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1962 ई० में भारत-चीन सीमा युद्ध की प्रकृति एवं प्रभाव

1962 ई० में भारत-चीन सीमा युद्ध की प्रकृति एवं प्रभाव

1950 के दशक के अन्त तक भारत चीन की प्रारम्भिक सीमा समस्या पूर्णरुप में सीमा विवाद में परिवर्तित हो गई। 1959 तक भारत तथा चीन के सम्बन्धों में बहुत अधिक तनाव आ गया। इस तनाव का कारण था-सीमाओं पर घटनाएँ और इस स्थिति के प्रति कड़ा चीनी रुख। 19 दिसम्बर, 1959 को राज्य सभा में एक बहस का उत्तर देते हुए श्री नेहरू ने कहा, “भारत और भारतीय सीमाओं के सन्दर्भ में पूर्ण विश्व में बदलाव आ रहा है। यह ऐतिहासिक बदलाव बहुत बड़े परिणाम का है। पहली बार एशिया की दो बड़ी शक्तियाँ शस्त्र युक्त सीमा पर एक दूसरे का सामना कर रही हैं। पहली बार एक बड़ी शक्ति अथवा सम्भावित विश्व शक्ति हमारी सीमाओं के पास बैठी हैं।” वास्तव में, चीन द्वारा भारत के एक बहुत बड़े भाग पर अन्यायपूर्ण अधिकार से तथा लगातार चीन द्वारा शत्रुतापूर्ण रुख अपनाए जाने से भारत बहुत चिन्तित था। छठे दशक के अन्त तक भारत को इस बात का एहसास हो गया था कि भारत के चीन के साथ मित्रतापूर्ण सहयोग स्थापित करने के यल पूर्णतः असफल हो गए और भारत की उत्तरी तथा पूर्वी सीमाओं पर चीन का खतरा बढ़ गया ता। 1950 के दशक के आरम्भ में चीनी मानचित्रों को बनाने का जो खेल प्रतीत होता था, वहीं इस के दशक के अन्त तक चीन द्वारा भारतीय क्षेत्र के बड़े भू-भाग को हड़पने का खेल बन गया। भारत और चीन के बीच कोई सीमा विवाद नहीं है’, इस स्पष्ट बयान से चीन ने अपनी स्थिति को बदला और कहा, “भारत-चीन सीमा का कभी सीमांकन नहीं हुआ तथा कथित मेकमोहन रेखा चीन के प्रति तिब्बत पर ब्रिटिश आक्रामक नीति की उपज थी, इसलिए चीन को यह मान्य नहीं थी।” सीमा मुद्दे पर चीन के इस परिवर्तित दृष्टिकोण से भारत को बड़ा धक्का लगा और भारत ने चीन के साथ लगती उत्तरी सीमाओं पर अपने-आप को गम्भीर खतरे से दो-चार पाया। भारतीय सीमाओं पर बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों का जमाव और उनकी नियमित रूप से भारतीय सीमाओं का उल्लंघन भारत के लिए एक सिरदर्द बन गया। सीमा घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगीं। 1955-62 तक 30 ऐसे स्पष्ट मामले सामने आये, जिनमें चीनी सैनिकों ने स्पष्ट रूप से भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण किया। इससे भारत-चीन सीमा एक आग्नेय सीमा बन गई। दोनों देशों के सम्बन्ध 1959 में तिब्बत की अशान्ति तथा दलाई लामा तथा उसके अनुयायियों को शरण देने के कारण और भी अधिक कटु हो गए।

