प्रथाएँ एवं रूढ़ियाँ (Customs & Conventions)

प्रथाएँ (Customs)

प्रथाओं से तात्पर्य उन नियमों या आचार-विचारों से है जो किसी परिवार, वर्ग अथवा स्थान विशेष में प्रश्न काल से प्रचलन में होने के कारण बाध्यकारी हो जाते हैं। प्रिवी कोसिल की जुडीशियल कमेटी ने प्रथाओं के विषय में यह कहा था कि “प्रथाएँ किसी स्थान-विशेष, जाति अथवा परिवार-विशेष के चिरकालीन प्रयोग के कारण विधि से मान्यता प्राप्त नियम हैं। ये प्राचीन हों, निश्चित हों तथा विवेकपूर्ण हों, और यदि विधि के सामान्य नियमों के विरोध में हों तो उनका आशय बहुत ही सावधानी से निकालना चाहिये।”

प्रथाएँ एवं रूढ़ियाँ

यद्यपि प्रथाएँ तथा रूढ़ियाँ एक-दूसरे की पर्यायवाची मानी जाती हैं, फिर भी उनमें भेद किया जाता है। प्रथाएँ उन नियमों का सम्बोधन करती हैं जिनका प्रमुख लक्षण प्राचीनता है तथा रूढ़ियाँ उनकी अपेक्षा कम प्राचीन होती हैं तथा कुछ ही काल पहले बनी होती हैं।

प्रथाओं की विशेषताएं या लक्षण-

वैध प्रथाओं के निम्नलिखित लक्षण माने जाते हैं-

आई. शिरोमणि Vs. आई हेम कुमार के वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रथाओं के विषय में यह कहा कि किसी भी प्रथा को मान्यता प्रदान करने के लिए तथा न्यायालय द्वारा उसे अपनाये जाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रथा प्राचीन हो, निश्चित हो तथा युक्तियुक्त हो।

  1. प्राचीनता

    प्रथाएँ प्राचीन हों जिससे यह बात स्पष्ट हो जाय कि सामान्यु स्वीकृति द्वारा वे प्रश्नकाल तक व्यवहार में बनी रहीं और इसी कारण से किसी क्षेत्र-विशेष में शासित करने वाले नियम के रूप में प्रतिष्ठित हो गई हैं।

प्रथाओं की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिये समय की कोई सीमा तय नहीं की गई है। आंग्ल विधि में “अतिप्रश्नकालीन”, “स्मृति से परे” आदि उक्तियों से युक्त प्राचीनता का लक्षण विद्यमान होना चाहिए। हिन्दू विधि में भी इन उक्तियों से सम्बन्धित लक्षण होना चाहिये, किन्तु हिन्दू विधि में न्यायशास्त्रियों ने “अतिप्रश्नकालीन” अथवा “स्मृति से परे” आदि बोधक उक्तियों द्वारा सौ वर्ष का समय निर्धारित किया है। अतः सौ वर्ष से अधिक प्राचीन होने पर उसे स्मरणीय अथवा मानव-मस्तिष्क से परे संज्ञा देते हैं।

  1. अपरिवर्तनशीलता तथा निरन्तरता

    प्रथाओं की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि उनमें निरन्तरता हो, अर्थात् लगातार उनका पालन किया गया हो। यदि किसी भी प्रथा में निरन्तरता का लक्षण विद्यमान न रहा हो तो वह प्रथा प्राचीन नहीं मानी जा सकती। इस प्रकार निरन्तरता के अभाव में प्रथाओं को विधिक अस्तित्व भी प्रदान नहीं किया जा सकता। किसी बड़े क्षेत्र में प्रचलित किसी प्रथा का केवल दो या एक बार पालन न किया जाना उसकी निरन्तरता में त्रुटि नहीं माना जायेगा। इस सम्बन्ध में प्रिवी कौंसिल ने कहा है कि पारिवारिक रूढ़ियों के लिए यह आवश्यक है कि वे सुस्पष्ट हों, अपरिवर्तनशील तथा निरन्तरतायुक्त हों तथा उनकी निरन्तरता में त्रुटि केवल घटनावश हुई हो। यदि किसी प्रथा के विषय में साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि उसका अनेक बार पालन नहीं किया गया है तो वह प्रथा मान्य नहीं हो सकती।

  2. स्पष्ट तथा असंदिग्ध प्रमाण

    प्रथाओं को विधि होने के लिए यह आवश्यक है कि वे स्पष्ट तथा निश्चित हों। किसी प्रथा का प्रमाण इस बात से स्पष्ट होता है कि वर्ग अथवा परिवार-विशेष द्वारा उनका पालन किया जा रहा है। यदि कोई प्रथा न्यायालयों के सम्मुख बार- बार आ चुकी है और उसे हर बार मान्यता प्राप्त हो चुकी है तो उसे देश की सामान्य विधि का एक अंग माना जाएगा और उसके लिए नये सिरे से प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं हो सकती।

