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खिलाफत आन्दोलन

खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि में महात्मा गाँधी का योगदान

सम्भवतया महात्मा गाँधी किसी भी प्रकार का अन्दोलन प्रारम्भ करने के पूर्व ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ का विश्वास प्राप्त कर लेना चाहते थे और उन्हें यह विश्वास ‘खिलाफत की समस्या’ से प्राप्त हो गया। भारतीय मुसलमानों को असहयोग आन्दोलन की ओर आकर्षित करने में खिलाफत आन्दोलन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। प्रथम महायुद्ध के समय तुर्क साम्राज्य के शासक सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ही मुसलमानों के खलीफा थे। भारत में मुसलमान भी इन्हें अपना ‘खलीफा’ अर्थात् ‘धर्मगुरू’ समझते थे और उनके प्रतिनिष्ठ रखते थे। सामान्यतया इन मुसलमानों की निष्ठा खलीफा के राज्य के प्रति थी, उस राष्ट्र के प्रति नहीं जहाँ के वे नागरिक थे।

प्रथम महायुद्ध में टर्की अंग्रेजों के विरूद्ध जर्मनी की ओर हो गया था। अतः नवम्बर 1914 में रूस, इंगलैण्ड और फ्रांस ने टर्की के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की। भारतीय मुसलमान अब अन्तर्द्वन्द्र की स्थिति में थे, क्योंकि युद्ध में एक और अंग्रेज सरकार थी, जिसके प्रति मुसलमानों की निष्ठ थी, दूसरी ओर टर्की था, जिसके प्रति उनकी गहरी धार्मिक निष्ठा थी। भारत में जब तक मुगल साम्राज्य था, तब तक तो भारत के मुसलमान भारत से बाहर किसी खलीफा या आध्यात्मिक नेता से प्रेरणा नहीं लेते थे लेकिन मुगल साम्राज्य के पतन के बाद 19वीं सदी में भारतीय मस्जिदों में टर्की के सुल्तान का नाम लिया जाने जगा था।

मौलाना अल हसन, अब्दुल बारी, हकील अजमल खाँ, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा अली बन्धु (मुहम्मद अली तथा शौकत अली) आदि प्रमुख नेता टर्की के समर्थक थे। मुहम्मद अली ने अपने पत्र ‘कामरेड’ द्वारा टर्की और इस्लामी पंरपराओं का, जिनका प्रतिनिधित्व टर्की करता था, समर्थन किया। बंगाल का विभाजन रद्द किये जाने के कारण मुसलमान ब्रिटिश सरकार से असन्तुष्ट थे। अब अंग्रेजों की मुस्लिम विरोधी नीति से जिससे टर्की के राष्ट्रीय नेताओं ने मुसलमानों को अवगत कराया था, वे चिंतित हो उठे।

महायुद्ध प्रारम्भ हो जाने पर ब्रिटिश सरकार मुसलमानों सहित सभी भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उत्सुक थीं। अतः मुसलमानों की ब्रिटेन के प्रति निष्ठा का अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें आश्वासन दिये कि टर्की की अखण्डता को बनाये रखा जायेगा तथ अरब और मैसोपोटेमिया के पवित्र इस्लामी स्थलों की सुरक्षा की जायेगी। लायड जार्ज ने कहा था – हम इसलिए नहीं लड़ रहे है कि एशिया माइनर और स के समृद्ध और प्रसिद्ध भू-भागों को, जहाँ अधिकतर तुर्क जाति के लोग निवास करते हैं, टर्की से छीन लें।

इन आश्वासनों के आधार पर भारतीय मुसलमान अंग्रेजों के पक्ष में और टर्की के विरुद्ध अर्थात् अपने ही धर्म भाइयों से लड़े थे। महायुद्ध में जर्मनी व टर्की की पराजय हुई। अब मुसलमानों को ये समाचार मिलने लगे कि टर्की को अपमानजनक शर्ते मानने के लिए बाध्य किया जाएगा। उन्हें यह भी भय था कि पवित्र इस्लामी भू-भाग भी मुसलमानों के अधिकार के बाहर चले जायेंगे।

सेवर्स की सन्धि और खिलाफत आन्दोलन

टर्की के साथ सन्धि वार्ता के फलस्वरूप 15 मई, 1920 को जो ‘सेवर्स की सन्धि’ सम्पन्न हुई, उसमें उन आश्वासनों की पूर्णतया अवहेलना कर दी गयी, जो युद्धकाल में लायड जार्ज और ब्रिटिश शासन ने भारतीय मुसलमानों को दिये थे। संधि के परिणामस्वरूप ऑटोमन साम्राज्य को छिन्न-छिन्न कर दिया गया। थ्रैंस यूनान को दिया गया; टर्की के अरब प्रान्तों सीरिया और लेबनान, जार्डन और ईराक को फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश शासनादेश के अन्तर्गत रख गया, पेलस्टाइन यहूदियों को सौंप दिया गया, जिसे उन्हें अपनी मातृभूमि बनाना था और मिस्र को टर्की से छीनकर ब्रिटेन द्वारा संरक्षित प्रदेश बना दिया गया।

