स्वराज्य पार्टी की नीतियां, कार्यक्रम, उद्देश्य एवं गतिविधियां
स्वराज्य दल का उद्देश्य
1923 में स्वराज्य दल का चुनाव घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ था, जिसमें इस दल का प्रथम लक्ष्य यह बतलाया गया था कि भारतीय शासन तन्त्र पर भारतीय जनता का अधिकार स्वीकार किया जाय तथा इसे कार्यरूप में परिणत किया जाय। यदि सरकार हमारे इस अधिकार को स्वीकार न करें तो हम शासन कार्य का चलाना असम्भव कर दें। दल के संस्थापक स्वयं श्री चित्तरंजनदास ने दल की स्थापना का उद्देश्य बताते हुए 1925 में बंगाल विधानसभा में कहा था - यह कहा गया कि हमारा नारा है नष्ट करो, नष्ट करो- हम नष्ट करना क्यों चाहते हैं? हम किससे मुक्त होना चाहते हैं? हम उस परिपाटी को नष्ट करना तथा उससे मुक्त होना चाहते हैं जो हमारे लिए हितकर नहीं है और न हो सकती। हम उसे नष्ट करना चाहते हैं जो सफलतापूर्वक और सार्वजनिक हित में कार्य कर सके।
इस प्रकार इन्होंने स्पष्ट किया कि स्वराज्य दल की स्थापना मुख्य उद्देश्य-
- भारत को स्वराज्य दिलाना था,
- उस परिपाटी का अन्त करना था जो ब्रिटिश सत्ता के अधीन भारत में विद्यमान थी।
स्वराज्यवादियों को असहयोग आन्दोलन की सफलता में विश्वास नहीं था और उनकी धारणा थी कि गाँधी जी द्वारा सुझाये गये रचनात्मक कार्यक्रम मात्र से स्वराज्य के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता उनका विचार था कि कौंसिलों में प्रवेश करके ही असहयोग के कार्यक्रम को पूरा किया जा सकता है। उनके अनुसार कौंलिसो के अन्दर असहयोग का अर्थ होगा कि निर्वाचनों में भाग लेकर अत्यधिक संख्या में सदस्यों का निर्वाचन करवाया जाये और सरकार की नीति का घोर विरोध कर उसके कार्यों में अड़गे लगाये जायँ, जिससे कार्य सुचारू रूप से न चल सके और जिससे सरकार अपनी नीति में परिवर्तन करने के लिए बाध्य हो जाय। इस प्रकार उनका उद्देश्य कौंसिलों में प्रवेश कर 1919 के अधिनियम को क्रियान्वित करना नहीं वरन् उसके क्रियान्वयन में बाधा पहँचाना था।
स्वराज्य पार्टी का कार्यक्रम
स्वराज्य दल का उद्देश्य कौसिल में प्रवेश कर असहयोग द्वारा सरकार के कार्यों में अडंगा डालना था, जिसमें नौकरशाही मनमानी करने में असमर्थ हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निम्न कार्यक्रम निश्चित किया गया था।
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बजट को रद्द करना-
शासन के कार्यों में बाधा डालने की दृष्टि से स्वराज दल के कार्यक्रम एक प्रमुख बात यह थी कि कौंसिलों में प्रवेश कर सरकारी आय-व्यय के वार्षिक ब्यौरे (बजट) को अस्वीकार कर दिया जाये।
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नौकरशाही को शक्तिशाली बनाने वाले प्रस्तावों का विरोध करना-
सरकार ने उन प्रस्तावों का विरोध करना और यदि सम्भव हो तो अस्वीकार करना, जिनके द्वारा नौकरशाही शक्तिशाली बनने का प्रयत्न करती है।
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राष्ट्र की शक्ति को उन्नत करना-
कौंसिलों में उन प्रस्तावों योजनाओं और विधेयकों को प्रस्तुत करना, जिनके द्वारा राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि हो तथा नौकरशाही की शक्तियों का अन्त किया जाना सम्भव हो।
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रचनात्मक कार्यों में सहयोग देना-
स्वराज्यवादियों द्वारा यह निश्चित किया गया कि वह कौंसिलों के बाहर महात्मा गाँधी के रचनात्मक कार्यों में पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे।
