घोषणात्मक वाद (Declaratory suit)

घोषणात्मक वाद

घोषणात्मक आज्ञप्ति (Declaratory Decrees) एक ऐसी आज्ञप्ति है जिसके अन्तर्गत न तो प्रतिकर ही देय होता है और न ही निष्पादन की आवश्यकता होती है। यह एक ऐसी आज्ञप्ति है जो मात्र अधिकारों या हैसियत की घोषणा करती है। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। इस प्रकार घोषणात्मक आज्ञप्ति व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने एवं उन्हें यथास्थान रखने का कार्य करती है।

इस प्रकार, जब कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई अधिकार या वैध हैसियत रखने का अधिकारी है तथा कोई अन्य व्यक्ति उसके इस अधिकार या वैध हैसियत से इन्कार करता है तो वह अधिकारी व्यक्ति न्यायालय में इस उद्देश्य के लिए वाद दायर कर सकता है कि न्यायालय इस प्रभाव को एक घोषणा जारी करे कि वास्तव में वादी विवादग्रस्त सम्पत्ति का अधिकारी है या उस पर वैध हैसियत बनाये रखने का अधिकारी है। न्यायालय द्वारा जारी की जाने वाली इस उद्देश्य की घोषणात्मक डिक्री के द्वारा केवल पहले जो अधिकार वादी में निहित थे, उन्हीं अधिकारों या हैसियत को पुन: वादी के पक्ष में घोषणा की जानी है। इस डिक्री से न तो वादी को कोई नये अधिकार ही प्राप्त होते हैं और न ही प्रतिवादी से कोई भुगतान अथवा पालन की ही माँग की जाती है।

कौन वाद ला सकता है?

निम्नलिखित व्यक्ति घोषणात्मक डिक्री के लिए वाद ला सकते हैं-

  1. वह व्यक्ति जो विधिक हैसियत रखता हो, या
  2. वह व्यक्ति जो कि सम्पत्ति में अधिकार रखता हो ।

इस प्रकार यह वाद निम्नलिखित व्यक्तियों के विरुद्ध लाया जा सकता है-

  1. ऐसा इन्कार करने की अभिरुचि रखता हो।
  2. जो किसी की विधिक हैसियत या सम्पत्ति के अधिकार से इन्कार करता हो, या

घोषणात्मक वाद की आवश्यक शर्तें (Essential conditions)

धारा 34 के अधीन पारित की जाने वाली घोषणात्मक डिक्री के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है-

  1. वाद दायर करने के लिए वादी किसी सम्पत्ति के अधिकार को या किसी वैध हैसियत को रखने का अधिकारी व्यक्ति होना चाहिए। अधिकार या वैध हैसियत जिसके कि सम्बन्ध में वादी दावा कर रहा है वाद दायर करने के दिन अस्तित्व में होनी चाहिए। भविष्य में अस्तित्व में आने वाला अधिकार या वैध हैसियत के सम्बन्ध में घोषणात्मक डिक्री प्राप्त नहीं की जा सकती।
  2. प्रतिवादी द्वारा वादी के इस सम्पत्ति के अधिकार या वैध हैसियत रखने के अधिकार को इन्कार किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रतिवादी द्वारा वर्तमान में इन्कार किया जाना चाहिए। यदि वादी को केवल यह आशंका है कि प्रतिवादी भविष्य में कभी उसके इस सम्पत्ति के अधिकार या वैध हैसियत को मानने से इन्कार करेगा तो इस अवस्था में वादी धारा 34 के अन्तर्गत घोषणात्मक डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होगा।
  3. धारा 34 के अन्तर्गत दायर किये गये वाद में वादी द्वारा केवल इसी आशय की घोषणा की माँग की गयी होनी चाहिए कि वह किसी सम्पत्ति के अधिकार वैध हैसियत को रखने का अधिकारी है। यह सम्पत्ति का अधिकार या हैसियत विधिक प्रकृति की होनी आवश्यक है।

