वैध हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें

वैध हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें

बाल-विवाह (अवरोध) अधिनियम, 1978 के तहत वैध हिन्दू विवाह की पाँच आवश्यक शर्तों का प्रावधान किया गया है, जो निम्न हैं-

  • एक विवाह
  • अमूढ़ता
  • आयु
  • प्रतिषिद्ध सम्बन्धों के परे हो
  • सपिण्ड सपिण्ड न हो

धारा 5 में दी गई शर्तें विवाह की वैधता के लिये आवश्यक हैं। यदि ये शर्तें पूरी नहीं की गई हैं तो विवाह विधिमान्य नहीं समझा जायेगा। इस धारा में वर्णित शर्तें आवश्यक तथा निश्चित हैं, जिनके अभाव में विवाह की वैधता संदिग्धपूर्ण है।

  1. एक विवाह

    धारा 5(1) के अन्तर्गत यह कहा जाता है कि हिन्दू अब केवल एक ही विवाह कर सकता है। इस अधिनियम नियम के पूर्व कोई हिन्दू एक से अधिक विवाह कर सकता था, चाहे उसकी स्त्री जीवित हो अथवा नहीं। अब वैध विवाह के लिए आवश्यक है कि एक स्त्री अथवा पति के जीवित रहने पर कोई दूसरा विवाह नहीं कर सकता। यदि कोई इस प्रकार विवाह करता है तो वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 एवं 495 के अन्तर्गत दण्डनीय होगा। लीली थामस बनाम भारत संघ के बाद में पति ने अपनी प्रथम पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह सम्पन्न किया और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 एवं 495 के प्रावधानों से बचने के लिए उसने अपना धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया। प्रस्तुत वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धर्म परिवर्तन कर पक्षकार के द्वारा द्वितीय विवाह करना हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 के अन्तर्गत दण्डनीय होगा और इस हेतु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 एवं 495 तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 198 को निष्प्रभावी नहीं किया जा सकता। हिन्दू विवाह के किसी पक्षकार के धर्म परिवर्तन करने से पूर्व हिन्दू विवाह समाप्त नहीं होता बल्कि दूसरे पक्षकार को विवाह समाप्त करने का अधिकार प्रदान करता है। इस वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया जहाँ पक्षकार इस तरह का कोई कृत्य करता है वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 एवं 495 का दोषी होगा।

  2. अमूढ़ताधारा 5(2)-

    विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि विवाह के समय विवाह का कोई पक्षकार-

  • मस्तिष्क-विकृति के परिणामस्वरूप एक विधिमान्य सहमति देने के अयोग्य नहीं है, अथवा
  • यदि सहमति देने के योग्य है, किन्तु वह इस प्रकार की मानसिक विकृति अथवा इस सीमा तक की मानसिक विकृति से पीड़ित नहीं है कि विवाह तथा सन्तान उत्पत्ति के अयोग्य हो, अथवा
  • पागलपन अथवा मिरगी के दौरे से बार-बार पीड़ित रहता हो। अथवा
  • जो व्यक्ति बौद्धिक शक्ति में इतना कमजोर हो कि वह सही बात न समझ सकता हो। इस बात के उल्लंघन होने पर धारा 12 के अनुसार विवाह शून्यकरणीय हो जाता है। इस धारा में विवाह के समय का यह अर्थ होता है कि यदि पक्षकार विवाह के समय स्वस्थ मस्तिष्क था, परन्तु बाद में अस्वस्थ-मस्तिष्क का अथवा पागल हो गया है तो इस बात से विवाह की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। (धारा 17)
  1. आयुधारा 5(3)-

    इस अधिनियम के अन्तर्गत विवाह की आयु निर्धारित कर दी गयी है। वर की आयु अब बाल-विवाह अवरोध शोधन) अधनियम, 1978 के बाद 21 वर्ष तथा कन्या की आयु 18 वर्ष होनी चाहिये। 1978 के संशोधन अधिनियम के पूर्व वर की आयु 18 वर्ष तथा कन्या की आयु 15 वर्ष विहित की गई थी। इस शर्त का उल्लंघन विवाह को किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करता, किन्तु धारा 18 के अनुसार यह अपराध है। अपराधी पक्षकार को इसका दण्ड सादा कारावास 15 दिन तक का अथवा, 1,000 रू. का जुर्माना अथवा दोनों हो सकता है। धारा 12(1) के अन्तर्गत उपर्युक्त संशोधन के पूर्व यदि विवाह में संरक्षक की अनुमति बल दिखा कर, धोखे से अथवा छल से प्राप्त कर ली गयी थी तो पीड़ित पक्षकार इस प्रकार के विवाह को प्रभावशून्य घोषित करवाने के लिए याचिका प्रस्तुत कर सकता है (धारा 12(1) (सी)} ।

