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रिकार्डों का मूल्य एवं वितरण सिद्धांत

रिकार्डों का सिद्धान्त (मूल्य एवं वितरण सिद्धांत)

रिकार्डों का सिद्धान्त

रिकार्डों मुख्यतया अपनी पुस्तक ‘Principles of Political Economy and Taxation’ के लिए प्रसिद्ध था। पुस्तक की प्रस्तावना में उसने अपने उद्देश्य को पूर्णतया स्पष्ट कर दिया है। वह कहता है कि भूमि की उपज जो श्रम, मशीन और पूँजी के सम्मिलित प्रयास से भूमि की सतह से निकाली जाती है क्रमशः तीनों हिस्सों में लगान, लाभ और मजदूरी में बाँटी जाती है। उसका मानना था कि इनके आपसी अनुपात को नियमित करने वाले नियमों का निर्धारण राजनीतिक अर्थनीति की मुख्य समस्या है।

मूल्य सिद्धान्त (Theory of Price)

मूल्य निर्धारण के सम्बन्ध में रिकार्डों ने स्मिथ के मार्ग को अपनाया। प्रारम्भ में उसने ‘स्वाभाविक’ और ‘बाजार मूल्य’ के भेद को स्पष्ट किया। ‘स्वाभाविक मूल्य’ से उसका अभिप्राय उस बिन्दु से है जिसके चारों ओर बाजार मूल्य चक्कर लगाता है और अन्त में उसके बराबर होने का प्रयत्न करता है। आश्चर्य है कि रिकार्डों स्वाभाविक मूल्य की स्पष्ट परिभाषा नहीं दे पाया और जो कुछ उसने लिखा, उससे केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। रिकार्डो ने मूल्य सम्बन्धी विश्लेषण के उपभोग मूल्य’ तथा ‘विनिमय मूल्य’ के अन्तर के स्पष्टीकरण से आरम्भ किया है। वह कहता है कि “उपयोगिता विनिमय मूल्य का प्रमाण नहीं है किन्तु उसके लिए अत्यन्त आवश्यक है। जिन वस्तुओं में उपयोगिता होती है। उनका विनिमय मूल्य दो बातों पर निर्भर करता है। वस्तु की दुर्लभता और उसके उत्पादन में लगा हुआ श्रम। मूल्य वस्तुओं जैसे – तस्वीरों, मूर्तियाँ, पुराने सिक्कों, पुस्तकों इत्यादि का विनिमय मूल्य केवल दुर्लभंता द्वारा ही निर्धारित होता है। वास्तव में वह इन वस्तुओं को इतनी अधिक सीमित समझता है कि उसने इसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने तो साधारण जीवन की वस्तुओं के मूल्य निर्धारण की ही व्याख्या की है। उसने लिखा है, “वस्तुओं, उनके विनिमय मूल्य तथा उन बातों की जो उनकी सापेक्षिक कीमतों को नियमित करती है, की चर्चा करते हुए हमें सदैव ही ऐसी वस्तुओं को सम्मिलित करना चाहिए जिनकी मात्रा मानवीय श्रम द्वारा बढ़ायी जा सके और जिनके उत्पादन में प्रतियोगिता बिना रोक के चालू रहती है।” इसलिए उसका विचार था कि इन सभी वस्तुओं का विनिमय उनको उत्पन्न करने में लगे हुए श्रम के अनुपात में होता है।

विभिन्न व्यवसायों में एक दिन या एक घण्टे के श्रम की तुलना करना कोई सरल काम नहीं है। रिकार्डों को इसका पूरा ज्ञान था इसीलिए तो उसका कहना था कि, “श्रम के विभिन्न गुणों के बारे में जो अनुमान लगाये जाते हैं, उनका सभी व्यावहारिक उद्देश्यों की दृष्टि से काफी यथार्थता से बाजार में सामंजस्य हो जाता है, जो माप एक बार निर्धारित हो जाती है उसमें थोड़ा परिवर्तन ही होता है।” आगे चलकर रिकार्डों ने कहा है कि “जिस बात की ओर मैं पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ उसका सम्बन्ध वस्तुओं के सापेक्षिक मूल्य के परिवर्तनों से है, न कि प्रत्येक वस्तु के अपने स्वतन्त्र मूल्य से। हम रिकार्डों के सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार दे सकते हैं, “पुनः उत्पन्नीय वस्तुओं का विनिमय, श्रम की उस मात्रा के अनुपात में होता है जो उनके उत्पादन के लिए आवश्यक है और श्रम की मात्रा को निर्धारित करने के लिए हम कुशल श्रमिक की एक दिन के श्रम की मजदूरी तथा अकुशल श्रमिक के एक दिन के श्रम से उसको प्रतिदिन प्राप्त होने वाली मजदूरी के अनुपात पर कर सकते हैं।” यद्यपि रिकार्डों ने घुमा-फिराकर अपने विचार को सिद्ध करने का प्रयत्न किया, किन्तु वह उस दोष को दूर नहीं कर पाया जिसके कारण उसका सिद्धान्त अव्यावहारिक प्रतीत होता है।

