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प्रकृतिवाद क्या है ?

प्रकृतिवाद, प्रकृतिवादी – वणिकवादियों के विरोध का कारण

प्रकृतिवाद

18वीं शताब्दी में जो आर्थिक सिद्धान्त फ्रांस में प्रचलित थे, उन्हें प्रकृतिवाद के सामूहिक नाम से सम्बोधित किया गया है। जिन आर्थिक विचारकों ने इन विचारों के विकास में योगदान दिया था, उनको प्रकृतिवादियों के नाम से जाना जाता है। इन लेखकों में सभी प्रकार के व्यक्ति थे – चिकित्सक, साहित्यकार, दार्शनिक, प्रबन्धकर्त्ता और राजनीतिज्ञ। इन लेखकों की सबसे अनोखी बात थी कि इनके व्यवसाय अलग-अलग होते हुए भी इनके विचारों में एकरूपता थी। प्रकृतिवादियों को फ्रांसीसी क्रान्ति का अग्रगामी समझा जाता है। कुछ लेखकों ने इनको क्रान्तिकारी तथा कुछ ने इनको पूँजीवादी सुधारक के रूप में भी सम्बोधित किया है। इतिहासकारों, दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों और राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों द्वारा इनके विचारों की इतनी अधिक तथा भिन्न प्रशंसायें हुईं हैं कि शायद ही कोई एक महत्त्वपूर्ण वाक्य किसी एक लेखक ने उनके विषय में कहा हो जिसका खण्डन दूसरे लेखक ने ना किया हो। इन लेखकों की पुस्तकों के प्रकाशन और प्रमुख प्रकृतिवादियों की मृत्यु के बहुत वर्ष बाद यह समझा जा सका कि प्रकृतिवादियों का लक्ष्य कुछ विशेष राजनीतिक उद्देश्यों का संयुक्तीकरण करना था।

वणिकवादियों के विरोध का कारण

प्रकृतिवादी, वणिकवादियों के सिद्धान्तों का खण्डन कर दिये अर्थात् प्रकृतिवाद, वणिकवाद और उसके विचारों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी। फ्रांसिस कैने के नेतृत्व में प्रकृतिवादियों ने औद्योगिक युग से पहले की परिस्थितियों को पुनः स्थापित करने की भरसक चेष्टा की थी, क्योंकि उनके अनुसार कृषि ही एकमात्र उत्पादक व्यवसाय तथा सभी सम्पत्ति का एकमात्र साधन था तथा निर्माण उद्योग एवं व्यापार अनुत्पादक थे। उन्होंने घोषित किया था कि उत्पादक कृषि के स्थान पर अनुत्पादक निर्माण उद्योगों को प्रोत्साहन देकर व्यापार सन्तुलन को अधिक महत्त्व प्रदान करके, व्यापार तथा वाणिज्य पर नियन्त्रण लगाकर और अनाज के निर्यात एवं विपणन पर रोक लगाने के कारण ही फ्रांसीसी जनता को इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और सभी सामाजिक बुराइयाँ तथा विभिन्न राष्ट्रों में विनाशक युद्ध इन्हीं के परिणाम थे।

उनके अनुसार वणिकवादियों अपनी नीतियों से लाभ के स्थान पर राष्ट्रों को हानि उठानी पड़ी। उन्होंने वणिकवादी नीतियों का विरोध इसलिए किया था क्योंकि वे इन्हें आर्थिक जीवन के नैतिक आधार के विरुद्ध मानते थे अर्थात् वे विनिमय की समानता तथा उचित कीमत सम्बन्धी सिद्धान्तों के विरुद्ध थीं, जबकि व्यक्तिगत तथा राष्ट्रगत व्यापारिक सौदों को इन्हीं सिद्धान्तों द्वारा नियमित होना चाहिए। वे वणिकवाद का विरोध करके सन्तुष्ट थे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि उन्होंने एक ऐसा रहस्य मालूम कर लिया था जिससे राष्ट्रों की उन्नति हो सकेगी। उन्हें विश्वास था कि उन्होंने सभी आर्थिक तथा सामाजिक बुराइयों का हल ढूंढ़ निकाला था। उनके मतानुसार (1) कृषि को मुख्य व्यवसाय बनाकर व्यक्ति की सभी आर्थिक समस्याओं को दूर किया जा सकता था। (2) व्यापारिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करने वाले सभी सरकारी कानूनों को हटाकर प्राकृतिक न्याय एवं स्वतन्त्रता को स्थापित किया जा सकता था। अर्थात् ईश्वर द्वारा दिये गये नियमों के अनुसार प्रकृति का शासन स्थापित किया जा सकता था। उनका विचार था कि मनुष्यकृत कानून सदैव ही हानिकारक होते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस क्रान्ति की ओर एक संगठित प्रयास केवल 18वीं शताब्दी के मध्य में ही सम्भव हो सका, जबकि मुख्य प्रकृतिवादी सिद्धान्त सभी के मस्तिष्क में जम चुके थे और सभी दिशाओं में अपने प्रभाव डाल चुके थे। वणिकवाद के विरुद्ध की गयी आलोचनाएँ, जो 17वीं शताब्दी के अन्त में आरम्भ हो गयी थी, प्रकृतिवाद के लिए बड़ी प्रेरणादायक सिद्ध हुई।

