मिथ्या व्ययर्देशन / दुर्व्यपदेशन (Misrepresentation)- अर्थ व प्रभाव

मिथ्याव्ययर्देशन / दुर्व्यपदेशन (Misrepresentation)- अर्थ व प्रभाव

मिथ्याव्ययर्देशन या दुर्व्यपदेशन (Misrepresentation)

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 18 में परिभाषित मिथ्याव्ययर्देशन के अन्तर्गत आते है-

  1. किसी ऐसी बात का, जो सत्य नहीं है, ऐसे प्रकार से किया गया निश्चयात्मक प्राख्यान जो उस व्यक्ति की, जो उसे करता है जानकारी से समर्थित न हो, यद्यपि वह उस बात के सत्य होने का विश्वास करता हो,
  2. कोई ऐसा कर्तव्य भंग, जो प्रवंचना करने के आशय के बिना उस व्यक्ति को, जो उसे करता है, या उससे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति को कोई फायदा किसी अन्य को ऐसा भुलावा देकर पहुंचाये, जिससे उस अन्य पर या उससे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े।
  3. करार के किसी पक्षकार से उस बात के बारे में चाहे कितनी ही निर्दोषिता से क्यों न हो, कोई भूल करता है, जो कि उस करार का विषय है।

कपट और दुर्व्यपदेशन दोनों में मिथ्या कथन के परिणामस्वरूप संविदा के लिए सम्मति दी जाती है, परन्तु कपट में मिथ्या कथन देने वाले को, इस बात की जानकारी होती है कि कथन मिथ्या है अथवा कथन देने वाले को उसकी सत्यता में विश्वास नहीं होता है अथवा कथन देने वाला लापरवाही के कथन की सत्यता अथवा असत्यता को जानने का प्रयास किये बिना देता है जबकि मिथ्या व्यपदेशन में मिथ्या कथन देने वाले को विश्वास होता है कि कथन सत्य है, हालांकि वास्तव में वह कथन सत्य नहीं होता है। दुर्व्यपदेशन में धोखा देने का आशय नहीं होता है। दुर्व्यपदेशन का अर्थ धारा 18 में दिया गया है। इस धारा के अनुसार दुर्व्यपदेशन में अग्रलिखित सम्मिलित हैं-

  1. निश्चयात्मक प्राख्यान की जानकारी में समर्पित नहीं है-

    दुर्व्यपदेशन में ऐसे निश्चयात्मक प्राख्यान सम्मिलित हैं जिसे देने वाला व्यक्ति उसकी सत्यता में विश्वास करता है परन्तु वह सत्य नहीं है और उक्त प्राख्यान देने वाले व्यक्ति की जानकारी द्वारा वह संमर्थित नहीं है। इस प्रकार असत्य बात को निश्चयात्मक ढंग से कहना जबकि वह कहने वाले व्यक्ति को प्राप्त सूचना द्वारा समर्थित नहीं है, यद्यपि कहने वाले व्यक्ति को उसकी सत्यता में विश्वास हैं दुर्व्यपदेशन होता है। इस प्रकार जब कोई व्यक्ति किसी असत्य बात को निश्चयात्मक रूप से सत्य बताता है जबकि उसे उसकी जानकारी नहीं हैं (अर्थात उसको प्राप्त सूचना द्वारा ऐसा कथन समर्पित नहीं है) यद्यपि वह उसकी सत्यता में विश्वास करता है, तो यह दुर्व्यपदेशन होगा। उदाहरण के लिए, ओसनिक स्टीम नेविगेशन कं० बनाम सुन्दरदास धर्मसे के वाद में प्रतिवादी ने वादी के साथ एक जहाज किराये पर लेने की संविदा की। संविदा करते समय वादी ने कहा कि उसका वजन 2800 टन से अधिक नहीं हैं जबकि इसका वजन 3000 टन से अधिक था। वादी को यह विश्वास था कि इसका वजन 2800 टन ही है यद्यपि यह सत्य नहीं था। वास्तविकता यह थी कि जहाज के बारे में उसको कुछ भी जानकारी नहीं थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी की सम्मति दुर्व्यपदेशन से प्राप्त हुई थी और इस कारण संविदा शून्यकरणीय थी। वादी ने जहाज के भार के बारे में निश्चयात्मक प्राख्यान दिया जो उसको प्राप्त सूचना से समर्थित नहीं था और असत्य था, परन्तु उसकी सत्यता में उसे विश्वास था ।

  2. धोखा देने के आशय के बिना किया गया कर्तव्य भंग-

    यदि कोई व्यक्ति धोखा देने के आशय के बिना कोई कर्तव्य भंग करता है और इससे स्वयं को लाभ तथा दूसरे को हानि पहुंचाता है तो यह दुर्व्यपदेशन होता है, न कि कपट। उदाहरण के लिए, एक बाद में प्रतिवादी ने वादी से एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने को कहा। वादी ने समय की कमी के कारण बिना पढ़े उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। प्रतिवादी ने विश्वास दिलाया कि उसमें वही बाते हैं जो पहले से तय की जा चुकी हैं जबकि वास्तव में उस दस्तावेज में वहीं बातें नहीं थी जो पहले से तय की गयी थीं।

