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जनसंख्या वृद्धि- आर्थिक विकास में सहायक है एवं बाधक

जनसंख्या वृद्धि- आर्थिक विकास में सहायक है एवं बाधक

जनसंख्या वृद्धि- आर्थिक विकास में सहायक

जनसंख्या आर्थिक विकास में सहायक है, इस विचार को मानने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री प्रो. हैन्सन, आर्थर लुईस, लोकिन, क्लार्क, हर्षमैन, रेबुशकीन, अल्फ्रेड बोन तथा ई. एफ. पेनरोज हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या से बाजारों का विस्तार होता है, जिससे निवेश की प्रेरणा को बल प्राप्त होता है। उत्पादन और रोजगार बढ़ने लगता है। अतः जनसंख्या वृद्धि किसी देश के आर्थिक विकास को अत्यधिक प्रभावित करती है, इस सम्बन्ध में निम्न तर्क दिये जाते हैं –

  1. उत्पादन में वृद्धि –

    जनसंख्या वृद्धि से उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होती है, बशर्ते कि जनसंख्या का आकार देश में उपलब्ध पूँजी व भूमि की तुलना में छोटा हो, अर्थात् जनसंख्या वृद्धि और उत्पादन वृद्धि में ‘धनात्मक सह-सम्बन्ध’ हो।

  2. कौशल निर्माण को बढ़ावा –

    नये ज्ञान की खोज तथा उसका विकास मानव द्वारा ही किया जाता हैं, जो स्वयं जनसंख्या का परिणाम है। इस प्रकार वृद्धिशील जनसंख्या, सृजनात्मक मस्तिष्कों का सृजन करती है जिसके परिणामस्वरूप कौशल निर्माण को बल मिलता है, नये ज्ञान के भण्डार में वृद्धि होती है और राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि होने लगती है।

साइमन कुजनेट्स के अनुसार, “आर्थिक उत्पादन की वृद्धि, परीक्षित ज्ञान के स्टॉक का फलन है।”

  1. कार्यकारी श्रम शक्ति की पूर्ति का स्रोत-

    आर्थिक विकास प्राकृतिक साधनों, श्रम शक्ति, पूँजी और तकनीकी का फलन है। इसमें श्रम शक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक माना जाता है क्योंकि विकास प्रक्रिया में वही एकमात्र प्रावैगिक साधन है। साइमन कुजनेट्स का भी कहना है कि, “अन्य बातें समान रहने पर जनसंख्या की प्रत्येक वृद्धि श्रम शक्ति को बढ़ाती है। हाँ ! इसका श्रम शक्ति के लिए निश्चित योगदान इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या जनसंख्या वृद्धि मृत्यु दर के गिरने के कारण अथवा शुद्ध देशान्तरवास के कारण या जन्म-दर में वृद्धि के कारण हुई है।”

  2. पूँजी निर्माण का स्त्रोत-

    रेगनर नर्से का कहना है कि, “अतिरिक्त श्रम शक्ति एक प्रकार की अदृश्य वचत है और अर्द्ध-बेरोजगारी के रूप में इन अदृश्य सम्भाव्य बचतों को पूँजी निर्माण के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार अतिरिक्त श्रम शक्ति, पूँजी निर्माण का एक सुलभ साधन सिद्ध होता है।”

  3. मानव पूँजी निर्माण में सहायक-

    मानव पूंजी से अभिप्राय, तकनीकी दृष्टि से एक प्रशिक्षित एवं कुशल श्रम-शक्ति से लगाया जाता है। उपलब्ध श्रम शक्ति के ज्ञान में जब वृद्धि करके और उसकी कुशलताओं तथा योग्यताओं में सुधार का प्रयास किया जाता है तो उससे मानव पूँजी का निर्माण होता है, जिसका अन्तिम प्रभाव प्रति व्यक्ति उत्पादकता को बढ़ाता है और अर्थव्यवस्था की विकास दर को ऊंचा उठाने में सहायक होता है।

  4. बाजारों का विस्तार-

    जनसंख्या आर्थिक विकास का साधन और साध्य दोनों ही है, अर्थात् लोग केवल धन के उत्पादक ही नहीं होते, बल्कि वे धन का उपयोग भी करते हैं। पूरकता के इस अर्थ में, जनसंख्या वृद्धि उपभोक्ताओं के रूप में वस्तुओं के लिए माँग पैदा करती है जिससे …> बाजारों का विस्तार होता है …> बचतों की वृद्धि होती है …> उत्पादन के ढाँचे में विविधता आती है और फलस्वरूप ..> रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि वस्तुओं की अतिरिक्त माँग का सृजन करके आर्थिक विकास को बल प्रदान करती है।

जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक

प्रो. विलार्ड, हार्वे लीबिन्स्टीन, प्रो. मायर, एच. डब्ल्यू सिंगर आदि विद्वान उपरोक्त मत के विपरीत कहते हैं कि, “जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास की दर पर ऋणात्मक प्रभाव डालती है, बचन दर को घटाती है और विनियोग की उत्पादकता को कम करती है।” निम्न कारणों से जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक बनती हैं।

  1. पूँजी निर्माण का कम होना

    जनसंख्या वृद्धि पूँजी निर्माण की दर को मन्द करती है। अल्पविकसित देशों में जनसंख्या की दोषपूर्ण आयु संरचना, पूंजी निर्माण में वृद्धि की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। प्रो. स्पैंगलर के अनुसार, औद्योगिक देशों में प्रति 3 श्रमिकों के पीछे 2 व्यक्ति आश्रित होते हैं जबकि अल्पविकसित देशों में यह अनुपात 3:4 का है। आश्रितों का यह ऊँचा अनुपात बचत क्षमता, को सर्वाधिक प्रभावित करता है और उसे घटाता है जिससे पूँजी निर्माण की गति मन्द पड़ जाती है।

  2. बेरोजगारी का बढ़ना

    जनसंख्या की तीव्र वृद्धि से श्रम-शक्ति में भी वृद्धि हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी की सम्भावना बढ़ जाती है। जनसंख्या वृद्धि का दुष्परिणाम खुली बेरोजगारी, अर्द्ध-बेरोजगारी, दुर्रोजगारी और अदृश्य बेरोजगारी के रूप में सामने आती है। यह बेरोजगारी मानव संसाधनों के अपव्यय का प्रतीक है जो विकास दर को निम्न स्तर पर बनाये रखता है।

  3. जनांकिकीय निवेश का बढ़ना और आर्थिक निवेश का घटना

    जनसंख्या वृद्धि से जनांकिकीय निवेश बढ़ता है और बचत करने की क्षमता घटती है, जिसके कारण निवेश की आवश्यकता और निवेश योग्य कोष की पूर्ति में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। जनांकिकीय निवेश या ‘आवश्यक निवेश’ से अभिप्राय उस निवेश से होता है जो बढ़ती हुई जनसंख्या को स्थिर जीवन स्तर पर बनाये रखने के लिए आवश्यक होता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण कुल निवेश का काफी बड़ा भाग जनांकिकीय निवेश के रूप में समाप्त हो जाता है और निवेश जोकि आर्थिक विकास का आधार है, के लिए कुछ भी शेष नहीं बच पाता।

  4. प्रति व्यक्ति आय पर अधोगामी प्रभाव

    तीव्रगति से बढ़ती हुई जनसंख्या का प्रति व्यक्ति आय पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि एक निश्चित स्तर तक जनसंख्या वृद्धि प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाती है, किन्तु जब जनसंख्या की वृद्धि की दर विकास दर का अतिक्रमण करना प्रारम्भ कर देती है तो प्रति व्यक्ति आय आवश्यक रूप से घटने लगती है।

  5. राष्ट्रीय उत्पाद में कमी

    देश में उपलब्ध साधनों का सर्वोत्तम उपयोग करने हेतु जनशक्ति का पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक है, परन्तु उत्पादन वृद्धि की तुलना में यदि जनसंख्या की वृद्धि अधिक तेजी के साथ हो रही है तो उत्पादन वृद्धि का प्रभाव अत्यन्त नगण्य होगा क्योंकि जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि, बढ़ते हुए उत्पादन को ढककर राष्ट्रीय उत्पादन व प्रति व्यक्ति आय में कमी करेगी।

  6. खाद्यान्न पूर्ति की समस्या

    अल्पविकसित देशों में तेजी के साथ बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण खाद्यान्नों की पूर्ति में कमी आने लगती है। यह समस्या आर्थिक विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करती है –

  1. खाद्यान्न का सम्भरण अपर्याप्त होने पर जनसंख्या का अल्प पोषण होता है जिससे उसकी कार्यकुशलता व उत्पादन क्षमता घटती है।
  2. खाद्य सामग्री की कमी से, अल्पविकसित देशों को खाद्यान्न आदि विदेशों से आयात करने पड़ते हैं जिसके कारण उनके सम्मुख विदेशी विनिमय संकट उत्पन्न हो जाता है और विदेशी भुगतान करना कठिन समस्या बन जाती है।
  3. विदेशी विनिमय का सही उपयोग न हो पाना, जनसंख्या के अत्यधिक दबाव का ही दुष्परिणाम है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक भी होती है अथवा सहायक दोनों ही है।

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