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मार्गदर्शन एवं परामर्श में सम्बन्ध

मार्गदर्शन एवं परामर्श में सम्बन्ध

मार्गदर्शन एवं परामर्श में सम्बन्ध (Relationship between Guidance and Counselling)

मार्गदर्शन और परामर्श दोनों एक बड़े ही प्रयोजन की सिद्धि करते हैं और वह है मार्गदर्शन या परामर्श के इच्छुक व्यक्ति की इस तरह सहायता करना जिसके द्वारा उसका तथा समाज का अधिक-से-अधिक तरह हित-चिन्तन हो सके । दोनों ही यह नहीं चाहते कि व्यक्ति की सहायता इस प्रकार की जाये कि वह सहायता देने वाले के ऊपर निर्भर बना रहे बल्कि उसके सामने ऐसे तर्कयुक्त विचार, दृष्टिकोण तथा सही विकल्प आदि रखना चाहते हैं जिनका मंथन कर वह अपनी शक्ति तथा योग्यताओं के अनुरूप अपना रास्ता स्वयं खोज सके, अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझा सके तथा अपने वृद्धि और विकास की ऊँचाइयों पर स्वयं चढ़ सके।

प्रश्न उठता है कि फिर इन दो अलग-अलग शब्दों-मार्गदर्शन और परामर्श प्रयोग में लाने की क्या आवश्यकता है । अगर ये पर्यायवाची हैं तो किसी एक का ही प्रयोग करना ठीक रहता है । उत्तर यही होगा कि ये पर्यायवाची नहीं हैं, एक जैसे उद्देश्यों की पूर्ति करते हुए भी इनकी प्रक्रिया तथा आधार प्रणाली में अन्तर है ।

मार्गदर्शन से कुछ ऐसा आभास होता है कि कोई किसी व्यक्ति को जो मार्ग भटक गया है या संशय और परेशानी में पड़ गया है, उसे सही मार्ग दिखाने तथा उपयुक्त सूचना या ज्ञान प्रदान करने का कार्य कर रहा है। इससे उस व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत, व्यावसायिक तथा शैक्षिक समस्याओं के समाधान के लिए उचित सहायता मिल जाती है। यह उँगली पकड़कर रास्ता दिखलाने वाली बात नहीं वरन् उसे रास्ते की ओर मात्र इशारा भर करना है जिस पर चलकर कोई अपनी मंजिल तक पहुँच सकता है । इस प्रकार का मार्गदर्शन किसी को भी व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से दिया जा सकता है । विद्यालयों में इसके लिए मार्गदर्शन सेवाओं (Guidance Services) का आयोजन किया जा सकता है जहाँ विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार की सूचनाओं तथा उनकी समस्याओं के समाधान के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान किया जा सकता है इस प्रकार की सहायता प्रदान करने में मार्गदर्शक और मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले के बीच मधुर सम्बन्ध, घनिष्ठता तथा तादात्म्यीकरण आवश्यक नहीं है । उनके बीच गोपनीयता, आपसी विश्वास तथा निष्ठा आदि बन्धनों का होना भी जरूरी नहीं है। परामर्श, मार्गदर्शन की तुलना में कई अधिक बातों की उपेक्षा करता है।

(1) एक तो यह कि पूर्णतया वैयक्तिक स्तर पर ही सम्पन्न हो सकता है, सामूहिक तौर पर नहीं । परामर्श लेने वाला जब तक खुलकर अपनी समस्या को सामने नहीं रखेगा, तब तक उसे उपयुक्त सलाह या मशवरा दिया ही कैसे जा सकता है ? किसी के सामने कोई तभी खुलेगा जबकि वह उसे विश्वसनीय तथा अपनी समस्या के समाधान योग्य समझेगा । अत: इसमें दोनों के बीच अपेक्षित निकटता तथा आपसी विश्वास का होना जरूरी ही है । दूसरे, जो कुछ उनके बीच चल रहा है, उन बातों का गोपनीय रहना भी जरूरी है।