प्रतिवादी द्वारा विश्वास दिलाये जाने पर कि दस्तावेज में वही बातें हैं जो पहले से तय की गयी थीं वादी ने दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये। न्यायालय ने दुर्व्यपदेशन के आधार पर वादी को विलेख को रद्द करने का अधिकार प्रदान किया। न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी का यह ‘कर्तव्य नहीं था कि वह दस्तावेज की विषय वस्तु की सूचना दे परन्तु प्रतिवादी ने वादी को विश्वास दिलाया और वादी ने उस पर विश्वास किया इसलिए उसका कर्तव्य हो गया था कि वह वादी को सभी बातें सही सही बता दे और तथ्यों को न छिपावे।

  1. निर्दोषितापूर्वक करार के पक्षकार को ऐसी वस्तु के सार तत्व के सम्बन्ध में भूल कराना जो करार का विषय है- जब संविदा का पक्षकार दूसरे पक्षकार को निर्दोषिता से किसी ऐसी वस्तु के सार तत्व के सम्बन्ध में भूल करवाता है जो संविदा की विषय वस्तु है तो यह मिथ्या व्यपदेशन है।

‘क्यूरी बनाम रैनिका के वाद में एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति को घोड़ी बेची। विक्रय से पूर्व विक्रेता ने कहा कि घोड़ी स्वस्थ है जबकि, वह स्वस्थ नहीं थी यद्यपि वह उसे निश्चित रूप से स्वस्थ समझता था। न्यायालय ने दुर्व्यपदेशन के आधार पर संविदा को शून्यकरणीय ठहराया।

यह उल्लेखनीय है कि जिस संविदा के पक्षकार से दुर्व्यपदेशन किया गया है, यदि उसकी सम्मति प्राप्त करने का कारण वह दुर्व्यपदेशन नहीं था तो संविदा शून्यकरणीय नहीं होगी। इस प्रकार दुर्व्यपदेशन के आधार पर संविदा शून्यकरणीय तभी होती है, जबकि स्थिति यह हो कि यदि दुर्व्यपदेशन न किया गया होता तो वह पक्षकार जिससे दुर्व्यपदेशन किया गया है, संविदा के लिए अपनी सम्मति न देता। यदि संविदा का वह पक्षकार जिसके साथ दुर्व्यपदेशन किया गया है उसकी सत्यता में विश्वास नहीं करता है और वास्तव में उत्प्रेरित नहीं हुआ है तो संविदा दुर्व्यपदेशन के आधार पर शून्यकरणीय नहीं होगी।

सत्य जानने का साधन

यह भी उल्लेखनीय है कि यदि संविदा के लिए किसी पक्षकार की सम्पति दुर्व्यपदेशन से प्राप्त की गयी है तो ऐसा होने पर भी संविदा यदि उस पक्षकार के पास जिसकी सम्मति इस प्रकार प्राप्त की गयी थी सत्य को साधारण उद्यम से पता लगा लेने के साधन थे, शून्यकरणीय नहीं होगी अर्थात् संविदा के किसी पक्षकार की सम्मति दुर्व्यपदेशन से प्राप्त भी की गयी हो तो संविदा शून्यकरणीय नहीं होगी यदि उस पक्षकार के पास जिसकी सम्मति इस प्रकार प्राप्त की गयी है, साधारण उद्यम से सत्य का पता लगा लेने के साधन थे।

संविदा की वैधता पर मिथ्या व्यपदेशन का प्रभाव

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 19 मिथ्या व्ययदेशन से पिड़ित पक्ष को निम्न अधिकार प्रदान करती है-

  1. संविदा का शून्यकरणीय होना

    संविदा उस पक्षकार की इच्छा पर शून्यकरणीय हो जाती है जिसकी स्वीकृति मिथ्या-व्यपदेशन द्वारा की गयी है। इस प्रकार पीड़ित पक्षकार संविदा को निरस्त करने का अधिकार रखता है लेकिन उसे ऐसा अधिकार तभी प्राप्त होगा, जबकि उसके पास ऐसी स्थिति न हो कि वह अपनी साधारण बुद्धि को प्रयोग में लाकर वास्तविकता का पता लगा सकता। यदि अन्य पक्षकार यह सिद्ध करने में सफल जाता है कि पीड़ित पक्षकार के पास ऐसी परिस्थिति थी कि वह साधारण बुद्धिमानी से ही सत्य को जान सकता था, तब इस दशा में पीड़ित पक्षकार को संविदा निरस्त करने का अधिकार न होगा।

  2. संविदा की अभिपुष्टि

    यदि पीड़ित पक्षकार इसे अपने हित में समझता है, तो संविदा को जैसा का तैसा मान सकता है और उसकी शर्तों को निष्पादन कराने के लिए न्यायालय का आसरा ले सकता है।

  3. प्रत्यानयन की माँग

    यदि वह संविदा को निरस्त करता है, तो वह दूसरे पक्षकार से प्रत्यानयन की माँग कर सकता है। अर्थात् उस संविदा के अधीन उसने जो वस्तु या धन दूसरे पक्षकार को दी हो उसे वापस प्राप्त कर सकता है, लेकिन यदि ऐसी संविदा से उसे कोई हानि हुई हो तो वह उस हानि की माँग नहीं कर सकता।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए,  अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हम से संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है,  तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment