“विधिक कार्यवाहियों के अवरोध के लिए किया गया करार शून्य होता है। “

विधिक कार्यवाहियों के अवरोध के लिए किया गया करार शून्य होता है। 

“विधिक कार्यवाहियों के अवरोध के लिए किया गया करार शून्य होता है। “

(Agreements in restraint of legal proceedings are void)

संविदा विधि ऐसे करारों शून्य घोषित करती है जो न्यायालय की अधिकारिता पर निर्बन्धन लगाते है सन् 1997 में भारतीय संविदा अधिनियम भी धारा 28 में संशोधन किया गया है यथा संशोधित धारा 28 के अनुसार-

विधिक कार्यवाहियों के अवरोधक करार शून्य हैं- प्रत्येक करार-

  1. जिससे उसका कोई पक्षकार किसी संविदा के अधीन या बारे में अपने अधिकार का मामूली अधिकरणों में प्रायिक विधिक कार्यवाहियों द्वारा प्रवर्तित कराने से अत्यांतिकत:अवरुद्ध किया जाता है या उसे जो उस समय को, जिसके भीतर वह अपने अधिकारों को इस प्रकार प्रवृत्त कर सकता है परिसीमित कर देता हो, उस विस्तार तक शून्य है, या
  2. जो किसी संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले किसी पक्षकार के अधिकारों या दायित्वों को एक निश्चित समय के निकल जाने के पश्चात् समाप्त करते हों या उनको लागू करवाने पर कोई बाधा डालते हों।”

इस प्रकार यह धारा दो प्रकार के करारों को शून्य घोषित करती है-

  • करार, जिसके द्वारा कोई एक पक्षकार अपने विधिक अधिकारों को विधिक कार्यवाहियों द्वारा प्रवर्तित करने से पूर्णतः वंचित रहता हो,
  • करार, जो विधिक अधिकार को कार्यवाहियों द्वारा प्रवर्तित करने के समय को परिसीमित करता हो।

इस प्रकार धारा 28 निम्नलिखित 2 प्रकार के करारों को शून्य घोषित करती है।

धारा 28 के लागू होने के लिए निम्नलिखित शर्तें पूर्ण होनी चाहिए-

  • विधिक कार्यवाहियों से वर्जित रखने का करार हुआ हो
  • वाद लाने की निर्धारित अवधि को कम करने का करार हुआ हो
  • ऐसा करार पक्षकार पर आत्यन्तिक रूप से प्रतिबन्ध लगाता हो।
  1. विधिक कार्यवाहियों से वर्जित रखने का करार

    ऐसे करार, जिसके द्वारा कोई व्यक्ति संविदा से उत्पन्न विधि अधिकारों को प्राप्त करने के लिए विधिक कार्यवाही करने से वर्जित रखता हो।

  2. वाद लाने के लिए निर्धारित समय को कम करने वाले करार

    धारा 28 ऐसे करारों को भी शून्य घोषित करती है जो मुकदमा दायर करने के लिए निर्धारित समयावधि को कम करते हो। उदाहरणार्थ यदि किसी संविदा में यह खण्ड हो कि संविदा भंग के लिए वाद केवल 1 वर्ष के अन्दर लाया जा सकेगा तो ऐसा खण्ड शून्य होगा क्योंकि परिसीमा अधिनियम के अनुसार संविदा भंग के लिए वाद भंग की तिथि से 3 वर्ष के अन्दर लाया जा सकता है।

धारा 28 के बारे में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गार्थ ने कोरिंग आयल कं० बनाम कोयग्लर के मुकदमें में विचार प्रकट किया है कि धारा 28 ऐसे करारों पर लागू होती है जो पूर्णरूप से करार के पक्षकारों के अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए न्यायालय का सहारा लेने से रोकते हों अर्थात् विधिक कार्यवाही करने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं।

परन्तु धारा 28 के अधीन ऐसे ही करार शून्य होते हैं जो विधिक कार्यवाहियों पर आत्यन्तिक आंशिक रूप से प्रतिबन्ध लगाने वाले होते हैं। आंशिक प्रतिबन्ध वैध होते हैं। जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने हाकम सिंह v. गैमन इण्डिया लि० के वाद में कहा कि जहाँ दो या दो से अधिक न्यायालय किसी मामले में अधिकारिता रखते हों तो यदि पक्षकार यह करार करते हैं विवादों का निपटारा किसी एक न्यायालय द्वारा किया जायेगा। ऐसा करार धारा 28 के अन्तर्गत शून्य न होकर वैध होगा।

इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत नवीनतम वाद मेसर्स श्रीराम सिटी यूनियन कारपोरेशन लि० बनाम रमा मिश्रा का है-रमा मिश्र द्वारा 14 अगस्त 1997 को अपीलार्थी से पट्टे पर बस ली गयी थी। पट्टे की अवधि 36 माह थी। किराया हर महीने भुगतान होना था। पट्टे को 14 अगस्त 2000 को समाप्त हो जाना था। करार में यह वर्णित था कि विवाद की स्थिति में कलकत्ता स्थित न्यायालय को अधिकारिता प्राप्त होगी। विवाद का निपटारा माध्यस्थन द्वारा कराया जायेगा। किराये की किश्तों का भुगतान न होने पर कलकत्ता सिविल कोर्ट में अपीलार्थी ने विवाचक नियुक्त करने के लिए आवेदन किया। विवाचक ने अपीलार्थी के पक्ष में अपना निर्णय दिया जिसके आधार पर रिसीवर ने 19 दिसम्बर 1994 को बस को अपने कब्जे में ले लिया इसके पश्चात उत्तरदाता रमा मिश्रा ने व्यादेश पारित करने के लिए और गाड़ी पुनः वापस दिलाने के लिए भुवनेश्वर (उड़ीसा) के सिविल जज (अवर श्रेणी) के यहाँ वाद फाइल किया। अपीलार्थी ने इसका दो आधारों पर विरोध किया पहला यह कि वाद प्राड्न्याय के आधार पर बाधित है दूसरा यह कि करार में यह स्पष्ट रूप से वर्णित था कि विवाद की स्थिति विवाद का निर्णय करने की अधिकारिता कलकत्ता स्थित न्यायालय को होगी। सिविल जज भुवनेश्वर ने निर्णय रमा मिश्रा के पक्ष में दिया जिसके विरुद्ध जिला जज के यहाँ अपील अपीलार्थी द्वारा किया। जिला जज ने अपील अनुज्ञात करते हुए सिविल जज के निर्णय को निरस्त कर दिया। उत्तरदाता रमा मिश्रा ने इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण फाइल किया जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और सिविल न्यायालय के निर्णय को पुष्ट कर दिया। उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील हुई।

उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि भुवनेश्वर के न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता प्राप्त नहीं थी। केवल यह अधिकारिता कलकत्ता के न्यायालय को प्राप्त थी। न्यायालय का मत था कि जहाँ किसी मामले की सुनवाई की अधिकारिता दो या अधिक स्थान के न्यायालयों को प्राप्त हो वहाँ न्यायालय इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि वे अपने मामले का विनिश्चय केवल अमुक न्यायालय द्वारा ही करायेंगे और ऐसा करना न तो धारा 28 के अधीन शून्य होगा और न ही धारा 23 के अधीन लोकनीति के विरुद्ध होगा।

अपवाद

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 28 में उपरोक्त सामान्य निमय के अपवाद निम्न है-

  1. भविष्य में पैदा होने वाले विवाद को माध्यस्थम् (मध्यस्थ/निर्णय) के लिए निर्देशित करने की संविदा –

    धारा 28 ऐसी संविदा को अवैध नहीं करती हैं जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति करार करते हैं कि किसी विषय के बारे में जो विवाद उसके बीच पैदा होगा उसको मध्यस्थ निर्णय के लिए निर्देशित किया जायेगा और इस प्रकार निर्देशित विवाद के बारे में केवल वह रकम वसूल की जा सकेगी जो ऐसे मध्यस्थ निर्णय में अधिनिर्णीत हो। यदि ऐसी संविदा की गयी है तो इसके विनिर्दिष्ट पालन के लिए वाद लाया जा सकता है और यदि ऐसे विनिर्दिष्ट पालन के वाद से या इस प्रकार अधिनिर्णीत रकम की वसूली के वाद से भिन्न कोई वाद ऐसी संविदा के एक पक्षकार द्वारा ऐसे किसी अन्य पक्षकार के विरुद्ध ऐसे विषय के बारे में लाया जाता है जिसे निर्देशित करने का उन्होंने ऐसा करार किया है, तो ऐसी संविदा का अस्तित्व उस वाद के लिए वर्जन या रुकावट होगा।

  2. विद्यमान प्रश्न को, मध्यस्थम् (मध्यस्थ निर्णय) के लिए निर्देशित करने की संविदा –

    धारा 28 किसी ऐसी लिखित संविदा को अवैध नहीं करती है जिससे दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी प्रश्न को, जोकि उनके मध्य पहले ही पैदा हो गया है, मध्यस्थम् (मध्यस्थ निर्माण) के लिए निर्देशित करने का करार करते हैं। इसके अतिरिक्त धारा 28 मध्यस्थम (मध्यस्थ निर्णय) के लिए निर्देशित करने से सम्बंन्धित तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबन्धों को प्रभावित नहीं करती है।

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