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निर्देशन की आवश्यकता

निर्देशन की आवश्यकता

शैक्षिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकता (Need of Guidance in Education)

शिक्षा सबके लिए और सब शिक्षा के लिए है। इस विचार के अनुसार प्रत्येक बालक को शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। शिक्षा किसी विशिष्ट समूह के लिए नहीं है। भारत सरकार ने भी संविधान में यह प्रावधान रखा है कि शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य हो। किन्तु अनिवार्य शिक्षा से तात्पर्य है कि प्रत्येक बालक को उसकी योग्यता एवं बुद्धि के आधार पर शिक्षित किया जाए। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव है। शैक्षिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकता निम्न आधारों पर अनुभव की जाती है।

  1. पाठ्यक्रम का चयन (Choice of Curriculum)- आर्थिक एवं औद्योगिक विविधता के परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम में विविधता का होना आवश्यक है। इसी आधार पर मुदालियर आयोग ने अपने प्रतिवेदन में विविध पाठ्यक्रम को अपनाने की संस्तुति की। इस संस्तुति को स्वीकार करते हुए विद्यालयों में कृषि विज्ञान, तकनीकि, वाणिज्य, मानवीय, गृहविज्ञान, ललित कलाओं आदि के पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये। इसने छात्रों के समक्ष उपयुक्त पाठ्यक्रम के चयन की समस्या खड़ी कर दी। इस कार्य में निर्देशन अधिक सहायक हो सकता है।
  2. अपव्यय अवरोधन (Wastage and Stagnation)- भारतीय शिक्षा जगत की एक बहुत बड़ी समस्या अपव्यय से सम्बन्धित हैं । यहाँ अनेक छात्र शिक्षा-स्तर को पूर्ण किये बिना ही विद्यालय छोड़ देते हैं, इस प्रकार उस बालक की शिक्षा पर हुआ व्यय व्यर्थ हो जाता हैं।

श्री के0 जी0 सैयदैन ने अपव्यय की समस्या को स्पष्ट करने के लिए कुछ आँकड़े प्रस्तुत किये हैं। सन् 1952-53 में कक्षा 1 में शिक्षा प्राप्त करने वाले 100 छात्रों में से सन् 1955-56 तक कक्षा 4 में केवल 43 छात्र ही पहुंच पाये। इस प्रकार 57 प्रतिशत छात्रों पर धन अपव्यय हुआ। इसी प्रकार की समस्या अवरोधन की है। एक कक्षा में अनेक छात्र कई वर्ष तक अनुत्तीर्ण होते रहते है। बोर्ड तथा विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में तो अनुत्तीर्ण छात्रों की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। गलत पाठ्यक्रम के चयन, गन्दे छात्रों की संगति या पारिवारिक कारण अपव्यय या अवरोधन की समस्या को उत्पन्न करते है। निर्देशन सेवा इन कारणों का निदान करके इस समस्या के समाधान में अधिक योगदान कर सकती है।

  1. विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार द्वारा शिक्षा-प्रसार के लिए उठाये गये कदमों के परिणामस्वरूप विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई। कोठारी आयोग ने तो सन् 1985 तक किनती वृद्धि होगी उसका अनुमान लगाकर विवरण दिया है। छात्रों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ कक्षा में पंजीकृत छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता सम्बन्धी विविधता में भी वृद्धि होगी। यह विविधता शिक्षकों एवं प्रधानाचार्य के लिए एक चुनौती रूप में होगी, क्योंकि उधर राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है कि छात्रों को उनकी योग्यता, बुद्धि, क्षमता आदि के आधार पर शिक्षित एवं व्यवसाय के लिए प्रशिक्षित करके एक कुशल एवं उपयोगी उत्पादक नागरिक बनाया जाय। यह कार्य निर्देशन सेवा द्वारा ही सम्भव हो सकता है।
  2. अनुशासनहीनताछात्रों में बढ़ते हुए असन्तोष तथा अनुशासनहीनता राष्ट्रव्यापी समस्या हो गई है। आये दिन हड़ताल करना, सार्वजनिक सम्पत्ति की तोड़-फोड़ करना एक सामान्य बात हैं इस अनुशासनहीनता का प्रमुख कारण यह है कि वर्तमान शिक्षा छात्रों की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में असफल रही है। इसके साथ ही उनकी समस्याओं के समाधान के लिए विद्यालयों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जहाँ वे उचित परामर्श प्राप्त करके लाभान्वित हो सकें। निर्देशन सहायता बढ़ती हुई अनुशासनहीनता को कम कर सकती है।
  3. सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में वृद्धि (Increase in the Scope of General Education)- हम ऊपर देख चुके हैं कि समस्त आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक वातावरण बदल गया है। इस परिवर्तित वातावरण के साथ शिक्षा क्षेत्र में भी परिवर्तन आ गये हैं। समाज की आवश्यकताएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु नये-नये व्यवसाय अस्तित्व में आ रहे हैं अतएवं नये-नये पाठ्य-विषयों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। पाठ्य विषयों का अध्ययन छात्र के लिए कुछ विशेष व्यवसायों में प्रवेश पाने में सहायक होता है। इनमें सफलता के हेतु भिन्न-भिन्न बौद्धिक स्तर,