रिकार्डों के श्रम सिद्धान्त को व्यवहार में लाने में एक दूसरी कठिनाई यह है कि चूँकि पूँजी श्रमिकों को उनके काम में सहायता देती है इसलिए उसको भी उत्पादन लागत में सम्मिलित करना चाहिए। किन्तु रिकार्डों केवल श्रम को ही उत्पादन लागत मानता है। रिकार्डों भी अपने सिद्धान्त के इस दोष से परिचित था। इसलिए उसने कहा था, “वस्तुओं का विनिमय मूल्य उन वस्तुओं के उत्पादन में व्यय किये गये श्रम की मात्रा के अनुपात में निर्धारित होता है, उसके तुरन्त उत्पादन पर व्यय किये गये श्रम के अनुसार नहीं, वरन् उन सभी मशीनों, औजारों पर व्यय किये गये श्रम के अनुसार भी जिनसे उस वस्तु के उत्पादन में सहायता प्राप्त होती है।” सभी वस्तुओं का मूल्य इसी सिद्धान्त द्वारा बदलता रहता है। यद्यपि रिकार्डों इस दोष को दूर करने का प्रयत्न किया, परन्तु आंशिक रूप से सफल रहा क्योंकि वह निश्चित नहीं कर पाया कि पूँजी के उपयोग के लिए ब्याज दिया जाय या नहीं। वह कहता था कि वास्तव में अचल पूँजी के उत्पादन में जो श्रम लगता है, उसी के बराबर ब्याज उस पूँजी के उपयोग के लिए दिया जाना चाहिए। सच तो यह है कि यदि ब्याज सदैव ही श्रम की उस मात्रा के अनुपात में हो जो पूँजीगत वस्तुओं के उत्पादन में खर्च हुआ तो कोई भी कठिनाई न हो, किन्तु रिकार्डो जानता था कि सदैव ही ऐसा नहीं होता और इसीलिए उसके विचार बड़े ही उलझे हुए दिखाई देते हैं।

आगे चलकर उसने कहा कि विभिन्न वस्तुओं के विनिमय दर के परिवर्तन श्रम के मूल्य के परिवर्तनों के कारण ही उत्पन्न होते हैं। परन्तु ऐसा क्यों होता है? इसके उत्तर में उसने बताया कि, “उत्पादन के कार्य में जो पूँजी श्रम को सहयोग देती हो उसका ब्याज अथवा लाभ, श्रम के मूल्य के विपरीत दिशा में चलता इसलिए अनेक अर्थशास्त्रियों ने उसकी आलोचना की।

रिकार्डों ने अपने मूल्य सिद्धान्त की व्याख्या जिस प्रकार से की, उससे वह त्रुटिपूर्ण हो गया।

वितरण का सिद्धान्त (Theory of Distribution )

रिकार्डों ने मुख्य रूप से वितरण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन किया था। उसने राष्ट्रीय आय के वितरण के महत्त्व को स्पष्ट किया और उसके लिए मूल्य सिद्धान्त को लागू करके अर्थशास्त्र के विकास में एक बहुत बड़ा योगदान दिया था। वह पहला व्यक्ति था जिसने वितरण सम्बन्धी समस्याओं का वैज्ञानिक विश्लेषण किया और राष्ट्रीय आय में योग देने वाले विभिन्न साधनों के हिस्सों को निर्धारित करने के लिए विस्तृत नियम बनाये। स्मिथ द्वारा छोड़े गये कार्यों को रिकार्डों ने कुछ अंश तक पूरा किया; किन्तु समस्या का समाधान पूरी तरह न हो सका क्योंकि उसकी शैली अस्पष्ट थी और उसके कथन में तर्क की कमी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कहना कुछ और चाहता था परन्तु कह कुछ और रहा था। उसका सिद्धान्त एकांगी है क्योंकि उसने केवल उत्पादन लागत को ही महत्त्व दिया। रिकार्डो का महत्त्व केवल इसीलिए है कि उसने वितरण सम्बन्धी समस्याओं के महत्त्व को इतना अधिक स्पष्ट कर दिया था कि उसके बाद लगभग सभी अर्थशास्त्रियों ने उन्हीं पर अपनी दृष्टि केन्द्रित की। रिकार्डों के अनुसार राष्ट्रीय आय के वितरण का क्रम इस प्रकार चलता है – “लाभ ऊँची या नीची मजदूरी पर निर्भर करते हैं। मजदूरियाँ अनिवार्यताओं के मूल्य पर और अनिवार्यताओं के मूल्य मुख्य रूप से खाद्यान्न के मूल्य पर निर्भर करते हैं।” सीमान्त भूमि पर उत्पन्न होने वाले खाद्यान्न का विनिमय मूल्य उसकी श्रम लागत के अनुसार निर्धारित होती है। दीर्घकाल में मजदूरी में, खाद्यान्न के विनिमय मूल्य के बराबर होने की प्रवृत्ति होती है और विनिमय दरें प्रतियोगिता द्वारा समान हो जाती है। सीमान्त उत्पत्ति का जो भाग शेष रह जाता है वह लाभ होता है, जिसकी दरें भी प्रतियोगिता द्वारा समान हो जाती है। अधिक उपजाऊ भूमि पर ही लगान उत्पन्न होता है। उद्योगों के सकल उत्पाद का वितरण इसी प्रकार होता है।

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