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जनसंख्या, निर्धनता तथा पर्यावरण का सम्बन्ध

जनसंख्या | निर्धनता तथा पर्यावरण का सम्बन्ध

जनसंख्या, निर्धनता तथा पर्यावरण का सम्बन्ध

जनसंख्या में वृद्धि के दो प्रमुख कारण हैं जन्मदर में वृद्धि तथा मृत्युदर में लगातार कमी के कारण दोनों में अन्तर अधिक होने के कारण जनसंख्या विस्फोट की स्थिति आ जाती है। जनसंख्या के बढ़ने तथा आर्थिक विकास दर में कमी के कारण राष्ट्रीय आय जनसंख्या के अनुपात में नहीं बढ़ पाती है। इस कारण से लोगों के जीवन स्तर में कमी के कारण लोग निर्धनता या गरीबी में जीवन जीने के लिये मजबूर होते हैं।

सामान्यतया गरीबी का आशय लोगों के निम्न जीवन स्तर से लगाया जाता है। जीवन स्तर को सापेक्ष या निरपेक्ष दोनों रूपों में व्यक्त किया जाता है। जनसंख्या में होने वाली वृद्धि गरीबी की स्थिति को गम्भीर बनाने में सहायक है। जनसंख्या वृद्धि से गरीबों के उपभोग स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हो जाती है। इनकी आय का लगभग सम्पूर्ण भाग परिवार के पालन-पोषण पर व्यय हो जाता है और इस तरह बचत और निवेश के लिये इनके पास कुछ नहीं बचता है। इससे पूँजी निर्माण और आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ जाती है।

भारत में विकास के साथ गरीबी का विरोधाभास स्पष्ट दिखाई देता है। भारी निवेश और उत्पादन में वृद्धि के बावजूद विकास का लाभ एक बड़े समूह तक नहीं पहुँच पाता है। फलस्वरूप बहुसंख्यक वर्ग की न तो आय बढ़ी है न ही उपभोग का स्तर बढ़ा है। यद्यपि हमारी विकास की रणनीति अर्थव्यवस्था की क्षमता का निर्माण करने में सफल रही है। परन्तु यह तब तक और अर्थपूर्ण छोटी उपलब्धियों का एक बड़ा भाग गरीबों के पक्ष में जाता, परन्तु यह नहीं हो सका।

वर्तमान काल में पर्यावरण संकट का हास मानव की उपभोक्तावादी या भौतिकवादी संस्कृति की देन है। पश्चिम की भोगवादी संस्कृति के प्रभाव में अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिये मानव ने प्रकृति का विवेकपूर्ण ढंग से दोहन किया है। इस कारण सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव ने वनों का दोहन, प्राणी सम्पदा का विनाश, कृषि आदि के साथ पशुपालन, सिंचाई की व्यवस्था का विकास किया है। इसके साथ मानव की उपभोक्तावादी संस्कृति ने नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, खनिज सम्पदा का उपभोग एवं बड़े का निर्माण किया जिससे मानव में सम्पन्नता आयी। उसका जीवन स्तर उच्च स्तर का हुआ। देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई। इस कारण मानव ने सम्पन्नता के साथ पर्यावरण का ह्रास किया।

पर्यावरण के ह्रास की विवेचना इस प्रकार की है कि गरीबी के स्तर पर ऐसी समस्या नहीं थी। पर्यावरण में गरीब व्यक्ति अपना भोजन, आय एवं मूलभूत आवश्यकता जहाँ पर्यावरण से पूरा करता था वहीं पर्यावरण के सन्तुलन को बनाये रखने में योगदान देता था। मानव में ज्यों-ज्यों सम्पन्नता आ पर्यावरण ह्रास की समस्या या विनाश का कारण बना।

पर्यावरण ह्रास का प्रमुख कारण जनसंख्या वृद्धि के कारण खाद्यान्न की उपलब्धि के लिये सघन कृषि क्षेत्र के विस्तार से अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं। हरित क्रान्ति के अभीष्ट लक्ष्य खाद्यान्न में वृद्धि

को तो प्राप्त कर लिया किन्तु इससे पर्यावरण ह्रास हुआ। वन विनाश के कारण पर्यावरण असन्तुलन उत्पन्न हो गया। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग से मृदा प्रदूषित हो गयी। फलों व सब्जियों का स्वाभाविक स्वाद नष्ट हो गया। आदिय क्षेत्रों स्थान्तरणशील कृषि के कारण कृषि, पहाड़ी ढालों पर कृषि तथा मरुस्थल में रेत के स्थायी हिब्बों पर कृषि से मृदा अपरदन की प्रक्रिया तीव्र हुई। पर्यावरण ह्रास के लिये अत्यधिक पशु चारण भी उत्तरदायी कारण है। मानव प्रारम्भ से ही दूध, माँस, खाल, ऊन आदि पदार्थों तथा कृषि व परिवहन के लिये पशुपालन करता था। पशुपालन क्षेत्रों में निरन्तर विस्तार से अनेक वन क्षेत्र चरागाह में बदल दिये गये हैं जिससे पर्यावरण का ह्रास हुआ।

