आधुनिक हिन्दू विधि का विकास

आधुनिक हिन्दू विधि का विकास

आधुनिक हिन्दू विधि के विकास में विधायन तथा न्यायिक निर्णय का महत्वपूर्ण योगदान है। इन दोनों स्रोतों एवं समय-समय पर हिन्दू विधि में आवश्यक परिवर्तन कर उसके पुराने स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन कर नये कलेवर में संगठित कर दिया है।

विधायन (अधिनियम)

विधि के स्रोत में अधिनियमों का महत्व वर्तमान काल में बहुत अधिक बढ़ गया है। वस्तुतः विधि का यह स्रोत आधुनिक युग के नवीन स्रोतों में आता है। हिन्दू विधि के वर्तमानकालीन विकास में उनकी बहुत बड़ी देन है। अब किसी भी देश में विधि निर्मित करने का अथवा परिवर्तित करने का अधिकार किसी व्यक्ति-विशेष को व्यक्तिगत रूप से नहीं प्राप्त है, ऐसा अधिकार प्रभुसत्ताधारी को ही प्राप्त है। अंग्रेजी शासन के उपरान्त भाष्यकारों का विधि के परिवर्तन, निर्माण तथा संशोधन करने का अधिकार समाप्त हो गया। अब उसमें उस प्रकार के परिवर्तन आदि करने का अधिकार विधानमण्डलों को ही प्राप्त हैं। इन विधानमण्डलों के द्वारा पारित अधिनियम अब विधि के प्रमुख स्रोत बन गये हैं। जिन अधिनियमों ने विधि में परिवर्तन, परिवर्द्धन अथवा निरसन किया, उनमें मुख्य अधिनियम इस प्रकार हैं-

  1. कास्ट डेसेबिलिटी रिमूवल अधिनियम,1850-

    कोई भी हिन्दू जाति बहिष्कृत हो जाने पर अथवा धर्म-परिवर्तन करने पर अपने परिवार में दान ग्रहण करने के अधिकार से वंचित हो जाता है।

  2. हिन्दूविडोरिमैरिजअधिनियम, 1856-

    इस अधिनियम में हिन्दू विधवा के न पुनर्विवाह को और उस विवाह के परिणामस्वरूप उत्पन्न सन्तान को वैधता प्रदान की है।

  3. दी नेटिव कन्वर्ट्स मैरिज डिजोल्यूशन ऐक्ट, 1856।
  4. विशेषविवाहअधिनियम, 1872-

    (जैसा कि 1923 में संशोधित किया गयातथा 1954 में निरसित किया गया)।

  5. भारतीयवयस्कताअधिनियम, 1875-

    इसके अन्तर्गत भारत में वयस्कता की सीमा 18 वर्ष, विवाह, तलाक, दत्तक आदि के मामलों को छोड़कर निर्धारित की गयी।

  6. सम्पत्तिअन्तरणअधिनियम,1822-

    इस अधिनियम ने हिन्दू विधि के सम्पत्ति-हस्तान्तरण नियमों का अधिक्रमण कर दिया।

  7. गार्जियन ऐण्ड वार्ड्स अधिनियम, 1890 l
  8. हिन्दू डिस्पोजीशन ऑफ प्रापर्टी अधिनियम, 1916 l
  9. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925
  10. हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 1929
  11. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेन्ट अधिनियम, 1920
  12. पुण्यार्थ तथा धार्मिक न्यास अधिनियम, 1920
  13. हिन्दू मैरिज डिसेबिलिटी रिमूवल अधिनियम, 1928-

    इस अधिनियम के अन्तर्गत जड़ता एवं उन्मत्तता को छोड़कर अन्य सभी दाय-सम्बन्धी निर्योग्यतायें समाप्त कर दी गयीं।

  14. हिन्दू गेन्स आव लर्निंग अधिनियम, 1930-

    इस अधिनियम के अनुसार किसी संयुक्त परिवार के सदस्य को अधिगम द्वारा प्राप्त लाभ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति न होकर उसकी पृथक् सम्पत्ति माना जाने लगा, चाहे उसका अधिकार संयुक्त परिवार के व्यय पर प्राप्त किया गया हो, अथवा उसके शिक्षा प्राप्त करने के समय उसका भरण-पोषण संयुक्त परिवार द्वारा ही किया गया हो।

  15. हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी अधिनियम, 1937-

    इस अधिनियम के अन्तर्गत हिन्दू नारी को दाय प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ। अब वह पुत्र के साथ सम्पत्ति में पति के बाद हिस्सा बँटा सकती है।

  16. आर्य मैरिज वैलिडेशन अधिनियम, 1937-

    इस अधिनियम के अन्तर्गत आर्य समाजियों के बीच सम्पन्न हुए विवाह को, वह चाहे जिन जातियों के बीच हुआ हो और चाहे वे अधिनियम के पूर्व के हों अथवा बाद के, मान्य बना देता है।

  17. हिन्दू लॉ ऑफ इन्हेरिटेंस (एमेन्डमेन्ट) ऐक्ट, 1928।
  18. हिन्दू नारी का पृथक आवास तथा भरण-

    पोषण का अधिकार अधिनियम,1946-इस अधिनियम के अन्तर्गत पत्नी को कुछ परिस्थितियों में (जैसे पति के कुत्सित व्याधि से ग्रसित होने पर अथवा क्रूरता के आचरण पर, इत्यादि) पति से पृथक् रहने तथा भरण-पोषण का अधिकार प्रदान किया गया है।

  19. हिन्दू मैरिज वैलिडिटी अधिनियम, 1949-

    इस अधिनियम के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया कि हिन्दू विवाह में यदि पक्षकार दो भिन्न जाति अथवा धर्म अथवा उपजाति के हों तो उनमें सम्पन्न हुआ विवाह अमान्य माना जाय। इस अधिनियम के अन्तर्गत सिक्ख तथा जैन लोग भी सम्मिलित किये जाते हैं।