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समस्त प्रभावशाली स्थलों पर अधिकार-
अपने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए स्वराज्यवादियों का उद्देश्य उन पदों पर अधिकार प्राप्त करना था, जिन पर कौंसिल के सदस्य होने के नाते वे अधिकार प्राप्त करने में सफल सकते थे तथा सरकार के कार्यों में अडंगा लगा सकते थे।
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आवश्यक होने पर अपने पदों का त्याग-
स्वराज्यवादियों ने यह भी घोषणा की थी कि यदि वे यह देखेंगे कि नौकरशाही को सही रास्ते पर लाने में असमर्थ रहे हैं तथा सत्याग्रह ही एकमात्र उपाह है तो वे कौसिलों में अपने पद छोड़ देंगे तथा महत्मा गाँधी के नेतृत्व में बिना सोच-विचार के कांग्रेस के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर सत्याग्रह को सफल बनाने का प्रत्येक सम्भव प्रयत्न करेंगे।
व्यवस्थापिका सभाओं के स्वराज्य दल का कार्य
कांग्रेस का समर्थन प्राप्त कर स्वराज्य दल के नवम्बर 1923 के निर्वाचन में भाग लिया। चुनाव में सफलता प्राप्त करने के लिए स्वराज्यवादी नेताओं विशेषतया देशबन्धु चित्तरंजनदास ने बहुत अधिक परिश्रम किया और उन्हें अपने इस परिश्रम का वांछित परिणाम भी प्राप्त हुआ। उन्होंने केन्द्रीय व्यवस्थापिका के 145 स्थानों में से 45 पर अधिकार प्राप्त कर लिया और बंगाल तथा मध्य प्रान्त की व्यवस्थापिकाओं में तो पूर्ण बहुमत प्राप्त कर उन्होंने सभी को आश्चर्य से डाल दिया। चुनाव के केवल 9 माह पहले ही स्वराज्य दल की स्थापना होने के कारण उनकी यह सफलता उल्लेखनीय थी।
केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा
यद्यपि स्वराज्यदल को केन्द्रीय विधानसभा के 145 में से 45 स्थान प्राप्त थे लेकिन वह केन्द्रीय विधान सभा का सबसे बड़ा संगठित दल था। केन्द्रीय विधान सभा में स्वराज्य दल के नेता श्री मोतीलाल नेहरू थे। उन्होंने स्वतंत्र सदस्यों तथा राष्ट्रवादियों का सहयोग प्राप्त करके 70 सदस्यों का एक ऐसा कामचलाऊ संयुक्त दल बनाया जो इस बात पर सहमत था कि यदि सरकार, इन लोगों की वैधानिक प्रगति की माँग का सन्तोषजनक उत्तर न दे तो इस संयुक्त दल द्वारा अवरोध की नीति अपनाई जाय।
8 फरवरी, 1924 को मोतीलाल नेहरू ने 1919 के अधिनियम को संशोधित करने के अभिप्राय से एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जो विरोध करने पर भी स्वीकृत हो गया। प्रस्ताव इस प्रकार था।
यह परिषद् सपरिषद् गवर्नर जनरल से आग्रह करती है कि भारत में पूरे उदारवादी शासन स्थापना की माँग करने के उद्देश्य से 1919 के भारतीय शासन अधिनियम को संशोधित करने के लिए प्रारम्भिक कदम उठाये जायें और इसके लिए (क) भारत के समस्त प्रतिनिधियों की एक गोलमेज परिषद का आयोजन किया जाय, जो देश के महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक सम्प्रदायों के अधिकारों व हितों की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए भारत के नवनिर्मित व्यवस्थापिका के सम्मुख यह योजना प्रस्तुत की जाये जिसे बाद में काननू बनाने के लिए ब्रिटिश संसद को प्रेषित किया जाये।
