पूर्वकालिक प्रतिफल (Past consideration)

पूर्वकालिक प्रतिफल 

पूर्वकालिक प्रतिफल (Past consideration)

आंग्ल-विधि का यह बहुत ही पुराना सिद्धान्त चला आ रहा है कि प्रतिफल संविदा का समकालीन होना चाहिए। प्रतिफल वचन का मूल्य है और इसलिए वचन के बदले में या उसे प्राप्त करने के लिए दिया जाना चाहिए। यदि कार्य वचन से पहले ही किया जा चुका है तो इसे पूर्व-कालिक प्रतिफल कहते हैं और आंग्ल-विधि के अनुसार ऐसा प्रतिफल पर्याप्त नहीं माना जाता । उदाहरण के तौर पर यदि क का बटुवा खो गया है। और ख उसे ढूंढ कर क को दे देता है और इस प्रसन्नता क कुछ पैसा ख को देने के लिए वचन करता है, तो यह वचन ऐसे कार्य के लिये दिया गया है जो वचन के पूर्व ही किया जा चुका था और इसलिए इसे वचन का मूल्य नहीं कहा जा सकता है। यह वचन भूतपूर्व सेवाओं के लिए एक प्रकार से इनाम है, संविदा नहीं। भूतपूर्व सेवायें यह बताती हैं कि वचन क्यों दिया गया था परन्तु उसके लिये विधिक प्रतिफल नहीं बन सकती। प्रतिफल तथा वचन साथ-साथ होने चाहिए। एक आधुनिक उदाहरण इन री मैक् आर्डल है, जिसमें एक भवन में किये गये सुधार के बदले में दिया गया वचन प्रवर्तित न कराया जा सका, क्योंकि मरम्मत का कार्य वचन से पहले ही पूरा हो चुका था।

यह सिद्धान्त प्रायः असुविधाजनक एवं दुःखकारक साबित होता है। यदि कोई व्यक्ति भूतपूर्व सेवाओं के बदले में कुछ पैसा देने का वचन करता है तो वह उन सेवाओं को मान्यता देना चाहता है, इसलिये उसे अपने स्वैच्छिक वचन से हटने नहीं दिया जाना चाहिए। इंग्लिश लॉ रिफार्म कमेटी ने सुझाव दिया है कि यह सिद्धान्त कि पूर्वकालिक प्रतिफल कोई प्रतिफल नहीं होता, बदल दिया जाना चाहिए।

प्रार्थना पर किया गया पूर्वकालिक कार्य प्रतिफल होता है (Past act on request)

इस सिद्धान्त का एक अपवाद लगभग उतना ही पुराना है जितना कि यह नियम । सन् 1616 ई0 में लैम्पलेह ब. बैथवेट में यह अपवाद स्थापित हुआ कि यदि पूर्वकालिक सेवा वचन-दाता की प्रार्थना पर की जाती है तो ऐसी सेवा बाद में दिये गये वचन के लिए पर्याप्त प्रतिफल होती है।

इसके अतिरिक्त दो अन्य अपवाद भी मान लिये गए हैं। किसी कालावरोधित ऋण (time-barred debt) का भुगतान करने का वचन अथवा पूर्वकालिक कार्य के आधार पर गया परक्राम्य लेख (negotiable instrument) दोनों ही वैध होते हैं।

भारतीय-विधि की स्थिति

भारत में न्यायालयों को आंग्ल-विधि के सिद्धान्त को मानना आवश्यक नहीं। पूर्वकालिक प्रतिफल दो प्रकार का हो सकता है अर्थात् प्रार्थना पर किया गया कार्य जिसके लिये उस समय कोई वचन नहीं था और स्वैच्छिक सेवा।

  1. पूर्वकालिक स्वैच्छिक सेवा (Past voluntary service) –

    पूर्वकालिक स्वैच्छिक सेवा को धारा 25 (2) द्वारा मान्यता दे दी गई है। स्वैच्छिक सेवा से तात्पर्य ऐसी सेवा है, जो बिना प्रार्थना के की गई हो और जिसके लिए बाद में वचन दिया गया हो। ऐन्सन (Anson) की पुस्तक में निम्न उदाहरण दी गयी है- “ए, बी को डूबने से बचाता है और बी उसे इनाम देने का वचन देता है।” आंग्ल-विधि के अनुसार ए इस कार्य के आधार पर बी पर वाद नहीं ला सकता क्योंकि बी का वचन कार्य के उपरान्त दिया गया था। परन्तु भारत में यह वचन परिवर्तनीय होगा क्योंकि धारा 25 (2) प्राविधानित है-

किसी ऐसे व्यक्ति को पूर्णतः प्रतिकर या भागतः देने के लिए वचन हो, जिसने वचनदाता के लिये स्वेच्छया पहले ही कोई बात कर दी हो, अथवा ऐसी कोई बात कर दी हो जिसे करने के लिए वचनदाता वैध रूप से विवश किये जाने का दायी था-

धारा के साथ निम्नलिखित दो उदाहरण दिये गये हैं-

  • ख की थैली क पड़ी पाता है और उसे उसको दे देता है। क को ख 50 रु. देने का वचन देता है। यह संविदा है।
  • ख के शिशु पुत्र का पालन क करता है। वैसा करने में हुए क के व्ययों के संदाय का ख वचन देता है। यह संविदा है।
  1. प्रार्थना पर की गई पूर्व-कालिक सेवा (Past service on request)-

