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एडम स्मिथ के आर्थिक विचार

एडम स्मिथ के आर्थिक विचार

एडम स्मिथ के आर्थिक विचार

एडम स्मिथ का आर्थिक विचारों के विकास में अतुलनीय योगदान है। इसे निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

  1. श्रम विभाजन (Division of Labour) –

    श्रम सभी प्रकार का परिश्रम नहीं, केवल उत्पादक श्रम ही राष्ट्रों के धन का मुख्य स्रोत होता है। वे प्रयत्न जो वस्तु के विनिमय मूल्य में वृद्धि करते हैं, उत्पादक श्रम कहलाते हैं। श्रम की उत्पादकता श्रम-विभाजन पर निर्भर करती है क्योंकि श्रम-विभाजन मनुष्यों की विनिमय करने की प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होती है। इसलिए इसकी सीमा बाजार के विस्तार से प्रभावित होती है। वैसे तो श्रम विभाजन का विचार कोई नया नहीं था; परन्तु स्मिथ ने जिस प्रकार उसकी व्याख्या की थी, वह वास्तव में एक मौलिक योगदान था, क्योंकि स्मिथ के समय यही विश्वास किया जाता था कि मनुष्यों की प्राकृतिक गुणों की भिन्नता के कारण ही श्रम-विभाजन उत्पन्न होता है।

  2. मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Value)-

    मूल्य का आदर्श माप श्रम होता है। निश्चित परिस्थितियों में मूल्य माँग एवं पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है परन्तु प्रतियोगिता के प्रभाव से यह उत्पादन लागत के बराबर होने की निरन्तर कोशिश करता है। जब परिस्थितियाँ विक्रेताओं के पक्ष में होती हैं तब ऐसा नहीं होता। स्मिथ द्वारा की गयी वह विवेचना इसलिए सराहनीय है क्योंकि इसमें मूल्य के श्रम सिद्धान्त तथा माँग एवं पूर्ति सिद्धान्तों के संकेत मिलते हैं। इसके अतिरिक्त यह पैटी, लॉक और कैण्टीलन के विचारों पर भी एक सुधार था। इसमें आत्मवादी सम्प्रदाय (subjectivist school) के उदय के भी चिन्ह दिखायी देते हैं।

  3. मजदूरी (Wages) –

    प्राचीन समाज में जब भूमि पर निजी स्वामित्व नही था और पूँजी का संचय नहीं होता था, श्रमिक द्वारा उत्पन्न की गयी सम्पूर्ण वस्तु उसी की होती थी। किन्तु अब श्रमिक को मजदूरी दी जाती है और उसका निर्धारण मजदूरों और मालिकों की सापेक्षिक मोलभाव शक्तियों द्वारा होता है। उसने यह भी कहा कि मजदूरी श्रमिकों की माँग द्वारा निर्धारित होती है। श्रमिकों की माँग पूँजी के कोष पर निर्भर करती है। श्रमिकों को उतना ही भुगतान किया जाता है जो उनके जीवन निर्वाह तथा उनके वंश के भरण-पोषण के लिए काफी है। यही सिद्धान्त स्मिथ का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसने समाजवादियों को काफी सामग्री उपलब्ध करायी थी।

  4. वर्ग संघर्ष की संकेत (Hints towards class conflict) –

    उसने यह बताकर कि जब मजदूरी गिरती है तो लाभ बढ़ते हैं तथा जब मजदूरी बढ़ती है तो लाभ घटते हैं, समाज में उपस्थित वर्ग संघर्ष की ओर संकेत किया था, जिससे समाजवादियों को समाजवादी सिद्धान्त की रचना करने में बड़ी सहायता मिली थी। लाभ और मजदूरी की दरें एक-दूसरे के विपरीत दिशाओं में चलती हैं। पूँजी की मात्रा में वृद्धि होने से लाभ की दर नीची हो सकती है और कम होने से बढ़ जाती है। स्थिर अवस्था में मजदूरी और लाभ दोनों को दरें नीची हो सकती हैं और विकासशील समाज में दोनों ऊँची हो सकती हैं। विभिन्न व्यवसायों में मजदूरी की दरों में भिन्नता होने के कारणों का वर्णन करते हुए स्मिथ ने कहा है कि उद्योग, उनकी रुचि के अनुकूल है या नहीं, आसानी से सीखा जा सकता है या नहीं, स्थायी है या अस्थायी, श्रमिकों में विश्वास रखा जाता है या नहीं, सफलता की सम्भावना कितनी है इत्यादि के कारण ही विभिन्न उद्योगों में मजदूरी की दरें भिन्न-भिन्न होती हैं। लाभ की दरों में, मजदूरी की अपेक्षा कम भिन्नता पायी जाती हैं।

  5. लगान (Rent) –

    भूमि के लगान के सम्बन्ध में स्मिथ के विचार परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। वह लगान को एक प्रकार का शोषण मानता है। उनके अनुसार श्रमिक अपनी उत्पत्ति का जो भाग अपने भू-स्वामी को देता है, वह लगान होता है और यह मजदूरी तथा लाभ के साथ मूल्य का एक तत्त्व है परन्तु दूसरी ओर स्मिथ ने लगान को मूल्य का परिणाम बताया है। उसके अनुसार मूल्य कम या अधिक, ऊँची या नीची मजदूरी एवं लाभ के कारण होता है और मूल्य के प्रभाव में लगान ऊँचा या नीचा होता रहता है।

  6. करारोपण के सिद्धान्त (Concepts of Taxation) –

    स्मिथ के अनुसार, राज्य अपनी आय दो मुख्य स्रोतों से प्राप्त करता है :

(1) भूमि तथा पूँजी, (2) कर ।

करारोपण के लिए उसने चार निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। ये निम्न प्रकार हैं:

  1. समानता का नियम (Canon of Equity) –

    इसके अनुसार प्रत्येक राज्य की प्रजा को सरकार की सहायता के लिए यथासम्भव अपनी-अपनी योग्यता के अनुपात में (अपनी आय के अनुपात में) योगदान देना चाहिए। यह नियम सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

  2. निश्चितता का नियम (Canon of Certainity) –

    इस नियम के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति जो कर देना है, वह मनमाना नहीं, निश्चित होना चाहिए।” स्मिथ इसको बहुत महत्त्व देता था क्योंकि निश्चितता से सरकार और करदाता, दोनों को ही सुगमता तथा सन्तुष्टि रहती है।”

  3. सुविधा का नियम (Canon of Convenience) –

    प्रत्येक कर को ऐसे समय तथा ऐसे ढंग से लगाना चाहिए कि करदाता के लिए उसका भुगतना करना सबसे अधिक सुविधाजनक हो।

  4. मितव्ययता का नियम (Canon of Economy) –

    स्मिथ के अनुसार, प्रत्येक कर की व्यवस्था इस प्रकार की जाय कि राजकोष में जो भी राशि प्राप्त हो, उससे ऊपर कम-से-कम राशि व्यक्तियों की जेबों में से निकले।”

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