण भी भारत ने इस कान्फ्रैंस का बहिष्कार किया था। इससे दोनों देशों के बीच मैत्री एवं सहयोग का युग शुरू हुआ और चीनी नेताओं ने भारतीय नेताओं को अच्छे तरीके से समझना शुरू किया। उन्हें इस बात का विश्वास होना शुरू हो गया कि भारत वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में स्वतन्त्र और गुट- ‘निरपेक्ष था।

  4. तिब्बत समझौता तथा पंचशील

    भारत-चीन मैत्री सम्बन्ध उस समय परिवक्वता को प्राप्त हुआ जब 29 अप्रैल, 1954 को 8 वर्षीय व्यापार एवं परस्पर सम्पर्क सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते से भारत ने ब्रिटिश सरकार द्वारा तिब्बत में उपभोगित सीमा अधिकारों को त्यागा तथा तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र माना। इस समझौते द्वारा चीन तथा भारत दोनों ने अपने सम्बन्धों में पाँच सिद्धान्तों (पंचशील) को मानने का प्रण किया। ये पाँच सिद्धान्त (पंचशील) समझौते की प्रस्तावना में ही लिखे गए थे-(1) एक दूसरे देश की सीमाओं एवं प्रभुसत्ता की आपसी स्वीकृति । (2) एक दूसरे के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप न करना । (3) एक दूसरे के देश पर आक्रमण न करना। (4) समानता तथा आपसी हितों की रक्षा । (5) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व । चीन ने भारत की प्रभुसत्ता और इस की सीमाओं के प्रति आदर दर्शाने का गम्भीर वचन दिया। इस समझौते से भारत-चीन के मध्य मैत्री एवं सहयोग का नया युग प्रारम्भ हुआ। भारत द्वारा तिब्बत पर चीन की प्रभुत्ता को स्वीकार कर लेने पर दोनों देशों के सम्बन्ध सुदृढ़ हुए और दोनों देशों के नेता विश्व समस्याओं पर एक जैसा दृष्टिकोण अपनाने लगे। दोनों देशों ने एशिया में पश्चिमी नीतियों, सैनिक गठबन्धनों तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया।

जून 1954 में चीन के प्रधानमन्त्री चाऊ-इन-लाई ने भारत की यात्रा की और उन का हार्दिक स्वागत किया गया। यात्रा के अन्त में नेहरू तथा चाऊ-इन-लाई ने अपने सांझे बयान में पंचशील में आस्था व्यक्त की। टी० एन० कौल के अनुसार, “इससे पंचशील को और अधिक सम्मान एवं महत्त्व मिला।’

  1. हिन्दीचीनी भाईभाई की भावना, 1954-56-

    “भारत-चीन सम्बन्धों का यह प्रमोद का काल था जब दोनों देशों में हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारों की गूंज थी।” उसी वर्ष बाद में नेहरू ने चीन यात्रा की, अप्रैल 1955 की बुढुंग कान्फ्रेंस में दोनों देशों के बीच निकटतम सहयोग तथा नवम्बर-दिसम्बर 1956 में चाऊ-इन-लाई की दूसरी भारत यात्रा से दोनों देशों के सम्बन्धों में बड़ा सुधार हुआ। अप्रैल, 1955 को ल्हासा प्रलेख पर हस्ताक्षर, ताइवान समस्या पर भारत का चीन को पूर्ण समर्थन का आश्वासन तथा संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश के अधिकार को प्राप्त करने के लिए चीन को भारत का सहयोग, इन सब से चीन बहुत प्रसन्न हुआ। चीन ने बदले में गोवा के मामले पर भारत को समर्थन दिया। भारत तथा चीन दोनों ने इकट्ठे सीटो (SEATO) का विरोध किया। अब भारत-चीन सम्बन्धों को विकसित करना दोनों देशों के नेताओं का एक लक्ष्य बन गया।

  2. भारत तथा चीन के बीच मानचित्रों पर मतभेद

    भारत-चीन सम्बन्धों के इस प्रमोद काल में भी हर बात ठीक-ठाक नहीं थी। 1954 में चीनी में छपे कुछ मानचित्रों में बहुत बड़े भारतीय खण्ड को चीनी भूखण्ड का भाग दिखाया गया था। अक्टूबर 1954 में श्री नेहरू ने अपनी चीन-यात्रा के दौरान इस तथ्य की ओर श्री चाऊ का ध्यान दिलाया। इसके उत्तर में नेहरू को बताया गया कि ये पुराने मानचित्र थे, जिन्हें समय आने पर सुधार लिया जाएगा। भारत ने चीनी स्पष्टीकरण को स्वीकार कर लिया, लेकिन चीनी इरादों से भारत की आशंका बढ़ गई। भारत की ऐसी आशंकाएँ ठीक सिद्ध हुई जब चीन ने बाराहोती में एक शिविर स्थापित कर लिया। यह स्थान शिपकी दरे-से 10 मील नीचे था। अप्रैल 1956 में चीनियों ने उत्तर प्रदेश के सिलांग क्षेत्र में प्रवेश किया। छः महीने बाद चीनियों ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण शिपकी दर्रे को पार करके किया। इन उत्तेजक कार्यवाहियों के बावजूद भारत ने कोई कार्यवाही नहीं की। सिर्फ चीन को विरोध पत्र भेजा। नवम्बर 1956 तथा जनवरी 1957 में चाऊ-इन-लाई की भारत यात्रा के दौरान यह निर्णय लिया गया कि “सीमा सम्बन्धी कोई विवाद नहीं है। कुछ छोटी-मोटी समस्याएं हैं जिन्हें मित्रतापूर्ण तरीके से हल कर लिया जाना चाहिए।”