    प्रार्थना पर की गई सेवाओं के बारे में ही मतभेद हो सकता है क्योंकि ऐसी सेवायें पूरे तौर पर न तो धारा 2(घ) में आती हैं और न धारा 25 (2) में। धारा 2(घ) में यह आवश्यक है कि कार्य वचन-दाता की वांछा पर किया गया हो। इसलिए वचन पहले से ही होना चाहिए और ऐसे कार्य के लिए यह धारा उपयोगी नहीं होगी जो चाहे प्रार्थना पर किया गया हो परन्तु जिसके लिए कोई वचन न दिया गया हो। इस धारा के शब्दों को प्रार्थना पर किये गये कार्यों पर भी जिनके लिए बाद में वचन दिया जाता है, प्रयोग किया जा सकता है। चाहे वचन न भी दिया गया हो, न्यायालय विवक्षित वचन की धारणा कर सकते हैं जैसा कि अपटॉन रूरल डिस्ट्रिक्ट कौंसिल ब. पावेल में किया गया था। किसी कार्य के लिए की गई प्रार्थना में कार्य का मूल्य देने का वचन किया छिपा रहता है।

बम्बई उच्च न्यायालय के सिंधा श्री गनपति सिंह ब. अब्राहम् (1896-बाम्बे) में यह निर्णीत किया है कि किसी अवयस्क के लिए उसकी प्रार्थना पर की गई सेवायें, जो उसके वयस्क हो जाने पर भी जारी रहती हैं, वह वयस्क हो जाने पर दिये गये वचन के लिए पर्याप्त प्रतिफल है।

पूर्वकालिक तथा निष्पादित (Past and executed consideration)

पूर्वकालिक प्रतिफल को निष्पादित प्रतिफल से भिन्न रखना चाहिए। पूर्वकालिक प्रतिफल में कार्य वचन के बिना और उसके पहले किया जा चुका है। परन्तु निष्पादित प्रतिफल में कार्य वचन के जवाब में किया जाता है। जब किसी खोई वस्तु को प्राप्त करने के लिए इनाम घोषित किया जाय, ऐसी प्रस्थापना का प्रतिग्रहण वस्तु खोज लेने के द्वारा होता है और यह खोज प्रतिफल भी है। ऐसे कार्य को निष्पादित प्रतिफल कहते हैं। इस तत्व को यूनियन ऑफ इण्डिया ब. चमन लाल लूना एण्ड कं. में समझौते हुए। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश एस.के. दास ने कहा- “निष्पादित प्रतिफल में वचन के बदले में कार्य किया जाता है और यही कार्य प्रतिफल होता है। जब तक कार्य हो नहीं जाता तब तक कोई संविदा भी जन्म नहीं लेती, परन्तु कार्य हो जाने पर वचन समाप्त हो जाता है और उसके बाद दिये गये कोई अन्य वचन, जिसके लिए कोई अन्य कार्य किया गया हो वह प्रतिफल-रहित (nudum pactm) होगा। निष्पादित प्रतिफल की दशा में केवल एक ओर से दायित्व बाकी रह जाता है। यह वर्तमान प्रतिफल होता है, भावी प्रतिफल की अपेक्षा में। भावी प्रतिफल की दशा में वचन के बदले वचन दिया जाता है, एक वचन के माध्यम से दूसरा वचन खरीदा जाता है। वचनों का विनिमय हो जाने पर संविदा जन्म ले लेती है। व्यापारिक संविदा में ऐसे ही संविदा प्रायः मिलते हैं।”

पूर्वकालिक प्रतिफल के अपवाद (Exception of Past Consideration)

इस सिद्धान्त का एक अपवाद लगभग उतना ही पुराना है जितना कि यह नियम। सन् 1616 ई0 में लैम्पलेह ब. बैथवेट में यह अपवाद स्थापित हुआ कि यदि पूर्वकालिक सेवा वचन-दाता की प्रार्थना पर की जाती है तो ऐसीं सेवा बाद में दिये गये वचन के लिए पर्याप्त प्रतिफल होती है। इस वाद के तथ्य इस प्रकार थे-

प्रतिवादी ने एक व्यक्ति की हत्या करने के उपरान्त वादी से प्रार्थना की कि वह उसे राजा क्षमा दिलाने का पूरा प्रत्यन करे। वादी ने अपनी ओर से भरपूर प्रयास किया और अपने व्यय पर ही इस उद्देश्य के निमित्त कई यात्राएं भी कीं। बाद में प्रतिवादी ने उसे 100 पौंड देने का वचन दिया किन्तु दिये नहीं। वादी ने वाद में मुकदमे द्वारा यह धनराशि प्राप्त की।

न्यायालय ने कहा, “अपनी इच्छा से की गई सेवा किसी वचन का प्रतिफल नहीं हो सकती किन्तु यदि सेवा वचन-दाता की प्रार्थना पर की गई हो तो इस सेवा का मूल्य चुकाने के लिए दिया गया वचन बाध्य हो जाता है, ऐसा वचन पूर्वकालिक सेवा के साथ मिलकर एक ही अभिसंधि बन जाता है।”

आजकल इस सिद्धान्त को एक दूसरे ही रूप में बताया जाता है अर्थात् जब सेवा किसी की प्रार्थना पर की जाती है तो पक्षकारों के विचार में यह बात होती है कि कभी न कभी सेवा का मूल्य चुकाया जायेगा। बाद में दिया गया वचन उसी मूल्य को केवल निर्धारित करता है।

इसके अतिरिक्त दो अन्य अपवाद भी मान लिये गए हैं। किसी कालावरोधित ऋण (time-barred debt) का भुगतान करने का वचन अथवा पूर्वकालिक कार्य के आधार पर दिया गया परक्राम्य लेख (negotiable instrument) दोनों ही वैध होते हैं।

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