श्रीमती नामी बनाम नरोत्तम तथा मोहिन्दर कौर बनाम मेजर सिंह के वादों में न्यायालय ने यह निरूपित किया कि ऐसे दो व्यक्तियों के बीच का विवाह, जो निर्धारित आयु से कम है, शून्य नहीं होता। किन्तु वह व्यक्ति जो इस प्रकार विवाह अपने लिए रचता है वह धारा 18 (अ) के अनुसार दण्ड का भागी होगा।

भारत के प्राचीन विधि बेत्ताओं ने विवाह के लिए वर एवं कन्या की आयु का निर्धारण किया था, जिसके अनुसार कन्या की विवाह योग्य आयु 8 वर्ष से 12 वर्ष के अन्तर्गत होनी चाहिये तथा पुरुष की आयु 15 वर्ष के अन्तर्गत होनी चाहिये। किन्तु बाल-विवाह अवरोध अधिनियम, 1929 में संशोधन किया गया कि जिसके अनुसार 18 वर्ष से कम आयु वाला बालक तथा 15 वर्ष से कम आयु वाली कन्या के विवाह का निषेध कर दिया गया। जहाँ कन्या की आयु 18 वर्ष से कम हो, वहाँ कन्या के संरक्षक की समहति आवश्यक है। सहमति का प्रावधान अभिदेशात्मक (Mandatory) था जिसका अभाव फैक्टम बैलेट के सिद्धान्त द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता। किन्तु जहाँ पक्षकारों के विचाह सम्पन्न होने के पश्चात कुछ समय तक स्वेच्छापूर्वक पति-पत्नी ने ऐसा रहने का चयन कर लिया है, सहमति की आवश्यकता गौण मानी जाती थी।

  1. प्रतिषिद्ध सम्बन्ध के भीतर नहींधारा 5(4)-

    इस धारा द्वारा प्रतिषिद्ध सम्बन्ध के भीतर आने वाले व्यक्तियों के बीच विवाह-सम्बन्ध का निषेध किया गया है। धारा 3 में प्रतिषिद्ध सम्बन्ध में आने वालों की सूची दी गई है, जो इस प्रकार है-यदि दो व्यक्तियों में से-

  • एक दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष हो, या
  • एक-दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष या वंशज की पत्नी या पति हो, या
  • एक-दूसरे या परम्परागत अग्रपुरुष के भाई की या पिता के भाई की या पितामह या मातामही एवं पितामही के भाई की पत्नी हो।
  • भाई और बहिन या चाचा और भतीजी, चाची या भतीजा, या भाई और बहिन की या दो भाइयों या दो बहिनों की सन्तति हो।

यहाँ उल्लेखनीय है कि प्रतिषिद्ध सम्बन्ध निम्नलिखित को भी सम्मिलित करता है-

  • सहोदर, सौतेला अथवा अन्य सगा-सम्बन्धी l
  • अवैध तथा रक्त-सम्बन्धी ।
  • रक्त अथवा दत्तक से सम्बन्धित।
अपवाद-

यदि विवाह के पक्षकार ऐसी प्रथा से प्रशासित होते हैं जिसके अनुसार उपर्युक्त प्रतिषिद्ध सम्बन्धों के बीच विवाह सम्बन्ध हो सकता है, तब यह शर्त लागू नहीं होगी। किन्तु ऐसी प्रथा दोनों पक्षकारों में प्रचलित होनी चाहिये।

प्रतिषिद्ध सम्बन्ध के क्रम

धारा 3 (ज) में विवाह से सम्बन्धित प्रतिषिद्ध सम्बन्धों का विवरण दिया गया है, जिसके अनुसार कोई व्यक्ति निम्नलिखित सम्बन्धियों से विवाह नहीं कर सकता है-

