हिन्दू विधि का स्रोत

हिन्दू विधि के स्रोत

हिन्दू विधि के स्रोत को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है-

  1. प्राचीन स्त्रोत- इसके अन्तर्गत निम्न चार स्रोत आते हैं-(अ) श्रुति, (व) स्मृति, (स) भाष्य एवं निबन्ध, (द) प्रथायें।
  2. आधुनिक स्त्रोत- इसके अन्तर्गत निम्न तीन स्रोत आते हैं-(अ) न्याय, साम्य, स‌द्विवेक, (ब) विधायन, (स) न्यायिक निर्णय।

प्राचीन स्त्रोत

  1. श्रुति

    ‘श्रुति’ शब्द ‘श्रु’ धातु से निकला है जिसका अर्थ होता है सुनना, अर्थात् जो सुना गया है। श्रुतियों के विषय में यह विश्वास प्रचलित है कि वे वाक्य ईश्वर द्वारा ऋषियों पर प्रकट किये गये थे जो श्रीमुख से निकले हुए उसी रूप में अंकित हैं। ये श्रुतियाँ सर्वोपरि समझी जाती हैं। श्रुतियों में चार वेद तथा उपनिषद् आते हैं जिनका उद्देश्य अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति कराना है, जिसके जिसके द्वारा मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ये हिन्दू विधि के अति प्राचीन मूल स्त्रोत माने जा सकते हैं। उन श्रुतियों में ऋग्वेद सर्वप्राचीन है। यजुर्वेद का महत्व संस्कारों के वर्णन तथा तत्सम्बन्धी विषयों से हैं। उसका मुख्य प्रयोजन मन्त्रों से है न कि विधि से।

वेदों के बाद विकास-क्रम में बेदांगों का स्थान आता है। ये वेदांग छः हैं-(1) कल्प, (2) व्याकरण (3) छंद (4) शिक्षा, (5) ज्योजिष, (6) निरुक्त।

  1. स्मृति

    स्मृति का शाब्दिक अर्थ होता है-जो स्मरण रखा गया हो। स्मृतियाँ मानवीय कृतियाँ मानी जाती हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि स्मृतियाँ उन्हीं ऋषियों द्वारा संकलित हो गई थीं जिन पर वेद प्रकट हुए। अतः उन्हें भी उसी प्रकार प्रामाणिक माना जाता है जिस प्रकार हम श्रुतियों को मानते हैं। यह विश्वास किया जाता है कि स्मृतियाँ ऋषियों द्वारा स्मरण रखे गये वेदों के पाठों के आशय को अन्तर्विष्ट करती हैं। स्मृतियाँ दो प्रकार की हैं-(1) गद्य में, (2) श्लोकों में (छन्दोबद्ध)।

  • धर्मसूत्रजो स्मृतियाँ गद्य में हैं, उन्हें धर्मसूत्र की संज्ञा दी जाती है तथा वे श्लोकों वाली रचना के पूर्व की है।
  • धर्मशास्त्रजोः स्मृतियाँ श्लोकों में हैं, उन्हें धर्मशास्त्र की संज्ञा दी गई है। इनके विशिष्ट रचनाकार मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, विष्णु, देवल बृहस्पति, कात्यायन तथा व्यास
  1. भाष्य तथा निबन्ध

    स्रम्रतियों पर की गई टीका को भाष्य कहते हैं। भाष्यकारों या टीकाकारों ने मुख्यतः विभिन्न विषयों से सम्बन्धित विधियों का संकलन किया, उसकी सरल एवं सहज व्याख्या की तथा उस विधि के समाज में विधि के रूप में स्थापित किया, जो प्रथाओं के अनुरूप प्रचलित तथा मान्य थीं। कुछ भाष्य राजा के कहने पर अथवा उसकी संरक्षता में लिखे गये और यही कारण है कि वे अत्यधिक लोकप्रिय बन गये। प्रिवी कौंसिल का यह कथन उपयुक्त माना जाता है कि वे भाष्य विधि का निर्वचन जैसा कि स्मृतियों में उल्लिखित था, करते हुए उसमें इस प्रकार के परिवर्तन लाये जो कि प्रचलित प्रथाओं के संदर्भ में उस विशेष क्षेत्र में आवश्यक हो गया था जहाँ उनकी रचना की गई। प्रिवी कौंसिल के अनुसार जहाँ स्मृति की विधि तथा भाष्य की विधि में विरोध हो, वहाँ भाष्य की विधि मान्य होगी। भाष्यों के अतिरिक्त निबंधों की भी रचना की गई। निबन्धों में दूसरी ओर किसी प्रकरण विशेष पर अनेक स्मृतियों के पाठों को उद्धृत करके उस सम्बन्ध में विधि को स्पष्ट किया गया है। प्रमुख भाष्य इस प्रकार है- (1) दायभाग जीमूतवाहन द्वारा, (2) विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य-स्मृति पर मिताक्षरा, (3) मित्रमिश्र द्वारा वीरमित्रोदय, (4) वाचस्पति द्वारा विवाद-चिन्तामणि, (5) चन्द्रेश्वर द्वारा विवाद-रत्नाकर, (6) रघुनन्दन द्वारा दायतत्व, (7) श्रीकृष्ण द्वारा दायक्रम-संग्रह, (8) देवल भट्ट द्वारा स्मृति-चन्द्रिका, (9) माधवाचार्य द्वारा पराशरमाधव्य, (10) नीलकण्ठ द्वारा व्यवहारमयूख।

