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भारतीय धर्म एवं समाज सुधार में आचार्य दयानन्द सरस्वती का योगदान

भारतीय धर्म एवं समाज सुधार में आचार्य दयानन्द सरस्वती का योगदान

आर्य समाज

यद्यपि ब्रह्म-समाज ने हिन्दू धर्म और समाज-सुधार के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया परन्तु फिर भी ब्रह्म-समाज आन्दोलन केवल रक्षात्मक था। ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर इसने हिन्दू धर्म और समाज की कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया था। इसने वेद और उपनिषदों से प्रेरणा प्राप्त की थी परन्तु इसने उनकी श्रेष्ठता को स्थापित करने का साहस नहीं किया था, अपितु इसने ईसाई और इस्लाम धर्म को भी समान पद प्रदान किया था। लेकिन हिन्दू धर्म और उसकी आत्मा इससे सन्तुष्ट न हो सकी थी। हिन्दू धर्म और समाज को एक उग्र और साहसी समर्थक की आवश्यकता थी और इस आवश्यकता की पूर्ति स्वामी दयानन्द ने की।

दयानन्द का बचपन का नाम मूलशंकर था। गुजरात राज्य के टंकारा नामक एक छोटे से नगर में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण के घर में उनका जन्म हुआ। अल्पायु से ही मूर्ति पूजा में उनका विश्वास न रहा। 1845 ई. में वे विवाह होने से पहले ही अपना घर छोड़कर भाग गये और 1861 ई. तक वे एक ब्रह्मचारी साधु के रूप में भारत के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे। 1861 ई. में उन्होंने मथुरा के स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और वहीं पर उन्होंने वेदों का अध्ययन किया। अपने गुरु से पृथक् होकर उन्होंने हिन्दू धर्म, सभ्यता और भाषा के प्रचार का कार्य आरम्भ किया और सर्वप्रथम बम्बई में 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की। तत्पश्चात् वे भारत के विभिन्न स्थानों पर घूम-घूम कर अपने विचारों का प्रचार करते रहे और स्थान-स्थान पर आर्य-समाज की स्थापना की। आर्य-समाज ने शुरू-शुरू में केवल तीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये:

  1. आर्य-समाज केवल वेदों को ही स्वतंत्र और अन्तिम शब्द स्वीकार करेगा;
  2. समाज का प्रत्येक सदस्य अपनी आय का 1/100वाँ भाग आर्य-समाज, आर्य-विद्यालय और ‘आर्य-प्रकाश’ समाचार-पत्र को देगा;
  3. आर्य-समाज के विद्यालयों में नवयुवक और नवयुवतियों को सत्य और उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए वेदों के आधार पर ही शिक्षा दी जायेगी।

1877 ई. में तीन सिद्धान्तों के स्थान पर आर्य समाज ने निम्नलिखित 10 सिद्धान्त निश्चित किये:

  1. वेद ही सत्य-ज्ञान के स्रोत हैं, अतः वेदों का अध्ययन आवश्यक है।
  2. वेदों के आधार पर मन्त्र-पाठ और हवन करना।
  3. मूर्ति-पूजा का खण्डन।
  4. तीर्थयात्रा और अवतारवाद का विरोध।
  5. कर्म और पुनर्जन्म अथवा जीवन के आवागमन के सिद्धान्त में विश्वास।
  6. एक ईश्वर में विश्वास जो निराकार है।
  7. स्त्री-शिक्षा में विश्वास।
  8. बाल-विवाह और बहु-विवाह का विरोध।
  9. कुछ विशेष परिस्थितियों में विधवा-विवाह का समर्थन।
  10. हिन्दी और संस्कृत भाषा के प्रसाद का प्रयत्न करना।

उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर आर्य-समाज ने हिन्दू धर्म और समाज के सुधार हेतु महत्वपूर्ण कार्य किये। स्वामी दयानन्द ने आर्य-समाज के निर्माण में समानता की जिस भावना को सम्मिलित किया, वह विभिन्न समाजों के संगठन और उनके प्रचार-कार्य में अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई। आर्य-समाज की सफलता का एक अन्य मुख्य आधार आर्य-समाज की धार्मिक कट्टरता थी। हिन्दू धर्म सिद्धान्त और व्यावहारिक दृष्टि से सर्वदा उदार रहा है। ईश्वर की एकता और विचारों की विभिन्नता में स्वयं उसका विश्वास रहा है। स्वयं वेद भी अपनी श्रेष्ठता का दावा नहीं करते। इस कारण हिन्दू धर्म ने ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन आदि सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता का व्यवहार किया है। लेकिन यही हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी दुर्बलता भी रही है। जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म क्रमशः ‘कुरान’ और ‘बाइबिल’ को ही एकमात्र सत्य धार्मिक ग्रन्थ और ‘मुहम्मद’ या ‘ईसा मसीह’ को ही क्रमशः ईश्वर का एकमात्र दूत मानते हैं, तथा उसी धर्म का पालन करना सत्य मार्ग और स्वर्ग जाने का मार्ग बताते हैं, हिन्दू धर्म सभी मार्गों को उचित मानता है और सभी महान् धार्मिक व्यक्तियों को ईश्वर का दूत स्वीकार करता है। इसी कारण हिन्दू धर्म की उदारता उसकी निर्बलता का कारण बनी और इसी कारण वह कट्टर इस्लाम और भारत में ईसाई धर्म का मुकाबला करने में असमर्थ रहा। स्वामी दयानन्द ने इस दुर्बलता को समझा तथा इस्लाम और ईसाई धर्म की भाँति हिन्दू धर्म को कट्टरता प्रदान की। इसी कारण उन्होंने वेदों को सत्य-ज्ञान का एकमात्र आधार बताया। इसके कारण आर्य-समाज हिन्दू धर्म का कट्टर समर्थक बना और ‘सैनिक हिन्दुत्व’ कहलाया।

इस प्रकार समानता और धार्मिक कट्टरता की भावना को लेकर आर्य-समाज ने आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में जो कार्य किया उसकी तुलना किसी भी धार्मिक सुधार-आन्दोलन से नहीं की जा सकती। आर्य-समाज का कार्य उन्नीसवीं सदी के सामाजिक और धार्मिक आन्दोलनों की तुलना में अधिक सफल एवं स्थायी सिद्ध हुआ। आज भी भारत के गाँव-गाँव और नगर-नगर में आर्य-समाज और उसकी शिक्षा-संस्थाएँ मौजूद हैं।

धार्मिक क्षेत्र में आर्य-समाज ने मूर्ति-पूजा, कर्मकाण्ड, बलि-प्रथा, स्वर्ग और नर्क की कल्पना तथा भाग्य में विश्वास का विरोध किया। उसने वेदों की श्रेष्ठता का दावा किया और उसी आधार पर मन्त्र पाठ, हवन, यज्ञ, कर्म आदि पर बल दिया। आर्य-समाज ने हिन्दू धर्म को सरल बनाया और उसकी श्रेष्ठता में विश्वास उत्पन्न किया। वेदों की व्याख्या उसने इस प्रकार की जिससे वेद अनेक वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सिद्धान्तों के स्रोत माने जा सकते हैं। कोई भी ज्ञान ऐसा नहीं है जिसे हम वेदों से प्राप्त नहीं कर सकते, यह उसका विश्वास है। हिन्दू केवल अपने सत्य-ज्ञान को भूल गये हैं और यदि वे वेदों का अध्ययन करेंगे तो उन्हें संसार का सम्पूर्ण ज्ञान वेदों में प्राप्त हो जायेगा। इस कारण हिन्दुओं को धर्म के विषय में ही नहीं अपितु राजनीतिक, आर्थिक एवं वैज्ञानिक धारणाओं के लिए भी इस्लाम और ईसाई धर्म या सभ्यता की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। इस विश्वास तथा हिन्दू धर्म और वेदों की श्रेष्ठता के आधार पर आर्य-समाज ने हिन्दू धर्म को इस्लाम और ईसाई धर्म के आक्रमणों से बचाने में सफलता पायी। आर्य-समाज ने इस्लाम और ईसाई धर्म-प्रचारकों पर जो हिन्दू धर्म का मजाक उड़ाते थे, कठोरता से प्रहार किया। नवयुवक आर्य-समाजी विदेशियों के प्रति घृणा की भावना रखते थे, जैसा कि लिखा गया है : “नवयुवक आर्य-समाजियों ने खुली घोषणा की कि वे उस दिन प्रतीक्षा में हैं जब वे मुसलमान और अंग्रेज दोनों में फैसला करेंगे।”

