19वीं शताब्दी के सुधार आन्दोलन में पारसी और सिखों के धर्म सुधार

पारसी और सिखों का धर्म सुधार

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनो से पारसी समाज भी अछूता नहीं रहा । उसमें धार्मिक सुधार का आरम्भ 19वीं शताब्दी के मध्य में बंबई में हुआ। 1851 में नौरोजी फरदोनजी, दादा भाई नौरोजी, एस० एस० बंगाली आदि के सहयोग से ‘रहनुभाई भाजदयासन समाज’ की स्थापना हुई । इस समाज ने धर्मिक रूढ़िवादिता के विरूद्ध आंदोलन शुरू किया और पारसी समाज को आधुनिक बनाने का प्रयत्न किया । इस दृष्टि से महिलाओं की शिक्षा, विवाह एवं समाज में उनकी सामान्य स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए गए । यह सुधार आंदोलन प्रभावशाली रहा और कालांतर में पारसी लोगों ने पश्चिमी जीवन के तौर-तरीकों को अपनाना शुरू किया। अंततः ऐसा समय आया जब सामाजिक तौर पर वे भारतीय समाज के सबसे आधुनिक वर्ग में परिणत हो गए।

सिखों में धर्म सुधार

सिखों में धार्मिक सुधार 19वीं शताब्दी के अंत में हुआ जिसकी शुरूआत अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना के साथ हुई । लेकिन इस दिशा में वास्तविक गतिविधि तब शुरू हो पाई जब 1920 में अकाली आंदोलन का प्रारंभ हुआ । अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरूद्वारों का प्रबंध सुधारना था । गुरूद्वारों के पास जमीन और पैसे के रूप में अपार संपत्ति थी जो उन्हें सिख भक्तों से मिलती थी । भ्रष्ट एव स्वार्थी महंत इस संपत्ति का मनमाने ढ़ग से उपभोग करते थे । अकालियों के नेतृत्व में 1921 में सिख जनता ने इसका विरोध किया और महंतों और उनकी सहायता करने वाली सरकार के विरू000 एक शक्तिशाली सत्याग्रह शुरू किया। बाध्य होकर सरकार को 1922 में सिख गुरूद्वारा अधिनियम पास करना पड़ा । इस अधिनियम में 1925 में कुछ सुधार किए गए । इस अधिनियम की सहायता और कभी-कभी सीधी कार्रवाई से भी सिखों ने धीरे-धीरे गुरूद्वारों से भ्रष्ट महंतों को निकाल दिया ।

पीछ हमने जिन सुधारकों एवं सुधार आंदोलनों का अध्ययन किया है, उनके अलावा भी इस अवधि (19-20वीं शताब्दी) में कई सुधार आंदोलन और सुधारक हुए। ऐसे आंदोलनों में दक्षिण के माधव श्री वैष्णव,शैव सभा, लिंगायन, साधारण धर्म और स्मार्त तथा उत्तर-भारत के चैतन्य के अनुयायियों (बंगाल) का आंदोलन राधास्वामी सत्संग (1861में शिव दयाल साहब द्वारा आगरा में प्रारंभ), देव समाज (शिव नारायण अग्निहोत्रा द्वारा संयुक्त प्रांत में स्थापित तथा पंजाब के कूका आंदोलन आदि उल्लेखनीय है।

हमारे अध्ययन की अवधि में कई ऐसे संत-संन्यासी भी थे जिन्होने अपना कोई निश्चित संगठन या संप्रदाय नहीं बनाया, फिर भी समाज का एक बड़ा जन-समुदाय उनका अनुसरण और आदर करता रहा। ऐसे संतों में शिवनारायण परमहंस, भोलागिरि, त्रैलंग स्वामी, पहाड़ी बाबा, विजय कृष्ण गोस्वामी इत्यादि के नाम लिए जा सकते हैं। इस अवधि में तांत्रिक के भी अपने पंथ थे।

धर्म सुधार एवं राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से ऐसे संतो में अरविंद घोष (1872-1950) का नाम महत्वपूर्ण है। अरविंद एक योगी के अलावा राजनीतिज्ञ, दार्शनिक एवं कवि भी थे। उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों एवं आदर्शों को पुनः स्थापित करने और उनके प्रचार के लिए प्रयत्न किया। लेकिन उससे बढ़कर उन्होंने धर्म का तादात्म्य राष्ट्र के साथ करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद एक ‘नया धर्म’ है जिसे न तो ब्रिटिश शासक, न भारत के राजनीतिक जीवन के पहले के एकाधिकारी ही दबा सकते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक चिंतन के साथ-साथ उन्होंने तत्कालीन राजनीति पर भी अपने प्रभावशाली विचार व्यक्त किए। वे वंदेमातरम् के पहले संपादक थे। अपने अन्य लेखन के अलावा उन्होंने इस पत्रिका के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण योगदान किया।

यहाँ यह स्मरण दिलाना अनावश्यक नहीं होगा कि हिंदू, सिख तथा जैन धर्म की लोकप्रिय एवं प्रमुख शाखाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य पुराने धार्मिक पंथ अभी भी समाज के विभिन्न वर्गों पर अपना प्रभाव रखते थे। कबीर पंथ, दादूपंथ, राधाबल्लभ पंथ दंडी, दशनामी, योगी, अधोरी, अवधूत और वामाचारी ऐसे पंथों में प्रमुख थे।

लेकिन पुस्तक के स्वरूप एवं जगह की कमी के कारण इन सभी पंथों तथा ऊपर बताए गए अन्य संप्रदायों एवं आंदोलनों के बारे में विस्तार से लिखना संभव नहीं हैं। इसी वजह से हम यहाँ उस समय होने वाली ईसाई समाज की गतिविधियों की भी अलग से चर्च नहीं करेगें।

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