  2. प्रथाएं

    प्रथायें वे नियम हैं जो किसी परिवार, वर्ग अथवा स्थान-विशेष में, बहुत पहले से चले आने के कारण विधि से बाध्यकारी मान्यता प्राप्त कर लेती है।

यद्यपि प्रथायें तथा रूढ़ियाँ एक-दूसरे की पर्यायवाची मानी जाती हैं, फिर भी उनमें भेद किया जाता है। प्रथायें उन नियमों का सम्बोधन करती हैं जिनका प्रमुख लक्षण प्राचीनता है तथा रूढ़ियाँ उनकी अपेक्षा कम प्राचीन होती हैं तथा कुछ ही काल पहले बनी होती हैं। हिन्दू-विधि के अन्तर्गत सामान्यतः प्रथाओं को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- (अ) स्थानीय प्रथायें (देशाचार), (ब) वर्गीय प्रथायें (लोकाचार), (स) पारिवारिक प्रथायें (कुलाचार)।

आधुनिक स्रोत

  1. न्यायिक निर्णय

    वे न्यायिक निर्णय जो हिन्दू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किये जाते हैं, विधि के स्रोत समझे जाते हैं, अब हिन्दू विधि पर सभी महत्त्वपूर्ण बातें विधि-रिपोर्ट में सुलभ हैं और इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इन न्यायिक निर्णयों ने किसी सीमा तक भाष्यों की विधि का अधिक्रमण कर दिया है। प्रिवी कौंसिल तथा उच्चतम न्यायालय के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं-भले ही यह बात सत्य है कि एक उच्च न्यायालय का निर्णय दूसरे उच्च न्यायालय के लिये बाध्यकारी नहीं है।

इस प्रकार के स्रोतों में प्रिवी कौंसिल, उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा भारत के चीफ कोर्ट के निर्णय आते हैं।

  1. विधान (अधिनियम)-

    अधिनियम आधुनिक युग की विधि की एक महत्वपूर्ण एवं नवीन स्रोत है। हिन्दू विधि भी देश में विधि निर्मित करने का अथवा परिवर्तित करने का अधिकार किसी व्यक्ति-विशेष को व्यक्तिगत रूप से नहीं प्राप्त है, ऐसा अधिकार प्रभुसत्ताधारी को ही प्राप्त है। अंग्रेजी शासन के उपरान्त भाष्यकारों का विधि के परिवर्तन, निर्माण तथा संशोधन करने का अधिकार समाप्त हो गया। अब उसमें उस प्रकार के परिवर्तन आदि करने का अधिकार विधानमण्डलों को ही प्राप्त है। इन विधानमण्डलों के द्वारा पारित अधिनियम अब विधि के प्रमुख स्त्रोत बन गये हैं।

  2. न्याय, साम्य तथा सद्विवेक

    न्याय, साम्य तथा सद्विवेक को भी हिन्दू विधि का स्रोत माना जा सकता है। वस्तुतः इसे हिन्दू विधि में आधुनिक काल में अंग्रेज न्यायविदों ने प्रारम्भ किया था। इसकी आवश्यकता इसलिए समझी गई कि कहीं-कहीं पर न्यायालय के सामने विधि के वास्तविक स्वरूप के निर्धारण में बहुत कठिनाई उपस्थित होती थी तथा इस विषय पर उनको पूर्ण निर्णय भी नहीं प्राप्त होता था, अतः साम्या एवं सद्विवेक का आश्रय लिया जाने लगा। इस प्रकार ऐसी समस्याओं के उपस्थित होने पर जिनके सम्बन्ध में पहले कोई नियम न हो, न्यायाधीश अपनी न्यायगत, साम्या तथा विवेकपूर्ण बुद्धि से निर्णय दे, यह बात न्यायालयों में मान्य समझी जाने लगी। जिस विषय के सम्बन्ध में मैं धर्मशास्त्रों में कोई व्यवस्था प्रदान नहीं की गई थी अथवा जहाँ स्मृतियों में दिये गये पाठ परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, वहाँ हिन्दू विधि के सामान्य आधार का ध्यान रखते हुए न्यायगत, साम्य तथा विवेकपूर्णता को ध्यान में रखते हुए निर्णय देने की बात कही गई है। उच्चतम न्यायालय ने गुरूनाथ बनाम कमलाबाई में यह निरूपित किया कि हिन्दू विधि में किसी नियम के अभाव में न्यायालय को एक पूर्ण अधिकार है कि वे किसी मामले का निर्णय करने में हिन्दू विधि के किसी अन्य सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करते।

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