गरीबी की समाप्ति एवं लोगों में सम्पन्नता के साथ औद्योगीकरण से पर्यावरण ह्रास हुआ। औद्योगीकरण से उद्योगों के लिये कच्चे माल की आपूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का तीव्रगति से दोहन होने लगा। बढ़ते औद्योगीकरण से लोगों का जीवन स्तर तो बढ़ा किन्तु पर्यावरण की अत्यधिक हानि हुई। औद्योगीकरण से वनों का विनाश, उद्योगों से निकलने वाला हानिकारक पदार्थ के प्रदूषण से जल संकट अति नगरीकरण आदि की समस्याएँ उत्पन्न हुई। वायुमण्डल में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। इससे वायुमण्डलीय तापमान में वृद्धि हो रही है तथा अनेक जीवों के लिये संकट उत्पन्न हो रहा है। गरीबी को समाप्त करने के लिये रोजगार में वृद्धि के लिये सरकार सिंचाई, विद्युत इत्यादि विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये नदियों पर बड़े बाँध का निर्माण किया जाता है। ये आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सहायक हैं। किन्तु ये पर्यावरणीय समस्याएँ भी उत्पन्न करते हैं। बड़े बाँधों के निर्माण से उत्पन्न समस्याएँ प्रमुख रूप से विस्थापन एवं पुनर्वास, उपजाऊ कृषि भूमि, वन, चरागाहो का जलमग्न होना, वन्य जीव प्राणियों के जीवन पर संकट, भूकम्प की आशंका, स्थिर जल फैलाव से अनेक बीमारियों का फैलाव आदि प्रमुख है।

इस प्रकार जहाँ गरीबी के निवारण में पर्यावरण ने अपना सहयोग दिया वहीं मनुष्य की सम्पन्नता ने पर्यावरण के विनाश का बीज बो दिया। अतः हम कह सकते हैं कि “जनसंख्या, निर्धनता तथा पर्यावरण परस्पर निर्भर होते हैं। “

गरीबी एवं पर्यावरण

जीवित रहने के लिए प्रत्येक मनुष्य की कुछ आधारभूत आवश्यकताएँ होती हैं। आराम और विलासिता की वस्तुओं को यदि निकाल दिया जाए तो भी जीवन का एक न्यूनतम व युक्तिसंगत स्तर बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति को उचित भोजन, पर्याप्त वस्त्र तथा अच्छा मकान मिल सके और इनकी मात्रा इतनी हो कि स्वयं व्यक्ति की तथा उसके आश्रितों की इन वस्तुओं की आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। जब इन आधारभूत वस्तुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती और व्यक्ति तथा उनके आश्रितों का जीवन स्तर उस न्यूनतम स्तर से भी नीचे गिर जाता है तो उस अवस्था को गरीबी या निर्धनता कहते हैं। अन्य शब्दों में, “गरीबी वह दशा है जिससे कोई व्यक्ति, अपर्याप्त आय के कारण या विचारहीन व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा नहीं रख पाता जिससे कि उसकी शारीरिक तथा मानसिक कुशलता बनी रह सके और न ही वह व्यक्ति तथा उसके आश्रित उस समाज द्वारा, जिसका कि वह सदस्य है, निर्धारित मानों के अनुरूप उपयोगी ढंग से कार्य कर पाते हैं।”

मानव जीवन का अर्थ है, असंख्य चीजों का एक घेरा। जन्म के समय वह माँ, दाई और अन्य लोगों से घिरा होता है; जीवन भर वह आकाश, धरती, वायु, जल, पेड़, पहाड़, मकान, नियम-कानून, नाते-रिश्तेदार, अन्य लोगों और बन्धु-बान्धवों से घिरा रहता है तथा मरने के बाद भी चिता या कब्र के चारों ओर उसे घेरे रहते हैं – आत्मपरिजनों के आँसू भरे कुछ चेहरे। मोटे तौर पर यही उसका पर्यावरण है। वह सब कुछ जो उसे चारों ओर से घेरे हुए है और उसके जीवन को प्रभावित करता है, उसका पर्यावरण कहलाता है।

सामान्य रूप से पर्यावरण से आशय यह है कि जो कुछ भी हमारे चारों ओर है या हम जिन चतुर्दिक दिशाओं से घिरे हैं। दूसरे शब्दों में पर्यावरण किसी एक तत्व का नाम न होकर उन समस्त दशाओं या तत्व हैं जो सजीवों के जीवन और विकास को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ यह हुआ कि जो कुछ भी हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं उसको ही पर्यावरण कहते हैं।

गरीबी (निर्धनता) पर्यावरण को प्रभावित करती है तथा जिसका प्रभाव बाद में देश के आर्थिक विकास पर बुरा पड़ता है। जिस देश में गरीबी अधिक होती हैं, वहाँ के व्यक्तियों के पास बहुत अभाव होता है जिसके कारण उनका जीवन स्तर बहुत निम्न होता है। उनके द्वारा बहुत सारे ऐसे कार्य सम्पन्न किये जाते हैं जैसे – गन्दगी में वृद्धि करना, वायु एवं जल प्रदूषक को बढ़ावा देना आदि। इन कार्यों से जहाँ एक ओर चारों ओर का वातावरण प्रदूषित होता है वहीं दूसरी ओर गरीब व्यक्तियों की स्थिति और भी बदतर होती जाती है, इसका देश के आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

पर्यावरण भी गरीब व गरीबी को प्रभावित करता है। जिन देशों का पर्यावरण उत्तम व स्वस्थ होता है वहाँ कार्य की दशाएँ भी अच्छी होती हैं जिनका उत्पादन व कार्य करने वाले व्यक्ति की स्थिति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण के स्वस्थ न होने पर कार्य करने की दशाएँ व उत्पादन में कमी आती है जिनका आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। संसार के विकासशील देशों का वातावरण बहुत ही प्रदूषित है जिसके कारण यहाँ पर अनेक प्रकार समस्याएँ विद्यमान हैं जिनमें से एक प्रमुख समस्या गरीबी है।

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