‘खिलाफत-आन्दोलन’ के विचार का उदय 1919 में ही हो गया था। फिरंगी महल, लखनऊ के अब्दुल बारी ने खिलाफत आन्दोलन के लिये अनेक उलेमाओं का समर्थन प्राप्त किया और ‘अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन’ की स्थापना हुई। ‘खिलाफत का आशय था, ‘खलीफा की सत्ता की पुनस्थापना का आन्दोलन’। खिलाफत का प्रश्न इस तथ्य पर आधारित था कि टर्की के सुल्तान मुसलमानों के मान्य खलीफा या धार्मिक प्रमुख थे और इस नाते उन्हें ‘जजीरात अल अरब’ में स्थित इस्लामी महत्व के पवित्र स्थानों के सन्दर्भ में कुछ कर्तव्यों का निर्वाह करना होता था। इसके लिए आवश्यक था कि ये पवित्र स्थल उनकी देखरेख और नियन्त्रण में रहे। इसलिए खिलाफतवादियों की माँग थी।

  1. टर्की के सुल्तान और खलीफा की धार्मिक प्रतिष्ठा और लौकिक अधिकारों को बनाये रखा जाय; जिसका अर्थ था कि मुसलमान न्यायविदों द्वारा वर्णित पवित्र स्थलों के प्रति, जिनके अन्तर्गत पैलेस्टाइन, मैसोपोटेमिया और अरब क्षेत्र भी थे, खलीफा अपने कर्तव्यों का निर्बाध रूप से पालन कर सकें।
  2. मुस्लिम राष्ट्रों की प्रभुसत्ता की गारण्टी दी जाय। इसका आशय था, ‘अर्वर अर्धचन्द्र’ प्रदेश के अरब देशों पर ब्रिटेन और फ्रांस के शासनादेश का निषेध, ब्रिटिश संरक्षण में पेलेस्टाइन को यहूदियों का निवास स्थान न बनाना और अरब क्षेत्रों का कवायली सरकारों में विभाजन न करना।

गाँधी जी तथा खिलाफत

गाँधी जी ने प्रारम्भ से ही अपने को खिलाफत आन्दोलन के साथ रखा था। 24 नवम्बर, 1919 को उनके सभापतित्व में ही ‘अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन’ हुआ था। गाँधी जी ने खिलाफत के प्रश्न को हिन्दू-मुस्लिम एकता बढ़ाने का स्वर्णिम अवसर समझकर 23 करोड़ हिन्दुओं का आ किया था कि वे 7 करोड़ मुसलमान भाइयों की सहायता के लिए आगे आयें और सरकार को मदद देना बन्द कर दें। गाँधी जी की सम्मति से 19 जनवरी 1920 को डॉ0 अन्सारी के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल ने वायसराय लार्ड चैम्सफोर्ड से भेंट की। लेकिन वायसराय से उन्हें कोई सन्तोजनक उत्तर न मिला। महात्मा जी की सम्मति से ही एक शिष्टमण्डल मौलाना मुहम्मद अली की अध्यक्षता में इंगलैण्ड गया। यद्यपि इस शिष्टमण्डल को भारत मन्त्री लार्ड माण्टेग्यू का समर्थन प्राप्त था, किन्तु उसे अपने उद्देश्य में किसी प्रकार की सफलता प्राप्त न हुई। शिष्टमण्डल निराश होकर भारत लौट आया और मौलाना मुहम्मद अली अपने साथियों सहित कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। महात्मा गाँधी ने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया। गाँधी जी आश्वस्त थे कि मुसलमानों का पक्ष न्याय संगत है और उन्हें खिलाफत आन्दोलन के साथ जुड़ने का औचित्य स्पष्ट करते हुए कहा – ‘यह ठीक-ठीक मेरी नैतिक जिम्मेदारी की भावना से जिसने मुझे खिलाफत के प्रश्न को हाथ में लेने तथा मुसलमानों के सुख-दुःख में उनका साथ देने के लिए प्रेरित किया हैं। यह बिल्कुल सही है कि मैं हिन्दू-मुस्लिम एकता में सहायता दे रहा हूँ और उसे प्रोत्साहित कर रहा हूँ।’

इस प्रकार रौलेट एक्ट; जालियाँवाला दुर्घटना, हण्टर कमेटी की रिपोर्ट और अन्तिम रूप में खिलाफत समस्या के कारण 1915 तक के सहयोगी गाँधी 1920 में असहयोगी गाँधी बन गये।

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