इस प्रस्ताव के उत्तर सर मैलकम हैली ने असेम्बली को यह आश्वासन दिया कि वे शीघ्र ही द्वैध शासन व्यवस्था के दोषों और इससे सम्बन्धित कठिनाइयों की जाँच करने के उपरान्त सरकार का दृष्टिकोण व्यक्त करेंगे। उनके उत्तर से विधान सभा के सदस्यों को सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने अनुदानों की मांगों को अस्वीकार कर दिया तथा वित्त विधेयक को प्रस्तावित करने की अनुमति प्रदान नहीं की। इन्हें बाद में गवर्नर जनरल ने अपने विशेषाधिकारियों में स्वीकृत किया। 1919 के अधिनियम की क्रियान्वित की जाँच करने के लिए सरकार की ओर से भारत सरकार के गृह सदस्य सर मुडीमैन की अध्यक्षता में एक समिति का निर्माण किया गया, जो उनके नाम पर मुड़ीमैन समिति के नाम से प्रसिद्ध हुई। पं. मोतीलाल नेहरू से इसकी सदस्यता स्वीकार करने के लिए कहा गया, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। स्वराज्य दल की ओर से इसका अविष्कार किया गया। सर तेज बहादुर सत्रु, मोहम्मद अली जिन्ना और सर शिवा स्वामी अय्यर ने इसकी सदस्यता स्वीकार की।
प्रान्तों में प्रान्तीय क्षेत्र में बंगाल और मध्य प्रान्त में स्वराज्य दल को सर्वाधिक उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त हुई। बंगाल में स्वराज्यवादियों का स्पष्ट बहुमत था और वहाँ के गवर्नर ने उन्हें मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करने के लिए आमंन्त्रित किया, किन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया बंगाल विधान परिषद् में स्वराज्य दल सबल विरोध के रूप में सामने आया और इसने लगातार तीन मंत्रिमण्डलों को पराजित कर उन्हें त्याग पत्र देने के लिए बाध्य किया। देशबन्धु चित्तरंजनदास 1925 में बीमारी की अवस्था में द्वैध शासन प्रणाली का अन्त करने के लिए विधान परिषद् की कार्यवाही में भाग लेने गये और इसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने मन्त्रिमण्डल के निर्माण को असम्भव कर दिया। ऐसी स्थिति में बाध्य होकर बंगाल के गवर्नर लॉर्ड लिस्टन को विधान सभा भंग करनी पड़ी और उन्होंने घोषित किया कि बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली पूर्णतया असफल रही है।
मध्य प्रान्त में भी स्वराज्यवादियों को अपने कार्य में पर्यापत सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने भी 1919 में अधिनियम द्वारा स्थापित व्यवस्था का डटकर वैधानिक विरोध किया और वहाँ भी बंगाल के समान द्वैध शासन प्रणाली असफल रही। बंगाल तथा मध्य प्रान्त के अतिरिक्त बम्बई और संयुक्त प्रान्त में भी इस दल का यदाकदा भारी निर्णायक प्रभाव रहा।
स्वराज्य दल के मूल नीति में परिवर्तन
केन्द्रीय व्यवस्थपिका में संयुक्त दल के कारण जहाँ स्वराज्य दल को अनेक प्रस्तावों पर सरकार को हराने का अवसर मिला था, वहाँ भी उसे अपनी अवरोध की मूल नीति में समझौता भी करना पड़ा। श्री सुभाष चन्द्र बोस लिखते हैं कि - 1925 के मध्य के स्वराज्य दल की मूल अवरोध की नीति में क्रमिक परिवर्तन हो गया।
16 जून, 1925 को चित्तरंजनदास की मृत्यु के बाद पण्डित मोती लाल नेहरू ने दल का नेतृत्व संभाला तथा अब स्वराज्यवादी स्पष्ट पर से सहयोग की ओर झुकने लगे। 1922 में ही स्वराज्य दल के प्रतिनिधियों ने स्टील प्रोडक्शन कमेटी में भाग लिया था, अब दल की ओर से पण्डित मोती लाल नेहरू ने स्कीन कमीशन की सदस्यता स्वीकार कर ली, जिनका उद्देश्य भारतीय कैडेटों की किंग्स कमीशन के लिए नियुक्ति तथा प्रशिक्षण के सम्बन्ध में विचार करना था। अगस्त 1925 में दल के प्रमुख सदस्य विट्ठल भाई पटेल द्वारा व्यवस्थापिका सभा के अध्यक्ष पद के लिए अपनी स्वीकृति देना भी इस परिवर्तित नीति का ही प्रतीक था।
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