(2) परामर्श में परामर्शदाता तथा परामर्श लेने वाले दोनों का आमने-सामने होना आवश्यक है । जब तक प्रत्यक्ष सम्पर्क की इस कड़ी में निरन्तरता नहीं बनी रहेगी, तब तक परामर्श से वांछित लाभ नहीं प्राप्त हो सकेगा।

(3) परामर्श प्रदान करने वाले को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले से अधिक कुशल, निष्ठावान तथा परामर्श देने की कला में प्रशिक्षित होना आवश्यक है । उसे मानवीय सम्बधों की जानकारी आवश्यक है, ताकि वह परामर्श लेने वाले को मनोवैज्ञानिक ढंग से अच्छी तरह समझाकर उसकी उचित सहायता इस प्रकार कर सके कि किसी अवस्था में भी परामर्श लेने वाला उस पर बोझ न बने बल्कि उपकी शक्ति तथा योग्यताओं का इस तरह विकास हो कि वह अपने आप य लेने तथा अपनी प्रगति की राह चुनकर आगे बढ़ने में समर्थ हो सके ।

इस तरह बारीकी से छानबीन करने पर मार्गदर्शन तथा परामर्श में कुछ अन्तर दखने को मिल जाते हैं परन्तु जहाँ तक व्यावहारिकता की बात है, इन दोनों में कोई विशेष भेद करके नहीं चला जाता । मार्गदर्शन को जब सीमित अर्थों में न लेकर विस्तृत अर्थ में लिया जाता है तो उसकी प्रक्रिया और क्षेत्र में परामर्श सेवाओं का भी समावेश हो जाता है । इस तरह परामर्श लन भी परामर्शदाता को निर्देशन, सलाह देना आदि सभी प्रक्रियाओं की आवश्यकतानुसार सहायता लेनी ही पड़ती है। परामर्श प्रक्रिया में बस एक विशेष बात परामर्शदाता तथा परामर्श लेने वाले के बीच अधिक आत्मीयता, आपसी विश्वास, गोपनीयता तथा आपसी समझ को लेकर है जो किसी और सहायता प्रक्रिया में नहीं दिखायी देती ।

जहाँ तक इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध की बात है तो इन्हें एक-दूसरे का पूरक माना जाना चाहिए । कहीं शुरुआत परामर्श से होती है और उसका विस्तार मार्गदर्शन में होता है या मार्गप्रदर्शन की प्रक्रिया में सहायक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो कहीं मार्गदर्शन से शुरुआत करके उसका अन्त वांछित परामर्श सेवाओं में होता है। विद्यालयों में सामान्य रूप से शुरुआत सामूहिक मार्गदर्शन द्वारा की जाती है। सामान्य जानकारी देने, स्रोतों से परिचित कराने, निवारण तथा उपचार सम्बन्धी शिक्षा देने, व्यावसायिक तथा शैक्षिक मार्गदर्शन प्रदान करने आदि जैसे कार्य सामूहिक या व्यक्तिगत मार्गदर्शन द्वारा किये जा सकते हैं । इसके पश्चात् जैसे-जैसे बालकों की विभिन्न समस्याएँ ऐसी हों जिसमें बिना व्यक्तिगत सम्पर्क तथा व्यक्तिगत अध्ययन से पार पाना सम्भव न हो तो फिर परामर्श सेवाओं की सहायता ली जाती है । बालकों से किसी प्रकार की कोई गलती चयन, शिक्षा-प्रणाली तथा व्यवहारगत बातों को लेकर हो गयी है या वे किसी भी तरह कुसमायोजित होकर व्यवहार समस्याओं से घिर गये हों तो ऐसी हालत में अपेक्षित सुधार तथा उपचार हेतु परामर्श सेवाएँ ही अधिक उपयोगी सिद्ध होती हैं। अत: मार्गदर्शन तथा परामर्श सेवाओं को विद्यार्थियों के हित सम्पादन की दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक तथा मित्रों की भाँति ही प्रयोग में लाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

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