  3. भारतीय सीमाओं के साथसाथ चीनी गतिविधियाँ

    लगभग उसी समय चीन ने सिक्यांग-तिब्बत सड़क का निर्माण शुरू कर दिया। यह सड़क पूर्वी लद्दाख से गुजरती थी। भारत सरकार को 1958 के शरद्काल तक इसकी कोई खबर नहीं लगी। 1957 तक चीनियों द्वारा भारतीय सीमाओं का उल्लंघन एक नियमित कार्य बन गया था। भारत चीन के इस प्रकार के व्यवहार से चिन्तित हुआ और उसने चीन के साथ लगने वाली सीमा पर अपनी सुरक्षा स्थिति को मजबूत करना शुरू किया। चीन के साथ भारतीय सम्बन्ध चिन्ताजनक बनने शुरू हो गए। चीनी सेनाओं द्वारा बाराहोती तथा अक्साई चिन क्षेत्र का अतिक्रमण हुआ तथा जुलाई 1958 में चीन ने भारत के खुरनाक किले पर अधिकार कर लिया। उसी महीने चीन के एक मासिक पत्र, “चाइना पिकटोरियल’ में कुछ मानचित्र प्रकाशित हुए, जिनमें बहुत बड़े भारतीय भाग को चीन के भाग के रूप में दिखाया गया था। जब भारत सरकार ने इस पत्र के द्वारा चीन सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया तो चीन ने उत्तर दिया कि चीन ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण नहीं किया और न ही सीमा समस्या से सम्बन्धित देशों में विचार-विमर्श किया है। इसलिए इन नवीन मानचित्रों को बदला नहीं जा सकता। इस उत्तर ने चीन की पूर्व स्थिति से हटने के निश्चित संकेत दिए। चीन की पूर्व स्थिति थी, “मानचित्र पुराने हैं और समय आने पर इनमें सुधार कर लिया जाएगा।” नई स्थिति का अर्थ था कि चीन ने किसी भी समय अपने मानचित्रों में दिखाई गई सीमाओं को विवादास्पद घोषित करने का अपना अधिकार सुरक्षित कर लिया था।

  4. नेफा में चीनी घुसपैठ

    सितम्बर 1958 के उत्तरार्द्ध में भारतीय सरकार को सूचना मिली कि चीनी सैनिकों की एक टुकड़ी ने नेफा के लोहित मण्डल में घुसपैठ की थी। अक्तूबर 1958 में भारत को अक्साई चिन सड़क के बारे में पता चला, जिसे चीनियों ने भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए पहले बनाया था। भारत ने चीन को एक कड़ा विरोध पत्र भेजा और उसे जल्दी उत्तर देने को कहा। लगभग उसी समय भारत को सूचना मिली कि चीन ने भारत-तिब्बत सीमा के साथ लैपथल तथा सांगचोमाला में बाहरी चौकियाँ स्थापित कर ली हैं। परिणामस्वरूप एक दूसरा विरोध पत्र चीन को भेजा गया।

  5. सीमाविवाद का उत्पन्न होना

    1957-58 में भारत तथा चीन के सम्बन्धों में तनाव आ गए तथा भारत चीन के बीच सीमा विवाद उत्पन्न हो गया। इस काल में चीन का भारतीय सीमा पर दावा बड़ा चौंकाने वाला था और चीनियों द्वारा भारतीय सीमा का अतिक्रमण नियमित तथा खतरनाक बन गया था। सितम्बर 1958 में नेहरू ने चाऊ-इन-लाई को एक पत्र लिखा जिसमें चीन के भारतीय सीमा पर दावे को कठोरता से नकारा गया और चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा के अतिक्रमण पर विरोध प्रकट किया। 23 जनवरी, 1959 के उत्तर में चाऊ-इन-लाई ने कहा कि “भारत-चीन सीमा कभी भी औपचारिक रूप से सीमांकित नहीं की गई।” इस उत्तर से चीनियों के इरादों तथा भारतीय सीमाओं पर चीनी खतरे के प्रति कोई भी शक नहीं रह गया था।