  1. टकराव को टालने के प्रयत्न

    भारतीय सीमाओं पर चीन की ओर से मंडराते युद्ध के खतरे के होते हुए भी भारत चीन की मित्रता प्राप्त करने के लिए किसी भी अवसर को खोने के लिए तैयार नहीं था। नेहरू अब भी कहते थे, “हमें ऐसा कुछ न तो कहना चाहिए और न ही ऐसा कुछ करना चाहिए, जिससे चीन को यह आभास मिले कि उनके राष्ट्रीय गौरव और सम्मान को आहत कर रहे हैं।” भारत अब भी चीन के साथ अपनी सीमाओं का प्रश्न शान्तिपूर्ण वार्ता तथा पंचशील की भावना द्वारा हल करना चाहता था। लेकिन शान्तिपूर्ण वार्ता द्वारा समस्या का समाधान ढूँढ़ने के सारे यल बुरी तरह असफल रहे। सन् 1960 के आरम्भ में नेहरू ने चाऊ-इन-लाई को भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत बुलाया। परिणामस्वरूप अप्रैल, 1960 में चाऊ भारत आया और छः दिन भारत में रहा। इस दौरान उसने श्री नेहरू तथा दूसरे भारतीय नेताओं से बातचीत की। वह सीमा विवाद को हल करने के लिए गम्भीर था। लेकिन दुर्भाग्य से दोनों देश न तो किसी समझौते पर पहुँचे और न ही सीमा विवाद की प्रकृति तथा न ही उनके विषय-क्षेत्र को आंक पाए। विचार-विमर्श के समय यह पता चला कि दोनों देशों ने जो स्थितियाँ अपनाई हुई थीं, उनमें बहुत अधिक अन्तर था। भारतीय लोकसभा में बोलते हुए श्री नेहरू ने कहा, “भारत तथा चीन के सम्मुख एक दूसरे से भिन्न तथ्यों की कठोर चट्टान सदा ही सामने आ जाती रही।” श्री नेहरू भारत के वैध दावे पर अड़े रहे और उन्होंने किसी राजनीतिक अथवा सैनिक महत्त्व पर आधारित किसी भी समाधान के लिए वार्ता करने से इन्कार कर दिया। इसके विपरीत चाऊ-इन-लाई अक्साई चिन तथा उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में चीनी दावे पर रहा। इन क्षेत्रों में उन्होंने पहले ही सड़क बना ली थी और यह क्षेत्र उनके अधिकार में था। परिणामस्वरूप 1960 ई० की नेहरू-चाऊ वार्ता बिना किसी परिणाम के असफल हो गई। वार्ता के असफल होने पर दोनों देशों ने एक दूसरे देश को कठोर रवैया अपनाने के लिए दोष दिया।

  2. सीमा मुद्दे पर तीव्र मतभेद

    भारतीय एवं चीनी प्रतिनिधियों के बीच दिसम्बर 1960 में कई सप्ताहों की असफल वार्ता के बाद दोनों की ओर से दो विभिन्न रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिनसे दोनों देशों के सीमा के प्रति तीव्र मतभेद उभर कर सामने आए। भारतीय प्रतिनिधि मण्डल ने वार्ता में 630 प्रमाण-पत्र प्रस्तुत किए जिन में 49 कानूनी थे और 516 पारस्परिक तथा प्रशासनिक तथ्यों से समर्थित थे। चीन ने केवल 245 प्रमाण-पत्र ही प्रस्तुत किए, जिनमें 47 कानूनी थे और 198 पारस्परिक तथा प्रशासनिक तथ्यों से समर्पित थे। वार्ता के दौरान इस तथ्य पर प्रकाश पड़ा कि चीन ने भारतीय क्षेत्र का 12,000 वर्ग मील भाग पहले ही गैर-कानूनी रूप से हड़प लिया था।

  3. भारतीय उत्तरी सीमाओं पर युद्ध के बादल

    1961 ई० में लद्दाख और नेफा क्षेत्रों पर युद्ध के बादल मंडराने शुरू हो गए थे। अप्रैल 1961 मे चीन ने सिक्किम में घुसपैठ की और मई में लद्दाख के चसूल क्षेत्र में 1 जुलाई में नेफा के कासेग मण्डल में पैर बढ़ाए और अगस्त में चीन ने लद्धाख में तीन सैनिक चौकियाँ सथापित कर लीं। चीनियों की इस घुसपैठ ने तथा अप्रैल 1960 में चीनियों द्वारा पूर्ण भारत-चीन सीमा पर गश्त करने की धमकी से भारत सचेत हुआ और उसे चीन के साथ लगने वाली भारत की सीमा पर सेना को मजबूत करने की आवश्यकता महसूस हुई और उसने अपने क्षेत्र में नई सैनिक चौकियाँ स्थापित करनी शुरू की। भारत की इस कार्यवाही का चीनियों ने कड़ा विरोध किया। ऐसा प्रतीत होने लगा कि स्थिति सीधे संघर्ष की ओर बढ़ रही थी।