उदाहरण- ‘क’ का किसी जमीन पर वैध अधिकार है। गांव के व्यक्ति उस भूमि में से होकर अपने मार्ग के अधिकार की माँग करते हैं। ‘अ’ सक्षम न्यायालय के समक्ष धारा 34 के अन्तर्गत इस आशय की घोषणा जारी करवाने के लिए दावा दायर कर सकता है कि गाँव के व्यक्ति उस जमीन पर आने-जाने का अधिकार नहीं रखते।

  1. वादी दावा दायर करने के दिन इस घोषणा के साथ-साथ सम्पत्ति के अधिकार या वैध हैसियत के सम्बन्ध में घोषणा से आगे और अन्य अनुतोष माँगने के योग्य नहीं होना चाहिए।

धारा 34 की आवश्यक शर्तें पूरी हो जाने के बाद भी वादी के हक में घोषणा जारी करने का अधिकार न्यायालय का विवेकाधिकार है। परन्तु न्यायालय से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उसका प्रयोग युक्तियुक्त ढंग से करे।

घोषणात्मक डिक्री के उद्देश्य

घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित करने का उद्देश्य है कि जहाँ किसी व्यक्ति की हैसियत अथवा विधिक हैसियत को अस्वीकार किया जाना है, अथवा उसकी किसी सम्पत्ति के स्वामित्व के अधिकार तथा हितों को ढका जाता है तो व अपने स्वत्व एवं अधिकार को घोषित कराने के लिए न्यायालय की शरण में जा सकता है तथा न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित कर सकता है। इस धारा का यह भी उद्देश्य है कि घोषणात्मक आज्ञप्ति द्वारा वादी के स्वतत्व के अधिकारों को स्थिरता एवं शक्ति प्रदान की जाए तथा विपरीत आक्रमणों से उसे संरक्षण प्रदान किया जाये, क्योंकि विद्यापन की मंशा यह नहीं है कि पीड़ित व्यक्ति को केवल संरक्षण ही प्रदान किया जाए, बल्कि यह भी है कि उसे अपनी सम्पत्ति का उपयोग एवं उपभोग शक्तिपूर्ण ढंग से किये जाने हेतु आश्वस्त भी करना चाहिए।

न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति

घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित करना या न करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यदि न्यायालय यह समझता है कि वादी की विधिक स्थिति अथवा किसी सम्पत्ति में वादी के अधिकार को खतरा उत्पन्न हो गया है तो न्यायालय उसे सुरक्षा प्रदान करता है। यदि घोषणात्मक आज्ञप्ति के साथ अन्य कोई अनुतोष माँगा जाना वांछनीय हो एवं वह माँगा नहीं गया हो, तो न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति से इन्कार कर सकता है।

यदि न्यायालय को यह आभास हो कि वादी स्वत्व का दावा कर रहा है जो अविधिमान्य व शून्य है तो उसे यह उपचार प्रदान नहीं किया जायगा।

घोषणात्मक वाद निम्न परिस्थितियों में नहीं लाया जा सकता है-

  • नकारात्मक घोषणायें नहीं की जाती हैं। यथा कि वादी ने प्रतिवादी के व्यापार चिन्ह का अतिक्रमण नहीं किया था।
  • यह कि वादी एक अपंजीकृत विक्रय विलेख के अन्तर्गत सम्पत्ति में अधिकार पा चुका है।
  • उत्तराधिकार प्रमाणपत्र भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अन्तर्गत जारी किया गया है। एक वाद में एक सम्पत्ति के सम्बन्ध में इच्छा पत्र प्रमाणपत्र, वसीयत के अन्तर्गत प्रदान किया गया था, उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में हक की घोषणा तथा स्थायी वाद लाने के लिए, सिविल वाद लाने से निवारित नहीं करता। एक वसीयती न्यायालय यह विनिश्चिय करने में समक्ष नहीं है कि प्रश्नगत सम्पत्ति संयुक्त पैतृक सम्पत्ति है।
  • एक छात्र द्वारा कि वह परीक्षा पास कर चुका है।
  • कोई घोषणा जो पूँजी व वाणिज्यिक व्यवहारों की स्वतन्त्रता में बाधा डाले।

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