  20. विशेष विवाह अधिनियम, 1954।
  21. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955-
  22. हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956।
  23. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
  24. हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956
  25. विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976
  26. बाल-विवाह (अवरोध) अधिनियम, 1978

इन अधिनियमों के अतिरिक्त निम्नलिखित अधिनियमों का भी उल्लेख आवश्यक

  • भारतीय संविदा अधिनियम, 1872
  • भारतीय साक्ष्य विधि, 1872
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860

न्यायिक निर्णय-

वे न्यायिक निर्णय, जो हिन्दू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किये जाते हैं, विधि के स्रोत समझे जाते हैं, अब हिन्दू विधि पर सभी महत्त्वपूर्ण बातें विधि-रिपोर्ट में सुलभ हैं और इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इन न्यायिक निर्णयों ने किसी सीमा तक भाष्यों की विधि का अधिक्रमण कर दिया है। प्रिवी कौंसिल तथा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं-भले ही यह बात सत्य है कि एक उच्च न्यायालय का निर्णय दूसरे उच्च न्यायालय के लिये बाध्यकारी नहीं है।

इस प्रकार के स्रोतों में प्रिवी कौंसिल, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा भारत के चीफ कोर्ट के निर्णय आते हैं। किसी वाद-विशेष के निर्णय में न्यायालय उस वाद-विवाद पर प्राप्त सभी निर्णय का सिंहावलोकन करता है तथा उसके विषय में अपने मत का विनिश्चय करता है। कोई भी पूर्व-निर्णय विधि का साक्ष्य ही नहीं होता वरन् वह उसका स्रोत भी होता है तथा न्यायालय उस पूर्व-निर्णय से बाध्य होते हैं। ऊधव बनाम बेसकर के निर्णय में न्यायाधीश बोस ने कहा था कि हम जिन विधियों को लागू करते हैं, वे न्यायाधीशों द्वारा बनाई, हुई विधियाँ हैं। प्राचीन ऋषियों ने वर्तमान विधि के विषय में वृ कुछ भी प्रकाश न डाला था तथा जहाँ पर उन्होंने उस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाला भी था, उसमें परस्पर विरोध है। कहीं पर वे इतने रहस्यात्मक रूप में उसे प्रस्तुत करते हैं कि भाष्यकारों की भी समझ में यह बात नहीं आई कि उसका क्या अर्थ है। इन परिस्थितियों में न्यायालयों ने ही हिन्दू विधि को वर्तमान निश्चित स्वरूप प्रदान किया।

इस प्रकार हिन्दू विधि के विकास में न्यायिक निर्णयों का महत्वपूर्ण योगदान है। जहाँ तक इन निर्णयों के प्रभाव की बात है, इस विषय में विचारकों में मतभेद है। एक मत के अनुसार हिन्दू विधि की व्याख्या जिस प्रकार यूरोपीय न्यायाधीशों ने की, उससे उसमें अनेक स्थानों पर अंग्रेजी विधि का सन्निवेश हो गया। दूसरे मत के अनुसार हिन्दू विधि का विकास उपर्युक्त कारणों से अवरुद्ध हो गया और हिन्दू विधि में गतिहीनता आ गई। भले ही यह बात सच है कि प्रिवी कौंसिल के न्यायाधीश धर्मशास्त्र की भाषा से अवगत नहीं थे और न वे विधि के साथ नैतिकता तथा धर्म के मिश्रण की उचित समालोचना कर सकते थे, उनके साथ यह भी कठिनाई थी कि वे स्मृति-विधि के आज्ञापक तथा निर्देशात्मक स्वरूप को भली-भाँति नहीं पहचान सकते थे, फिर भी उनकी विधिशास्त्रीय प्रतिभा एवं क्षमता का अवमूल्यांकन नहीं किया जा सकता जिसके प्रयोग से उन्होंने विधि-सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है।

न्यायिक निर्णयों के द्वारा पूर्व हिन्दू विधि में प्रिवी कौंसिल ने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया था। उदाहरणार्थ स्त्री-धन, दत्तक ग्रहण, इच्छापत्र तथा सहदायिकी सम्पत्ति तथा उसके हस्तान्तरण (Coparcenary property and alienation) की विधियों में अनेक संशोधन किये गये। प्रिवी कौंसिल ने मिताक्षरा विधि में दी गई स्त्री-धन की व्याख्या को इतना अधिक संकुचित कर दिया था कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 में उसको पुनः सुधारने की आवश्यकता पड़ी। इसी प्रकार दत्तक ग्रहण की विधि में ‘पिछले सम्बन्ध का सिद्धान्त’ प्रिवी कौंसिल द्वारा अमरेन्द्रमान सिंह बनाम सनातन सिंह के निर्णय में निरूपित किया गया जो कि मूल हिन्दू विधि में नहीं था। इच्छा-पत्र के सम्बन्ध में, भी प्रिवी कौंसिल ने एकदम नया कानून हिन्दुओं पर आरोपित किया। उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान काल में विवाह, दत्तक ग्रहण, स्त्री- धन, आदि के सम्बन्ध में ऐसे अनेक निर्णय दिये हैं जिनसे न केवल विधि के निर्वचन का प्रश्न हल हुआ वरन् नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ। उदाहरणार्थ, प्रतिभारानी बनाम सूरज कुमार का निर्णय स्त्रीधन के सम्बन्ध में पूर्णतया नयी प्रतिपादना प्रस्तुत करती है। लता कामत बनाम विलास हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के विषय पर नया निर्वचन प्रस्तुत करती है।

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