  4. 1962 का चीनी आक्रमण
    जनवरी 1962 सपानगुर में चीनियों ने नेफा में लौंगजू को पार किया। जून 1962 में लद्दाख क्षेत्र में चुपचाप तथा में प्रविष्ट हुए। जुलाई 1962 को उन्होंने गल्वान घाटी को घेर लिया। 8 सितम्बर, 1962 को चीनियों ने थंगला पठार को पार किया और नेफा में और अधिक आगे बढ़ आए। इस तिथि के बाद वे भारतीय सीमा पर एक बड़े युद्ध की तैयारी में गोलाबारी करते रहे, और यह युद्ध 20 अक्तूबर, 1962 की सुबह को आरम्भ हो गया। इन दिन चीनी सैनिकों ने पूर्वी तथा पश्चिमी क्षेत्रों में बहुत बड़ा आक्रमण किया। उन्होंने भारतीय सैनिकों को पछाड़ दिया। भारतीय सैनिकों की संख्या बहुत कम थी और उनके शस्त्र भी घटिया किस्म के थे। चीनियों को पता था कि भारत बड़े हमले के लिए तैयार नहीं था और चीनियों के भारी हमले में हमें आश्चर्यचकित कर दिया। हमारी सेनाएं नेफा में पराजित हुईं। सामरिक दृष्टि से भले ही हमें कुछ हानि हुई हो लेकिन लद्दाख में हमारी सेनाओं ने अपनी शक्ति का अच्छा परिचय दिया। नेफा में तीन सप्ताह की लड़ाई में चीन इस स्थिति में आ गया था कि वह सभी पहाड़ी दरों को पार कर सकता था और इससे असम के मैदानों को खतरा पैदा हो गया था। चीन के पूर्णस्तरीय आक्रमण की सम्भावना से भारत बुरी तरह चिन्तित हो गया। परिणामस्वरूप उसने कुछ मित्र देशों से सहायता लेने का निर्णय किया। लेकिन 21 नवम्बर, 1962 को चीन ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी और भारत-चीन के बीच 7 नवम्बर, 1959 की वास्तविक नियन्त्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे हटने का निर्णय किया। एन० डी० पामर लिखते हैं, “इस प्रकार युद्ध का डर सीमा युद्ध में परिवर्तित हो गया।” लेकिन भारत की सैनिक दृष्टि से, कूटनीति की दृष्टि से और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत बड़ी करारी हार हुई। श्री नेहरू ने भी स्वीकार किया, “हम अपने द्वारा निर्मित नकली वातावरण में रहते रहे हैं चीनी कृत्यों में हमें यथार्थ का बोध हुआ है।”
  5. युद्धोत्तर काल में भारतचीन सम्बन्ध
    सन् 1962 ई० के उत्तर काल में सम्पर्क की कमी के कारण भारत-चीन सम्बन्ध टूटे रहे जो 1970-71 तक ऐसे ही बने रहे। युदध के बाद दोनों देशों में से किसी ने भी राजदूतों की नियुक्ति नहीं की और दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध भी प्रभारी राजदूत के स्तर पर आ गए। चीन भारत के प्रति अधिक से अधिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार अपनाने लगा। दूसरे छोटे देशों से सीमा समझौते करके चीन भारत को अलग-थलग करने की कोशिश करने लगा। इसका उद्देश्य यह था कि चीन विश्व को यह बतलाना चाहता था कि वह पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद हल करने के मामले में कितना उदार तथा तर्कसंगत है, जबकि भारत इसके विपरीत कठोर एवं असमझौतावादी है। चीन ने पुनः भारत विरोधी प्रचार को तेज कर दिया। एक बार फिर चीन ने भारत को साम्राज्यवादियों का पिटू कहना शुरू कर दिया और उसने भारत को साम्राज्यवादियों के हाथ की कठपुतली कहा, जो इसे अन्तर्राष्ट्रीय चीन-विरोधी अभियान में प्रयुक्त करते थे। उसने सिक्रिम और भूटान के प्रति भारतीय नीति को विस्तारवादी कहना आरम्भ कर दिया।
  6. चीनपाकिस्तान धुरी की स्थापना
    केवल इतना ही नहीं, चीन ने भारत के शत्रु पाकिस्तान को कश्मीर के लिए पूर्ण समर्थन, आर्थिक तथा सैनिक सहायता देकर मित्र बनाना शुरू किया। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की सीमा के सम्बन्ध में चीन ने पाकिस्तान के साथ एक सीमा-समझौते पर हस्ताक्षर किए। 1965 ई० के भारत-पाक युद्ध में चीन ने पाकिस्तान को नैतिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक तथा सैनिक सहायता के रूप में पूर्ण समर्थन दिया। भारत जब पाकिस्तानी आक्रमण को पीछे धकेलने का यत्न कर रहा था तभी चीन ने भारत-चीन सीमा पर तनाव पैदा करने की चेष्टा की। पाकिस्तान को समर्थन देने के लिए तब भारत पर दबाव डालने के लिए चीन ने भारत को गम्भीर परिणामों की धमकी भी दी। लेकिन चीन ने 1965 ई० के भारत-पाक युद्ध में किसी भी प्रकार के सैनिक हस्तक्षेप से गुरेज किया। 1965 ई० के बाद चीन और पाकिस्तान दोनों ने मिलकर दक्षिण एशिया में भारत विरोधी शक्तियों को संगठित करना शुरू कर दिया। चीन और पाकिस्तान की दुर्गम सन्धि ने भारत को सताना शुरू कर दिया। बीजींग-पिंडी धुरी, 1964 के अणुबम विस्फोट के बाद चीन की तेजी से बढ़ती सैनिक शक्ति, चीन का भारत से सीमा-विवाद के सम्बन्ध में कड़ा रुख, सीमा पर चीन और भारतीय सेना में बढ़ती हुई गोलाबारी की घटनाएँ तथा चीन का भारत विरोधी तत्त्वों जैसे आतंकवादी नागाओं, मिजो, विद्रोहियों, नक्सलवादियों का समर्थन, आदि सब से इन दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों में गहरा तनाव और दबाव पैदा कर दिये।

