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वाणिज्यवाद / वणिकवाद के पतन के प्रमुख कारण

वणिकवाद के पतन के प्रमुख कारण

वणिकवाद के पतन के प्रमुख कारण

16वीं शताब्दी के प्रारम्भ से 18वीं शताब्दी के अन्त तक की अवधि के बीच यूरोप में व्यापारवाद का बोलबाला रहा। 18वीं शताब्दी के अन्त में वणिकवाद का शक्तिशाली गढ़ टूटना प्रारम्भ हो गया था। इस विचारधारा के पतन के बाद प्रकृतिवाद (Physiocracy) तथा प्रतिष्ठित विचारधारा (Classical School) का उदय हुआ। इन दोनों विचारधाराओं के प्रणेता क्रमशः केने (Quesnay) तथा एडम स्मिथ (Adam Smith) थे। एडम स्मिथ के द्वारा वणिकवादी विचारों की कड़ी आलोचना की गयी और उनकी पुस्तक Wealth of Nations का प्रकाशन मुख्य रूप से वणिकवाद के पतन के लिए उत्तरदायी था। इसके अतिरिक्त, व्यापारवाद के पतन में जिन परिस्थितियों एवं कारणों ने योग दिया, वे निम्नलिखित हैं:

  1. कॉलबर्ट की आर्थिक नीति का असफल होना –

    फ्रांस में कॉलबर्ट की आर्थिक नीतियाँ एक के बाद एक असफल होती चली गयीं। जिस कॉलबर्ट ने कृषि की अपेक्षा उद्योग-धन्धों को महत्वपूर्ण स्थान दिया था और औद्योगिक तथा व्यापारिक नियन्त्रणों की वैसाखी के सहारे उसे जीवित रखने का प्रयत्न किया था, लोगों ने उसका घोर विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। अब लोग नियन्त्रणों की अपेक्षा स्वतन्त्र अर्थ-व्यवस्था पर अधिक विश्वास करने लगे थे। प्रतिबन्धित व्यापार की अपेक्षा निर्बाध व्यापार (laissez faire) को अधिक महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। कृषि की दशा खराब हो जाने के कारण तथा राजकीय व्यय में वृद्धि होने से राजकोष खाली लगे। राजकोष में वृद्धि करने के उद्देश्य से लोगों पर भारी मात्रा में करारोपण किया जाने लगा। इस प्रकार की व्यवस्था से लोगों का तंग होना स्वाभाविक ही था, और अब वे व्यापारवाद की खुलकर आलोचना करने लगे।

  2. कृषि एवं कृषक की दशा का असन्तोषजनक होना-

    वणिकवाद में व्यापार को प्रथम, उद्योग को द्वितीय तथा कृषि को तृतीय स्थान दिया गया था। कालान्तर तक यही व्यवस्था चलती रही। परिणामतः कृषक एवं कृषि की दशा बड़ी शोचनीय हो चुकी थी। किसानों पर कर लगाये गये थे। किसान जिस भूमि पर रात और दिन मेहनत कर रहा था, वही भूमि उसका पेट भरने में सहायक नहीं रही, क्योंकि 70 प्रतिशत भूमि पर बड़े-बड़े प्रभावशाली व्यक्तियों का अधिकार हो चुका था। शेष 30 प्रतिशत भूमि पर छोटे-छोटे किसान जीवन-यापन करने की असफल चेष्टा कर रहे थे। कर आदि देने के बाद उनके पास कुछ भी नहीं बच सकता था, क्योंकि अनाज के दाम काफी गिर चुके थे। धनी वर्ग किसान एवं श्रमिकों के बलबूते पर भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने लगा था। विशेषकर फ्रांस में तो किसानों की दशा काफी खराब हो चुकी थी। कृषि सुधारों के बारे में जमींदार व सरकार दोनों ही उदासीन थे, क्योंकि व्यापार, विशेषकर विदेशी व्यापार को सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी समझा जाने लगा था। कालान्तर में इस व्यवस्था से फ्रांस की अर्थ-व्यवस्था को भारी आघात पहुँचा। इस सन्दर्भ में हैने के विचार उल्लेखनीय हैं। उसने लिखा है कि- “फ्रांस की अर्थ व्यवस्था उस विशाल रेल-कारखाने के समान बन चुकी थी जिसकी टूट-फूट व ह्रास की क्षतिपूर्ति के लिए कोई प्रबन्ध नहीं किया गया था, फलतः उसकी उत्पादन क्षमता कुण्ठित हो चुकी थी और उसकी साख को ठेस लग चुकी थी।”