  • परम्परागत अग्र स्त्री
  • भाई की स्त्री
  • माता के भाई की स्त्री
  • पितामही-माँ के भाई की स्त्री
  • भाई की बहिन
  • पिता की बहिन
  • पिता की बहिन की लड़की
  • परम्परागत उत्तरापेक्षी स्त्री
  • पिता के भाई की स्त्री
  • पितामह के भाई की स्त्री
  • बहिन
  • बहिन की लड़की
  • माता की बहिन
  • पिता के भाई की लड़की
  • माता के भाई की लड़की

इस प्रकार कोई भी लड़की निम्नलिखित सम्बन्धियों से विवाह नहीं कर सकती-

  • परम्परागत अग्र पुरुष, जैसे पिता या पितामह
  • परम्परागत अन स्वी के पति
  • परम्परागत उत्तरापेक्षी स्वी के पति, जैसे दामाद अथवा पुत्र की लड़की का पति
  • भाई
  • पिता के भाई
  • माता के भाई
  • भतीजा
  • बहिन का लड़का
  • चचेरा भाई
  • फुफेरा भाई
  • ममेरा भाई
  • मौसेरा भाई
  1. सपिण्ड सम्बन्ध के परे होंधारा 5(5)-

    धारा 5(5) में यह प्रावधान दिया गया है कि जब व्यक्ति एक-दूसरे के सपिण्ड होते हैं तो उनके बीच विवाह सम्पत्र नहीं हो सकता हैं। इस धारा के प्रतिकूल यदि कोई विवाह सम्पन्न हुआ है तो यह प्रभावशून्य समझा जायेगा। अधिनियम की धारा 18 (ब) के अन्तर्गत यह कहा गया है कि जो व्यक्ति धारा 5 के खण्ड (v) में दिये गये उपबन्ध के प्रतिकूल विवाह करेगा, उसे एक महीने का साधारण कारावास अथवा एक हजार रुपये तक का जुर्माना अथवा दोनों हो सकता है। इस प्रकार के नियन्त्रण इस अधिनियम के पूर्व भी लागू थे। यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि उपरोक्त वर्णित प्रावधान ऐसी दशा में लागू नहीं होता जहाँ विवाह के पक्षकार ऐसी प्रथा से शासित होते हों जिनके अनुसार सपिण्ड सम्बन्धियों में भी विवाह सम्भव हो। अतः इस प्रकार का विवाह विधि मान्य होगा। उदाहरणार्थ, पंजाब उच्च न्यायालय ने वैश्य अग्रवालों के मध्य सगोत्र विवाह को मान्यता प्रदान करते हुए उपर्युक्त विचार अभिव्यक्त किया था। इसी प्रकार की कुछ प्रचाएँ मद्रास प्रान्त में भी प्रचलित हैं।(भाई और बहिन की सन्तानों में विवाह मान्य समझा जाता है)

अधिनियम की धारा 3 में सपिण्ड की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

  1. किसी व्यक्ति के प्रति सपिण्ड निर्देश से इसका विस्तार माता से ऊपर वाली परम्परा में तीसरी पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत तीसरी पीढ़ी भी है) और पिता से ऊपर वाली परम्परा में पाँचवीं पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत पाँचवीं पीढ़ी भी है) होता है। प्रत्येक अवस्था में परम्परा सम्बन्धित व्यक्ति से ऊपर गिनी जायेगी जिसे कि पहली पीढ़ी गिना जाता है।
  2. यदि दो व्यक्तियों में से सपिण्ड सम्बन्ध की सीमाओं के भीतर दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष है या यदि उनका ऐसा ही परम्परागत अग्रपुरुष है जो कि एक-दूसरे के प्रति सपिण्ड सम्बन्ध की सीमाओं के भीतर है।

इस प्रकार सपिण्ड सम्बन्ध निम्नलिखित को भी सम्मिलित करता है-

  • सहोदर, सौतेला तथा सगा सम्बन्धी।
  • वैध तथा अवैध रक्त से सम्बन्धी।
  • दत्तक ग्रहण अथवा रक्त से सम्बन्धित।

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