निष्कर्ष

इस प्रकार 1962 से लेकर 1971 तक के पूर्ण काल में भारत-चीन सम्बन्ध तनावपूर्ण तथा दबावाधीन एवं शत्रुतापूर्ण रहे। चीनी आक्रमण के बाद सन् 1971 तक के काल का भारत चीन सम्बन्धों का इतिहास अमैत्रीपूर्ण तथा शत्रुतापूर्ण बना रहा। इस समय के भारत-चीन सम्बन्धों पर टिप्पणी करते हुए डॉ० वी० पी० दत्त ने उचित ही लिखा था, “भारत के प्रति पीकिंग की नीति सम्भावित लक्षण पर आधारित है कि भारत पतन तथा विघटन के युग में प्रविष्ट कर गया है और इसलिए चीन को केवल यह करना है कि वह बैठ कर कभी-कभार भीषण चोट पहुँचा दे…….” परन्तु जब भारत ने अखण्ड रहने की अपनी योग्यता को सिद्ध किया और दक्षिण एशिया में एक बड़ी शक्ति के रूप में भारत विकसित हुआ तो चीन ने 20वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपनी नीति को परिवर्तित किया। परिणामस्वरूप 1962 से 70 तक के काल के दौरान सम्बन्धों में जो ठण्डापन आ गया था, वह आठवें दशक में पिघलना शुरू हो गया। 1971 में दोनों देशों के सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया को शुरू किया और यह प्रक्रिया अभी तक चालू है। अब तक के यलों में सफलता तो मिली है किन्तु सीमा विवाद का कोई मान्य समाधान प्राप्त नहीं हो सका है और यह दोनों देशों में सामान्य सम्बन्ध बनाने में बहुत बड़ी बाधा बना हुआ है।

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