नये विचार व्यापार और उद्योग की अपेक्षा कृषि के पक्ष में अधिक थे। इन नये विचारों को कृषकों ने भरपूर समर्थन दिया। इंग्लैण्ड की कृषि-क्रांति का प्रभाव फ्रांस में भी पड़ चुका था। फ्रांस के विचारक केने निर्बाधावाद की रूपरेखा प्रस्तुत करने में एकजुट हो गये थे। उसने व्यापार की अपेक्षा कृषि को सर्वाधिक महत्व दिया। प्रकृतिवादियों ने सिद्ध कर दिया कि कृषि से ही शुद्ध उपज (Net Product) प्राप्त होती है, जबकि व्यापार एवं उद्योग बाँझ हैं। इन विचारों ने व्यापारवाद की जड़ें हिला कर रख दीं।

  1. अनुभव ने बता दिया था कि सोना-चाँदी पेट की भूख शान्त नहीं कर सकते –

    वणिकवाद की आलोचना करते समय हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि व्यापारवादी विचारकों ने सोने-चांदी के संग्रह को सर्वाधिक महत्व दिया था। बाद में, यही बात व्यापारवाद के पतन का कारण बनी। वास्तव में, उस समय सोने-चाँदी के सिक्के चलन में थे। मुद्रा विनिमय का माध्यम बन चुकी थी। इसलिए सोने-चाँदी की उपयोगिता बढ़ गयी थी, परन्तु सोना-चाँदी प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता था। पेट के लिए सोने-चाँदी की अपेक्षा वस्तुएँ अधिक उपयोगी समझी जाने लगीं। व्यक्ति के कल्याण का महत्व बढ़ने लगा जबकि सोने-चाँदी का महत्व कम होता चला गया।

  2. नये अनुसन्धानों का प्रारम्भ –

    वणिकवाद औद्योगीकरण का प्रारम्भिक युग था। इस समय उत्पादन की प्रणाली वैज्ञानिक विधियों से संचालित नहीं थीं। ज्यों-ज्यों उत्पादन क्षेत्र में नये-नये अनुसन्धान होने लगे, त्यों-त्यों उत्पादन के क्षेत्र तथा तकनीकी में भी विस्तार होता गया। उत्पादन व व्यापारिक प्रतिबन्धों को धीरे-धीरे हटाया जाने लगा। स्वतन्त्र व्यापार को प्रगति के लिए उपयुक्त समझा जाने लगा। नियन्त्रित कम्पनियों के स्थान पर निजी कम्पनियाँ स्वेच्छा से आयात-निर्यात का कार्य करने लगी थीं। एकाधिकार के स्थान पर स्वतन्त्र प्रतियोगिता ने जन्म ले लिया। इस प्रकार जो प्रतिबन्ध व्यापारवाद को शासित कर रहे थे, जब वे ही समाप्त हो गये तो व्यापारवाद किस दमखम पर बना रहता ?

  3. एडम स्मिथ के विचारों का प्रभाव –

    व्यापारवाद पर गहरी चोट एडम स्मिथ के विचारों ने की। उसकी Wealth of Nations पुस्तक के प्रकाशन के बाद तो व्यापारवाद की रही सही साख भी समाप्त हो गयी। उसने अपने विचारों से व्यापारवाद की कमजोरियों को लोगों के सामने रख दिया। निर्बाधावादियों व एडम स्मिथ ने मिलकर अहस्तक्षेप (laissez faire) की नीति का जोर-शोर से प्रचार किया और व्यक्ति को स्वतन्त्र छोड़ देने की नीति का समर्थन किया। एडम स्मिथ के अनुसार, वणिकवादी व्यवस्था व्यावसायिक वर्ग के द्वारा जनता के साथ किया गया एक धोखा था। “व्यापारियों और निर्माताओं के द्वारा अपने हितों में वृद्धि के लिये दिये गये कुतर्कों ने मानव समाज की सामान्य बुद्धि को भ्रमित कर दिया था।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिन तत्वों के आधार पर व्यापारवाद की आलोचना की जाती है लगभग वही तत्व व्यापारवाद की जड़ें उखाड़ने में प्रभावी सिद्ध हुए। इतने पर भी हम यह कह सकते हैं कि वणिकवाद का सर्वथा नाश नहीं हुआ है। उसके मूल विचार अभी भी जीवित हैं, भले ही उसकी उग्र व दुराग्रहपूर्ण चेष्टा मर चुकी है।

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