  3. प्रमाणभार

    किसी भी प्रथा को सिद्ध करने का दायित्व उस व्यक्ति पर होता है जो उस प्रथा के अस्तित्व में होने का दावा करता है। यह सिद्ध करने के लिए कि किसी परिवार ने अपनी प्रथाओं को, जो मूल रूप से चली आ रही थीं, त्याग दिया है और उस देश की विधि को स्वीकार कर लिया है, इस तथ्य का प्रमाण-भार उस व्यक्ति पर होता है जो यह तथ्य प्रस्तुत करता है। हिन्दू विधि का यह एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है कि प्रथाओं का स्पष्ट प्रमाण मूल विधि को अधिक्रमित कर देगा। इस प्रकार जहाँ किसी परिवार के सदस्य, जो हिन्दू विधि से प्रशासित हैं, इस प्रकार की किसी प्रथा को प्रस्तुत करते हैं जो हिन्दू विधि के विपरीत हैं तो इस अवस्था में उन सदस्यों के ऊपर उसको सिद्ध करने का भार होता है। किसी जाति या ऐसे परिवार के विषय में जो मूल रूप से हिन्दू नहीं हैं और उसने हिन्दू प्रथाओं को आंशिक रूप में ग्रहण कर लिया है तो उस अवस्था में उस परिवार या जाति के लोगों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे उन प्रथाओं के अस्तित्व को सिद्ध करें।

यह नियम कि प्रथाओं का स्पष्ट प्रमाण मूल कृति की विधि से बढ़कर है, युक्तियुक्त कारणों पर आधारित है। स्मृतियों में यह बात स्पष्ट है कि प्रथाओं को बाध्यकारी मान्यता प्रदान की जाय। विधि बाहरी संसार की उन समस्त भावनाओं एवं विचारों का दर्पण है जिनको किसी भी देश के न्यायालयों द्वारा मान्यता प्रदान कर दी जाती श्री है है उ और इसी प्रकार हिन्दू विधि भी उन प्रथाओं का तिरस्कार नहीं कर सकती जो उसके सामाजिक जीवन में मिल गयी हैं।

  1. युक्तियुक्तता

    किसी भी प्रथा के लिए यह आवश्यक है कि वह प्राचीन हो, निश्चित हो तथा युक्तियुक्त हो। यदि प्रथायें तर्क अथवा विवेक से परे हैं तो उन्हें मान्यता नहीं प्रदान की जाएगी। इसके साथ-ही-साथ यह बात भी सच है कि कोई भी प्रथा कारणों पर ही आधारित नहीं होती, यद्यपि युक्तिहीन प्रथा विधि बनाने के लिए अमान्यकार होती है।

  2. नैतिकता तथा लोकनीति के विरुद्ध होना

    किसी भी प्रथा को नैतिकता और लोकनीति के विरुद्ध नहीं होना चाहिये। प्राचीन ग्रन्थों में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई थी कि प्रथायें अच्छे आचरण वाले व्यक्तियों के द्वारा अपनाई गयी रीतियों से सम्बन्ध रखती हो तथा वे धर्मशास्त्र के विरोध में अथवा जनहित के विरोध में न हों और अनैतिक न हों। किसी भी प्रथा के लिए यह निश्चित करना कि वे अनैतिक हैं या नहीं, इस बात से स्पष्ट होगा कि वह पूरे समाज में न कि उसके किसी एक वर्ग में अनैतिक समझी जाती हैं या नहीं। इस प्रकार कोई ऐसी प्रथा जिसके अन्तर्गत देवालय की नर्तकी लड़की को दत्तक ग्रहण करने का अधिकार प्रदान किया जाता है, वह प्रथा अनैतिक प्रथा समझी जाएगी समझी जाएगी और इसीलिये अवैध होगी।

  3. विधान अथवा अधिनियमों द्वारा निषिद्ध होना

    किसी भी प्रथा के वैध होने के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी विधान अथवा अधिनियमों द्वारा निषिद्ध न हो।

  4. प्रथाएँ आपसी समझौते द्वारा निर्मित नहीं की जा सकती हैं

    कुछ व्यक्तियों के आपसी समझौते द्वारा कोई भी इस प्रकार की प्रथा निर्मित नहीं की जा सकती जो एक नियम का रूप धारण कर ले तथा अन्य लोगों के लिए बाध्यकारी हो।

वर्तमान समय में हिन्दू विधि के अन्तर्गत प्रथाओं को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन प्रथाओं की प्रामाणिकता के आधार पर सपिण्ड एवं प्रतिषिद्ध सम्बन्धों में भी विवाह की अनुमति दे दी गई है। इसी प्रकार विवाह संस्कार को प्रचलित प्रथाओं के आधार पर सम्पन्न किये जाने की व्यवस्था मान्य बताई गई है। हिन्दू-दत्तक- ग्रहण अधिनियम, 1956 के अधीन 15 वर्ष से अधिक आयु वाले बालक अथवा बालिकाओं की प्रथाओं की प्रामाणिकता के आधार पर दत्तक ग्रहण में लिया जा सकता है। इस प्रकार प्रथाओं को विधिक मान्यता प्रदान कर वर्तमान अधिनियमों ने उनकी महत्ता को कायम रखा।

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