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प्रकृतिवादियों के मुख्य आर्थिक विचार

प्रकृतिवाद के आर्थिक सिद्धांत

प्रकृतिवाद के आर्थिक सिद्धांत

  1. प्राकृतिक विधान –

    प्राकृतिक विधान का सिद्धान्त प्रकृतिवादी विचारधारा का प्रमुख सिद्धान्त है। प्राकृतिक विधान सिद्धान्त में व्यवस्था प्राकृतिक नियमों के अनुसार संचालित होती है। प्रकृतिवादियों का विचार था कि सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था दो प्रकार के विधान से संचालित होती है – प्रथम प्रकृति पर आधारित तथा दूसरी मनुष्य द्वारा निर्मित नियम, प्रकृतिवादियों के विचार एवं सिद्धान्त प्राकृतिक व्यवस्था पर आधारित थे। प्रकृतिवादी विचारधारा एवं विधान में जंगलीपन या जंगल की बर्बरता का कोई लक्षण नहीं था। प्रकृतिवादियों का विचार था कि जिस प्रकार प्रकृति जड़ जगत को संचालित करती है ठीक उसी प्रकार मानव समाज भी प्राकृतिक नियमों से संचालित होता है। इस प्रकार प्राकृतिक विधान एक ईश्वरीय विधान है। इसकी क्रियाशीलता मनुष्य के हित में हैं। इस व्यवस्था के लक्षण निम्न हैं.

  • प्राकृतिक नियम ईश्वरीय देन हैं।
  • यह सार्वभौमिक एवं शाश्वत हैं।
  • यह व्यवस्था परिवर्तनीय है।
  • इस व्यवस्था में समाज को सुख एव आनन्द की अनुभूति होती है।
  1. शुद्ध उपज या शुद्ध उत्पादन सिद्धान्त-

    शुद्ध उत्पादन या शुद्ध उपज सिद्धान्त के अनुसार, धन के उत्पादन में कुछ धन व्यय होता है और जब इस व्यय को धन के उत्पादन में से घटाया जाता है तब शुद्ध उपज प्राप्त होती है। इस शुद्ध उपज को प्रकृतिवादी विचारक प्रकृति की देन मानते हैं। इनका विचार था कि कृषि से ही शुद्ध उपज प्राप्त होती है, क्योंकि कृषि से प्राप्त उत्पादन इस पर किये जाने वाले व्यय से अधिक होता है। कैने का कहना है कि कृषि ही राज्य की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर समस्त नागरिकों की सम्पत्ति का स्रोत है।

इस प्रकार प्रकृतिवादी भूमि को ही शुद्ध उत्पादन का क्षेत्र मानते थे। इनका कहना था कि कृषि के अलावा अन्य उद्योगों से शुद्ध उपज प्राप्त नहीं होती है। कृषि ही वह क्षेत्र है जिससे उद्योग एवं व्यापार के लिए आवश्यक माल की पूर्ति होती है।

  1. धन का परिभ्रमण सिद्धान्त-

    इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो. कैने ने अपनी आर्थिक सारणी में किया था। कैने ने समाज को तीन वर्गों में बाँटा है-

  • उत्पादक वर्ग जिसमें किसान, मछुआरे और खान, खोदने वाले शामिल हैं।
  • अंशतः उत्पादक वर्ग जिसमें भूस्वामी एवं अन्य प्रभुत्व प्राप्त व्यक्ति शामिल हैं।
  • अनुत्पादक वर्ग जिसमें व्यापारी, उद्योगपति, शिल्पकार, पेशेवर व्यक्ति एवं मजदूरी कमाने वाले शामिल किये गये।

प्रो. कैने ने बताया कि जिस प्रकार शरीर में रक्त का प्रवाह होता है उसी प्रकार मानव समाज में धन का प्रवाह, प्राकृतिक नियमों के अनुसार होता है। प्रकृतिवादियों ने बताया कि धन के उद्भव का स्थान प्रथम वर्ग ही है। उनका मानना था कि भूमि ही समस्त धन का प्रोत है एवं किसान आदि ही वास्तविक उत्पादक होते हैं। इसलिए उसका परिभ्रमण किसान से शुरू होकर अन्य वर्गों में होता है।

अन्य सिद्धान्त –

  1. निजी सम्पत्ति संरक्षण-

    प्रकृतिवादियों का विचार था कि भूमि भी व्यक्तिगत सम्पत्ति है। अतः प्रकृतिवादियों ने भू-स्वामियों को आवश्यक एवं महत्वपूर्ण माना है।

  2. विदेशी व्यापार

    प्रकृतिवादियों का विचार था कि विनिमय के कार्य अनुत्पादक होते हैं क्योंकि विनिमय से कोई वस्तु का उत्पादन नहीं होता है, बल्कि वस्तुओं का केवल हस्तान्तरण ही होता है। प्रकृतिवादी स्वतन्त्र व्यापार के समर्थन में थे।

  3. कर प्रणाली –

    प्रकृतिवादियों का विचार था कि कर प्रणाली में सुधार होना चाहिए। उनका प्रमुख उद्देश्य कर प्रणाली में सुधार करना था। उनका मानना था कि उत्पादन में से एक भाग कर के रूप में पाने का अधिकार है जिसका उपयोग समाज कल्याण, यातायात, सीमाओं की रक्षा, फौज तथा यातायात के साधनों का विकास आदि पर किया जाता है।

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