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निर्देशीय परामर्श और अनिर्देशीय परामर्श

निर्देशीय परामर्श और अनिर्देशीय परामर्श

निर्देशीय परामर्श (Directive Counselling)

निर्देशीय परामर्श (Directive Counselling)- पूर्णतयः परामर्शदाता को महत्व देने वाली प्रक्रिया को निर्देशीय परामर्श कहते हैं। इस प्रकार का परामर्श, परामर्शदाता केन्द्रित होता है अर्थात् इस प्रक्रिया में परामर्शदाता को अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है तथा परामर्शदाता अपना ध्यान समस्या पर अधिक रखता है, व्यक्ति पर नहीं। इस प्रक्रिया में पूर्व निर्धारित योजना के आधार पर समस्या की व्याख्या विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर की जाती है तथा ऐसा करने में परामर्शदाता परामर्शप्रार्थी की सहायता एवं सहयोग प्राप्त करता है। निर्देशीय परामर्श साक्षात्कार एवं प्रश्नावली पद्धति से दिया जाता है।

विली तथा एण्डू (Willy and Andrew) ने अपनी पुस्तक “Modern Methods and Techniques in Guidance” में निर्देशीय परामर्श की निम्नलिखित धाराएँ मानी हैं-

  1. परामर्शदाता अधिक योग्य, प्रशिक्षित, अनुभवी एवं ज्ञानी होता है। फलतः समस्या-समाधान के सम्बन्ध में अच्छी राय दे सकता है।
  2. परामर्श एक बौद्धिक प्रक्रिया है।
  3. पक्षपात एवं सूचनाओं के अभाव में परामर्शप्रार्थी समस्या का समाधान नहीं कर पाता है।
  4. परामर्श के उद्देश्य समस्या समाधान अवस्था माध्यम से निर्धारित किये जाते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि परामर्शदाता प्रमुख स्थान रखते हुए परामर्श प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, तथा परामर्श देने में वे अनेक कदम (Steps) उठाते हैं। विलियमसन तथा डार्ले ने अपनी पुस्तक “Student Personnel Work” में निम्नांकित सोपानों का स्पष्ट उल्लेख किया है-

  1. विभित्र विधियों तथा उपकरणों के माध्यम से आँकडे संग्रहीत कर उनका विश्लेषण करना।
  2. आँकडों का यान्त्रिक (Mechnical) तथा आकृतिक (Graphic) संगठन करके उनका संश्लेषण (Synthesis) करना।
  3. छात्र की समस्या के कारणों को ज्ञात करके निदान ज्ञात करना।
  4. परामर्श या उपचार।
  5. मूल्यांकन या अनुगमन (Follow-up)

अनिदेशात्मक परामर्श (Non-directive Counselling)

अनिर्देशीय परामर्शप्रार्थी केन्द्रित होता है। अनिर्देशीय परामर्श का जन्मदाता रोजर्स (Ragers) थे। रोजर्स के मतानुसार, निर्देशीय परामर्श अमनोवैज्ञानिक तथा प्रभावहीन है, क्योंकि निर्देशन का केन्द्रबिन्दु व्यक्ति होता है, न कि समस्या।

अनिर्देशीय परामर्श में परामर्शदाता की क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण नहीं होती हैं। ध्यान प्रार्थी (Client) की क्रियाओं पर दिया जाता है। अनिर्देशीय परामर्श में रोग का निदान आवश्यक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रार्थी से सम्बन्धित पिछले आँकडे एकत्रित नहीं किये जाते हैं और न किसी प्रकार का परीक्षण (Testing) ही होता है। रोजर्स के मतानुसार अनिर्देशीय परामर्श की तीन विशेषताएँ हैं :

