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Adam Smith की पुस्तक ‘राष्ट्रों का धन’ (Wealth of Nations) का आर्थिक विचारधारा पर प्रभाव

एडम स्मिथ की पुस्तक ‘राष्ट्रों का धन’ का आर्थिक विचारधारा पर प्रभाव

एडम स्मिथ की पुस्तक ‘राष्ट्रों का धन’ का आर्थिक विचारधारा पर प्रभाव

स्मिथ का मार्गदर्शन एक सर्वव्यापी सिद्धान्त द्वारा हुआ था और वह था स्वयं हित का सिद्धान्त अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में अपने भाग्य को उन्नत करने की इच्छा होती है। परिणामतः वह सम्पूर्ण आर्थिक संसार को एक बहुत बड़ा वर्कशाप समझता था जिसकी उत्पत्ति श्रम-विभाजन द्वारा हुई थी। उसका विश्वास था कि यही सिद्धान्त विषमता में एकता उत्पन्न करता है, इसलिए राजनीतिक व्यवस्था किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हितों पर नहीं, वरन् सम्पूर्ण समाज के सामान्य हितों पर आधारित होना चाहिए। स्मिथ के पुस्तक में मुख्यतः दो पहलुओं की उपस्थिति है – प्रथम आधारभूत सिद्धान्त तथा दूसरा, उसके आर्थिक विचार ।

आर्थिक विचारों में क्रान्ति ला देने वाली स्मिथ की पुस्तक ‘Wealth of Nations’ का प्रकाशन 1776 ई० में हुआ था। हालाँकि उसकी पुस्तक में कुछ भी नया नहीं कहा गया है बल्कि डेविंड ह्यरुम, प्रकृतिवादियों तथा अन्य लेखकों के विचारों में कुछ संशोधन करके उसकी रचना की गयी थी। आर्थिक दृष्टि से उसका विश्वास था कि प्रतियोगिता तथा स्वयं हित के प्रभाव में समाज अपने आप ही कार्य करता है। श्रम विभाजन और विनिमय की क्रियाओं द्वारा समाज के विभिन्न भाग एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। इस स्वयंचालित मशीन की कार्यकुशलता का मुख्य कारण उसकी स्वतन्त्रता है। इस प्रकार स्मिथ की पुस्तक में केवल जीवन की भौतिक बातें ही मिलती हैं और उसके जीवन को खुली आँखों से आदर्शवाद का चश्मा लगाये बिना देखा था। सच तो यह है कि एडम स्मिथ का नाम आर्थिक चिन्तन के इतिहास में सदैव अमर रहेगा। स्वयं एक शोधकर्ता होने के कारण उसने एक नया मार्ग दिखाया था। उसका दृष्टिकोण इतना व्यापक था कि उसके पूर्वज उसके निकट कभी भी नही आते। उसे कम-से-कम इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने एक रूपरेखा खींच दी थी, जिसके आधार पर उसके बाद आर्थिक विचारों का विकास हुआ। ग्रे ने सत्य कहा कि “एडम स्मिथ से पहले काफी आर्थिक विवेचन हुआ था, परन्तु उसके साथ हम अर्थशास्त्र का विवेचन करने के स्तर पर पहुँचते हैं।”

निःसन्देह उसकी पुस्तक सबसे अधिक प्रभावपूर्ण थी। उसका प्रभाव इंग्लैण्ड के अतिरिक्त कई देशों में दिखायी दिया था। यह अनेक महत्त्वपूर्ण देशों में पढ़ी गयी थी। इसने आर्थिक विचारों की प्रगति को आगे बढ़ने में सहायता की थी। उसकी पुस्तक आर्थिक चिन्तन के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण युगों में से एक की स्थायी स्मारक रहेगी। आर्थिक संसार की अनन्त विषमता को एक ही कार्यक्षेत्र में सम्मिलित कर लेने का इसे सबसे सफल प्रयास समझना चाहिए। उसकी पुस्तक का प्रभाव इतना अधिक था कि उसके विरोधियों तथा समर्थकों, दोनों ही ने उसको आरम्भ बिन्दु माना है। उसके प्रशंसकों ने उसका सहारा लेकर विज्ञान का विस्तार किया और आगे बढ़ाया और उसके आलोचनों ने उसके सिद्धान्तों को अपनी आलोचन का पात्र बनाकर, विज्ञान को आगे बढ़ाने में सहायता की। यह मानना ही पड़ेगा कि यद्यपि राजनीतिक अर्थनीति विषय उसके द्वारा परिपक्व नहीं हुआ, परन्तु उसका आरम्भ अवश्य ही उसी से हुआ था। उसके कुछ विचार इतने सत्य एवं व्यावहारिक हैं कि आज तक उन पर सन्देह प्रकट नहीं किया गया; जैसे मुद्रा का सिद्धान्त, श्रम-विभाजन का महत्त्व, आर्थिक संस्थाओं का स्वयंभू चरित्र, आर्थिक जीवन में व्यक्तिगत हितों की महत्ता, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का विचार इत्यादि। वास्तव में, स्मिथ ने अपनी पीढ़ी के लोगों को ही प्रभावित नहीं किया वरन् अपने बाद की पीढ़ी पर भी प्रभाव डाला था।

परिस्थितियों ने भी स्मिथ का साथ दिया था। अमेरिका स्वतन्त्रता संग्राम ने सिद्ध कर दिया था कि – (क) उपनिवेश प्रणाली का महत्त्व समाप्त हो गया है और कोई भी उपनिवेश किसी समय उपद्रव कर सकता है। (ख) संरक्षण करों की नीति अब बेकार हो गयी थी। अमेरिकी युद्ध के अतिरिक्त अन्य बातें भी थीं, जिनके कारण यह परिवर्तन हुआ था। नेपोलियन युद्धों के बाद से अंग्रेज व्यापारियों ने भली-भाँति समझ लिया था कि बाजारों का विस्तार बहुत आवश्यक है। फ्रांसीसी क्रान्ति से स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों को दृढ़ता प्राप्त हो गयी थी। विलियम पिट ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति अपनाकर और औद्योगिक क्रान्ति ने श्रमिकों एवं मालिकों के बीच खाई उत्पन्न करके यह सिद्ध कर दिया था कि तात्कालिक अधिनियमों का महत्त्व समाप्त हो चुका था। स्मिथ का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता ही गया। इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री ने स्मिथ द्वारा बताये गये नियमों के आधार पर करारोपण नीति निर्मित की थी।

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