  6. तिब्बत में अशान्ति तथा चीनभारत सम्बन्ध

    सन् 1959 में तिब्बत समस्या ने एक बार फिर चीन-भारत सम्बन्धों को प्रभावित किया। 9 मार्च, 1959 को ल्हासा में चीन के विरोध में प्रदर्शन हुए और तिब्बत की मन्त्रिपरिषद् ने तिब्बत को स्वतन्त्र राष्ट्र घोषित कर दिया। चीन लोक गणराज्य की सेना ने इस विद्रोह को कुचल दिया। तिब्बत के नेता दलाई लामा ने अपने अनुयायियों के साथ तिब्बत छोड़ दिया और भारत में शरण ली। उसके बाद भारत सरकार ने दलाई लामा तथा उसके अनुयायियों को भारत में राजनीतिक शरण दे दी। भारत के इस निर्णय पर चीन ने तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की और भारत पर झूठे आरोप लगाकर अपना क्रोध व्यक्त किया तथा भारतीय सीमाओं का बार-बार अतिक्रमण किया। पंगोरा झील के पश्चिमी क्षेत्र में सैनिक टुकड़ी तथा स्पानीग्गुर में चीनी सैनिक शिविर की स्थापना के समाचार ने भारत-चीन सम्बन्धों को और गहरा धक्का पहुँचाया।

चीनी सैनिकों के बार-बार सीमा अतिक्रमण ने स्थिति को और भी जटिल बना दिया। 7 अगस्त, 1959 को चीन की एक गश्ती टुकड़ी ने खिंजमैन के स्थान पर भारतीय प्रदेश में प्रवेश किया और 25 अगस्त, 1959 को एक बड़ी चीनी टुकड़ी ने नेफा के सावन मण्डल में प्रवेश किया और लौंगजू की भारतीय सीमा चौकी पर अधिकार कर लिया। इसके बाद सीमा घटनाओं की एक श्रृंखला प्रारम्भ हो गई। इन सभी घटनाओं से भारत में चीन विरोधी भावनाएँ भड़कीं। नेहरू स्वयं भी इन घटनाओं से बड़े बेचैन हुए और लौंगूज चौकी के चीनी अधिकार को उन्होंने भारत पर आक्रमण बताया। उन्होंने भारत की सीमाओं की सुरक्षा के लिए दृढ़तापूर्वक मत व्यक्त किया और इन विवाद के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए विश्वास व्यक्त किया और घोषणा की “समायोजन के लिए दरवाजे खुले हैं।” दूसरी ओर चाऊ-इन-लाई ने नेहरू को कहा कि चीन भारत की उत्तरी सीमाओं को स्वीकर नहीं करता। उसने कहा “भारत-चीन सीमा को कभी भी औपचारिक रूप से सीमांकित नहीं किया गया। मेकमोहन कही जाने वाली रेखा चीन के क्षेत्र में तिब्बत पर ब्रिटिश आक्रामक नीति की उपज थी तथा इसलिए इसे वैध नहीं माना जा सकता।” उसने आगे कहा, “भारत-चीन सीमा प्रश्न एक जटिल प्रश्न था जो कि इतिहास की देन था।” इस उत्तर से यह स्पष्ट हो गया कि चीन भारत के साथ लगने वाली अपनी सीमाओं को खुला समझता था और इस सीमा का अंकन अभी किया जाना बाकी था। भारत के लिए यह सूचना बड़ी दलहाने वाली थी और उसने अपने-आप को गम्भीर खतरे से दो-चार पाया। चीन-भारत सीमा एक विस्फोटक तथा विवादास्पद सीमा बन गई।

निष्कर्ष

सन् 1959 के अन्त तक भारत और चीन के बीच एक पूर्ण सीमा विवाद पनप चुका था। नेहरू ने, जैसा कि उन्होंने लोकसभा में कहा कि “भारत अपने आप को एक खतरनाक स्थिति में पाता है, जिसमें युद्ध की सम्भावना दिखाई देती है”। चीन-भारत सम्बन्ध बड़े तनावपूर्ण, बिगड़े हुए तथा संघर्षात्मक हो गए। छठे दशक के मध्य की भाई-भाई भावना वाष्प बन कर उड़ गई तथा सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध अल्प प्रहसन बन गए। वास्तव में, अपने सम्बन्धों के प्रारम्भिक वर्षों में न तो भारत ने और न ही चीन ने सीमा प्रश्न को छेड़ने का यत्न किया क्योंकि दोनों ही देशों को उलझावपूर्ण सीमा समस्या की जटिल प्रकृति का एहसास था। भारत महसूस करता था कि चीन के साथ मित्रता के विकास के बाद दोनों देशों के लिए सीमा अंकन की समस्या को सहज बना देगा। इसीलिए उसने सीमा पर चीन की प्रारम्भिक कार्यवाही की उपेक्षा करने का निर्णय किया गया। दूसरी ओर चीन भारत को अपनी वास्तविक आकांक्षाओं के प्रति अन्धेरे में रखना चाहता था। इसीलिए उसने लद्दाख, सिक्किम तथा नेफा में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए पंचशील की भावना को एक आवरण के रूप में प्रयोग किया। इसी कारण भारत और चीन के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध थोड़ी देर के लिए ही स्थापित रह सके और उनका अन्त शीघ्र कही तथा बड़े प्रहसनपूर्ण ढंग से हुआ।

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