  1. परामर्शप्रार्थी केन्द्रित सम्बन्ध (The Client-centered Relation)- अनिर्देशीय परामर्श में महत्व व्यक्ति को दिया जाता है, न कि समस्या को, तथा प्रार्थी की कुछ समस्याएं होती हैं जिनका वह समाधान कराना चाहता है। अनिर्देशीय परामर्शदाता ऐसा वातावरण पैदा कर देता है कि प्रार्थी उसी वातावरण में अपनी समस्या का समाधान स्वयं तलाश कर लेता है. और अपने आपको दूसरों पर निर्भर नहीं समझता। उसमें हीन भावना पैदा नहीं होती है, क्योंकि उसे इस बात का बोध नहीं होता है कि कोई अन्य व्यक्ति उसके लिए कुछ विचार या उसकी कुछ सहायता कर रहा है।
  2. भावना एवं आवेग पर बल (Emphasis on Feeling Emotion)- अनिर्देशीय परामर्श का सम्बन्ध आवेगों से होता है तथा प्रतिचार (Responses) प्रायः प्रार्थी की भावनाओं को प्रदर्शित कर देते हैं। अत: महत्व आवेगात्मक प्रक्रिया पर दिया जाता है, न कि बौद्धिक प्रक्रिया को वास्तविकता का बोध कराया जाता है। उसे अपनी भावनाओं को स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। इससे उसकी भावनाओं तथा अभिरुचि का सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार समस्या का समाधान सरल, सुगम तथा सही होता है।
  3. उचित वातावरण (The Permissive Atmosphere)- एक अनिर्देशीय परामर्शदाता राय देने वाला, नीतिशास्त्री या कोई निर्णायक नहीं होता है। उसका काम तो उचित वातावरण का निर्माण करना होता है। प्रार्थी को अधिक से अधिक तथा कम से कम, जैसा वह चाहे. बोलने का अवसर प्रदान किया जाता है। प्रार्थी अपनी भावनाओं को चाहे जिस प्रकार व्यक्त कर सकता है तथा परामर्शदाता तटस्थतापूर्वक सुनता है। वह एक ऐसा वातावरण पैदा कर देता है कि प्रार्थी अपने निर्णय स्वयं ले सकता है, निर्णय लेने का काम या दायित्व वह परामर्शदाता पर नहीं डालता। इस प्रकार परामर्शप्रार्थी अपने आपको अच्छी प्रकार समझ सकने के योग्य हो जाता है।

विलियम स्निडर (William Snyder) ने ‘Journal of General Psychology, 33’ में “An Investigation of the nature of Non-directive Psychotherapy”. नामक लेख प्रकाशित कराया। इस लेख में उन्होंने अनिर्देशीय परामर्श का अग्रलिखित धाराओं का उल्लेख किया-

  • परामर्श-प्रार्थी अपने जीवन-उद्देश्य निर्धारित करने में स्वतन्त्र है, चाहे परामर्शदाता की कुछ भी राय हो।
  • प्रार्थी अधिकतम सन्तोष प्राप्ति हेतु उद्देश्य-चयन स्वयं करता है।
  • अल्प समय में परामर्श प्रक्रिया के माध्यम से वह स्वतन्त्र रूप से निर्णय ले सकने के योग्य हो जाता है।
  • उचित समायोजन में संवेगात्मक संघर्ष सबसे बडी बाधा है। कार्ल रोजर्स के अनुसार अनिर्देशीय परामर्श प्रक्रिया में निम्नांकित कदम निहित हैं।

कार्ल रोजर्स के अनुसार, अनिर्देशीय परामर्श प्रक्रिया में निम्नांकित कदम (Steps) निहित हैं-

  1. परामर्शदाता सहायक अवस्थाओं को परिभाषित करता है।
  2. परामर्शदाता प्रार्थी को स्वतन्त्रापूर्वक भाव व्यक्त करने के लिए उचित वातावरण में बिठाता है।
  3. परामर्शदाता नकारात्मक एवं स्वीकारात्मक भावों को पुनः संगठित तथा स्पष्ट करता है।
  4. प्रार्थी में जैसे-जैसे आत्मानुभूति आती जाती है, वैसे ही परामर्शदाता प्रार्थी की भावनाओं को और अधिक स्पष्ट करता है।
  5. अन्त में प्रार्थी या परामर्शदाता परामर्श-परिस्थितियों का परित्याग करता है।

समन्वित परामर्श (Elective Counselling)

इस प्रकार का परामर्श न तो पूर्णतया निर्देशीय है और न अनिर्देशीय, वरन् यह मध्यवर्गीय है। यह दोनों प्रकार के परामर्श के मिश्रित सिद्धान्तों पर आधारित है। इस प्रकार का परामर्शप्रार्थी की आवश्यकताओं तथा अपनी परिस्थितियों दोनों का ही अध्ययन करता है। यह दोनों की कुछ-कुछ बातें अपनाकर चलता है।