इंग्लैण्ड में बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादन की व्यवस्था होने के कारण कृषि की विधियों में बार-बार परिवर्तन हो रहे थे। इन परिवर्तनों की कहानी फ्रांसीसी जनता के कानों तक भी पहुँची। फ्रांस में कैने ने अपने खेतों में इन नयी विधियों का प्रयोग किया। इसके अतिरिक्त कैण्टीलन के निबन्ध में भी फ्रांस के विचारकों को प्रभावित किया। कैण्टीलन ने भू-स्वामियों को स्वतन्त्र उत्पादक माना और घरेलू व्यापार के महत्त्व को दर्शाया। अब फ्रांस के लोगों को यह स्पष्ट गया था कि कृषि की अपेक्षा व्यापार तथा निर्माण उद्योगों को अनुचित महत्त्व दिया गया था। विचारों के इन परिवर्तनों ने वणिकवाद की जड़ें खोखली कर दी थीं और कृषि का महत्त्व बढ़ गया था।

लुई 15वें एवं लुई 16वें के शासनकाल में जो कर प्रणाली स्थापित की गयी थी, वह फ्रांस के सम्पूर्ण आर्थिक इतिहास में सबसे बुरी थी। उस समय फ्रांस में प्रत्यक्ष कर प्रणाली थी। कर प्रतिगामी थे। उस समय फ्रांस में प्रत्यक्ष कर प्रणाली थी। कर प्रतिगामी थे। धार्मिक वर्ग तथा कुलीन व्यक्तियों को अपनी कृषि भूमि पर कर नहीं देने होते थे जबकि किसानों को भारी करों का भुगतान करना पड़ता था। किसानों को अपनी भूमि की उपज का एक बड़ा भाग भू-स्वामियों को देना पड़ता था और बची हुई उपज से करों का भुगतान भी करना पड़ता था। इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ अन्य भुगतान भी करने पड़ते थे जिसके कारण वे बहुत उपज ही बाजारों तक ले जा पाते थे। दक्षिणी फ्रांस में कृषि भूमि और मकानों पर कर लगा हुआ था जबकि देश के अन्य भागों में व्यक्तियों को केवल धन पर ही कर थे। इन करों की मात्रा मनमानी ढंग से निर्धारित की जाती थी। पादरियों तथा कुलीन व्यक्तियों को कर का भुगतान नहीं करना पड़ता था। परिणामतः करों का अधिकांश भाग कृषकों तथा कारीगरों को ही सहन करना पड़ता था। नमक पर भी कर लगाया गया था। कानून के अनुसार सात वर्ष से अधिक आयु वाले प्रत्येक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से एक वर्ष में कम-से-कम सात पौण्ड निम्न गुणों वाला नमक खरीदना पड़ता था जिसका एकाधिकार राज्य के पास था। इस नमक को केवल खाने के काम में लाया जा सकता था। यदि कोई व्यक्ति इस नमक को किसी अन्य कार्य के लिए उपयोग में लाता था तो उसको भारी जुर्माना देना पड़ता था। नमक कर को ‘Gabelle‘ कहते थे। इसके अतिरिक्त वस्तुओं पर भी कर लगाया जाता था, जो वस्तुओं के निर्माण से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचने में कई स्तरों पर लगाया जाता था। इन करों को ‘Aides’ कहते थे। व्यापार शुल्क भी लागू किया जाता था जिसको ‘Traites’ कहा जाता था। इन दो करों के कारण वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो गयी थी। यहीं नहीं, किसानों को सड़कों तथा पुलों का उपयोग करने के लिए भी कुछ भुगतान करना होता था। यह तब था जबकि उन्होंने इन सड़कों को बनने में अपने श्रम का योगदान दिया था। करों को एकत्रित करने की विधि तो विशेष रूप से दोषपूर्ण थी। कर वसूल करने वाले कर्मचारियों का व्यवहार भी किसानों के प्रति बहुत सोचनीय था। कानून के अधीन किसानों को एक निश्चित मूल्य पर कर का भुगतान करना था जबकि ये कर्मचारी उससे कहीं अधिक वसूल कर लेते थे और अतिरिक्त धन को अपने जेब में रख लेते थे। इस प्रकार किसानों को जो अन्याय सहन करने पड़ रहे थे। उनसे भी प्रकृतिवादी नीतियों तथा सिद्धान्तों को प्रोत्साहन मिला तथा वणिकवादी नीतियों का व्यापार स्तर पर विरोध होने लगा।

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