सामाजिक क्षेत्र में भी आर्य-समाज का कार्य बहुत सफल रहा। उसने बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा-प्रथा, जाति-प्रथा, सती-प्रथा आदि सभी हिन्दू सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। स्त्री-शिक्षा, जाति समानता और अछूतों के उद्धार के लिए उसने निरन्तर प्रयत्न किया। अन्तर्जातीय खान-पान और विवाह तथा पारस्परिक सम्पर्क आर्य-समाज के जीवन की दिनचर्या बन गया। परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य आर्य-समाज ने शुद्धि आन्दोलन को आरम्भ करके किया। जो भी व्यक्ति ईसाई या इस्लाम धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म को स्वीकार करना चाहता था, ‘समाज’ ने उसकी शुद्धि करके उसे हिन्दू धर्म में सम्मिलित करना आरम्भ कर दिया। अपने इस कार्य का पक्षपोषण आर्य-समाज ने वेद और ऐतिहासिक परम्पराओं के आधार पर किया। ईसाई धर्म के प्रचार का प्रभाव अधिकांशतः निर्धन, अशिक्षित और भारत की पिछड़ी हुई या अस्पृश्य जातियों पर पड़ा था और ऐसे हिन्दू बहुत बड़ी संख्या में ईसाई बन गये थे। एक बार ईसाई बनने के पश्चात् वे इच्छा होते हुए भी हिन्दू धर्म में वापस नहीं जा सकते थे। इस प्रकार हिन्दु धर्म निरन्तर अपने सदस्यों को केवल उनकी नादानी, भोलेपन या निर्धनता के कारण खोता जा रहा था। आर्य-समाज ने शुद्धि आन्दोलन आरम्भ करके ऐसे व्यक्तियों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले दिये और बहुत बड़ी संख्या में ऐसे व्यक्तियों को हिन्दू बनाया।

आर्य-समाज ने सम्पूर्ण भारत में, मुख्यतः उत्तर-भारत में अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की। आर्य-समाज ने गुरुकुल, कन्या-गुरुकुल और डी.ए.वी. कालेज अनेक स्थानों पर स्थापित किये हैं। इन शिक्षा-संस्थाओं में अंग्रेजी, विज्ञान और आधुनिक समय में सभी विषयों की शिक्षा का प्रबन्ध है। परन्तु संस्कृत और वेदों की शिक्षा पर यहाँ विशेष बल दिया जाता है। ये शिक्षा-संस्थाएँ न केवल हिन्दू धर्म और संस्कृति तथा आर्य-समाज के सिद्धान्ता के प्रचार में सहायक सिद्ध हुई हैं बल्कि ज्ञान के विस्तार में भी इनका बहुत बड़ा योगदान है।

राजनीतिक जागृति में भी आर्य-समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दयानन्द सरस्वती की जीवनी के एक लेखक ने उनके बारे में लिखा है दयानन्द का लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता था। वास्तव में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया। वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय और गोपाल कृष्ण गोखले, जिन्होंने हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया, आर्य-समाज से प्रभावित थे। आर्य-समाज ने अनेक कट्टर व्यक्तियों के निर्माण में सहयोग दिया जो कट्टर हिन्दू धर्म की भावना को लेकर भारतीय राष्ट्रीयता के समर्थक बने। काँग्रेस में उग्रवाद की भावना के आरम्भ होने का एक कारण हिन्दू धर्म की भावना थी और इसमें सन्देह नहीं कि आर्या-समाज ने उस भावना के निर्माण में सहयोग दिया था। डॉ० मजूमदार ने लिखा है : आर्य-समाज प्रारम्भ से ही उग्रवादी सम्प्रदाय था। उसका मुख्य स्त्रोत तीव्र राष्ट्रीयता था। इस प्रकार आर्य-समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान और गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास और स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिली।

इस प्रकार आर्य-समाज ने भारत को धर्म, समाज, शिक्षा और राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में बहुत कुछ प्रदान किया है। इसी कारण जबकि ब्रम्ह-समाज आन्दोलन प्रार: समाप्त हो गया है, रामकृष्ण-मिशन का प्रभाव समाज के शिक्षित और उदार-वर्ग तक सीमित है, आर्य-समाज अभी तक न केवल एक जीवित आन्दोलन है अपितु हमारे समाज के छोटे और निम्न से निम्न वर्ग तक उसकी पहुँच है और एक सीमित क्षेत्र में आज भी उसे एक जन-आन्दोलन स्वीकार किया जा सकता है।

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