निर्देशीय एवं अनिर्देशीय परामर्श में अन्तर (Difference between Directive and Non-directive Counselling)

निर्देशीय एवं अनिर्देशीय परामर्श का एक ही उद्देश्य एवं ध्येय होता है परन्तु उद्देश्य प्राप्ति के अलग-अलग साधन हैं। एक साधन को निर्देशीय कहते हैं तो दसूरे को अनिर्देशीय। इसलिए अन्तर केवल साधन के रूप में है, उद्देश्य के रूप में नहीं और साधनों के रूप में भी अन्तर केवल सुविधा-असुविधा की दृष्टि से है, अन्य किसी दृष्टि से नहीं। इस प्रकार इन दोनों में निम्नलिखित अन्तर है-

  1. अनिर्देशीय परामर्श के अनुसार मानव में विकास की अगाध शक्ति निहित होती है इसी कारण व्यक्ति अपने वातावरण में समायोजन स्थापित कर पाता है परन्तु वे निहित शक्तियाँ अज्ञात एवं प्रयोगहीन होती है। निर्देशीय परामर्श इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है। यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति अपना स्वयं का अध्ययन निष्पक्ष रूप में नहीं कर सकता अतएव पक्षपातहीन अध्ययन के लिए ही परामर्शदाता की आवश्यकता पड़ती है।
  2. अनिर्देशीय परामर्श में भावात्मक पहलू को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है जबकि निर्देशीय परामर्श में बौद्धिक पहलू को अधिक महत्व दिया जाता है। अनिर्देशीय परामर्शदाता का प्रमुख कार्य परामर्शप्रार्थी की भावात्मक अभिरुचि (Emotional attitude) का अध्ययन करना है। प्रार्थी अपने भाव, समस्या इत्यादि का वर्णन साहित्यिक भाषा में कर सकता है पर अनिर्देशीय परामर्शदाता इससे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता है। निर्देशीय परामर्शदाता के लिए समस्या समाधान दृष्टिकोण (Problem-solving attitude) अत्यन्त आवश्यक है। वह भावात्मक वातावरण से बौद्धिक वातावरण में जाने की चेष्टा करता है।
  3. समय की दृष्टि से निर्देशीय परामर्शशास्त्री कहते हैं कि यह संभव नहीं कि परामर्श को अल्प समय में प्रशिक्षित किया जा सके। अल्प समय में परामर्शदाता इतना प्रशिक्षण प्राप्त नहीं कर सकता है कि वह दूसरों को निर्देशन दे सके। परन्तु इसके विपरीत अनिर्देशन परामर्श विद्वानों के अनुसार यह संभव है। वे कहते हैं कि माना अल्प समय में कोई व्यक्ति अच्छा विश्लेषणकर्ता नहीं बन सकता है परन्तु प्रभावशील परामर्शदाता तो बन ही सकता है।
  4. निर्देशीय परामर्श परामर्शप्रार्थी की निकटस्थ एवं वर्तमान समस्याओं को ही महत्व प्रदान करता है, भूतकालीन समस्याओं से इसका कोई सम्बन्ध नहीं वह इसलिए परामर्शप्रार्थी के जीवन इतिहास का अध्ययन नहीं करता है। निर्देशीय परामर्श इसके विपरीत भूतकाल का अध्ययन अनिवार्य समझता है। इसके लिए उसके गत जीवन के इतिहास का अध्ययन साधनों के माध्यम से करना चाहिए।
  5. राय एवं सुझावों के सम्बन्ध में भी दोनों में अन्तर है। अनिर्देशीय परामर्श के मतानुसार उचित-रोग-निदान के लिए राय, सुझाव एवं अनिर्देशीय क्रियाएँ आवश्यक हैं। रोग-निदान के लिए व्यक्ति का अनुभव एवं आत्मानुभूति अत्यन्त आवश्यक है।

निर्देशीय परामर्श के अनुसार बौद्धिक चुनाव भविष्य को दृष्टि में रखकर किया जाता है तथा परामर्शदाता का यह कार्य है कि वह प्रार्थी को चुनाव-निर्माण में सहायता प्रदान करे, परन्तु चुनाव केवल प्रार्थी द्वारा ही किया जाता है।

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