मानसिक योग्यता, रूचि तथा क्षमता आदि की आवश्यकता पड़ती हैं अतः यह आवश्यक है कि माध्यमिक शिक्षा के द्वार पर पहुँचे हुए छात्र को उचित निर्देशन प्रदान किया जाए जिससे वह ऐसे विषय का चयन कर सके जो उसकी योग्यता के अनुकूल हो।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से (Need of Guidance from Psychological point of view)

प्रत्येक मानव का व्यवहार मूल प्रवृत्ति एवं मनोभावों द्वारा प्रभावित है। उसकी मनोशारीरिक आवश्यकताएँ होती है। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं मनोभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व को निषित करते हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि व्यक्तित्व पर आनुवंशिकता के साथ-साथ परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है। निर्देशन सहायता द्वारा यह निश्चित होता है कि किसी बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए कैसा परिवेश चाहिए।

  1. वैयक्तिक भिन्नताओं का महत्व (The Importance of individual differences)- यह तथ्य सत्य है कि व्यक्ति एक-दूसरे से मानसिक संवेगात्मक तथा गतिवाही आदि दशाओं में भित्र होते है। इसी कारण व्यक्तियों के विकास तथा सीखने की भी भिन्नता होती है। प्रत्येक व्यक्ति के विकास का क्रम विभिन्न होता है तथा उनके सीखने की योग्यता तथा अवसर विभिन्न होते है। यह वैयक्तिक विभिन्नता वंशानुक्रम तथा वातावरण के प्रभाव से पनपती है। एक बालक कुछ लक्षणों को लेकर उत्पन्न होता है तो उसकी व्यक्तिगत योग्यता को निर्धारित करते है। यह गुण वंशानुक्रम से प्राप्त होते है इसीलिए बालकों में भिन्नता होती है। इसी प्रकार प्रत्येक बालक के पालन पोषण से सम्बन्धित वातावरण दूसरों से भिन्न होता है। अतएव जो गुण वह अर्जित करता है वह भी दूसरों से भिन्न होते हैं। यह वैयक्तिक भेद बुद्धि, शारीरिक विकास, ज्ञानोपार्जन, व्यक्तित्व, सुझाव, संवेगात्मक, गतिवाही, योग्यता आदि सभी आधारों पर विद्यमान रहते है। ,
  2. सन्तोषप्रद समायोजन (Satisfactory Adjustment)- सन्तोषप्रद समायोजन व्यक्ति की कार्य कुशलता, मानसिक, दशा एवं सामाजिक प्रवीणता को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। सामाजिक, शैक्षिक या व्यावसायिक कुसमायोजन राष्ट्र के लिए घातक होता है। व्यक्ति संतोषजनक समायोजन उसी दशा में प्राप्त कर पाता है जबकि उसको अपनी रूचि एवं योग्यता के अनुरूप व्यवसाय विद्यालय या सामाजिक समूह प्राप्त हो। निर्देशन सेवा इस कार्य में छात्रों की विभिन्न विशेषताओं का मूल्यांकन करके उनके अनुरूप ही नियोजन दिलवाने में अधिक सहायक हो सकती है।
  3. भावात्मक समस्याएँ (Emotional Problems)- भावात्मक समस्याएँ व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के कारण जन्म लेती है ये भावात्मक समस्याएँ व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करके उसकी मानसिक शान्ति में विघ्न पैदा करती है। निर्देशन सहायता द्वारा भावात्मक नियन्त्रण में सहायता मिलती है इसके साथ ही निर्देशक उन कठिनाइयों का पता लगा सकता है जो भावात्मक अस्थिरता को जन्म देती है।
  4. अवकाशकाल का सदुपयोग (Proper Use of Leisure Time)- विभिन्न वैज्ञानिक यन्त्रों के फलस्वरूप मनुष्य के पास अवकाश का अधिक समय बचा रहता है। वह अपने कार्यों को यन्त्रों के माध्यम से सम्पन्न कर समय बचा लेता है। इस बचे हुए समय को किस प्रकार उपयोग में लाया जाय, यह समस्या आज भी हमारे सम्मुख खड़ी हुई है। समय बरबाद करना मनुष्य तथा समाज दोनों के अहित में है और समय का सदुपयोग करना समाज तथा व्यक्ति दोनों के लिए हितकर है। अवकाश के समय को विभिन्न उपयोगी कार्यों में व्यय किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, अवकाश के समय समाज सेवा का कार्य, सुनागरिकता सम्बन्धी विभिन्न कार्य तथा अन्य उपयोगी क्रियाएँ की जाती है। मनुष्य अवकाश काल में सिर्फ विश्राम करना जानता है, पर विश्राम के अतिरिक्त अन्य प्रकार के मनोरंजन का उसे ज्ञान नहीं है। यह ज्ञात कराना निर्देशन का काम है।
  5. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)- व्यक्तित्व शब्द की परिभाषा व्यापक हैं इसके अन्तर्गत मनोशारीरिक विशेषताएँ एवं अर्जित गुण आदि सभी सम्मिलित किये जाते हैं।

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