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नरसिम्हा राव एवं अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल की विदेश नीति

नरसिम्हा राव एवं अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल की विदेश नीति

नरसिम्हा राव के काल में वैदेशिक नीति

नरसिम्हा राव जून, 1991 में भारत के प्रधानमंत्री ऐसे समय में बने जब भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं थी। विश्व में भारत को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थी। परंतु नरसिम्हा राव ने नयी आर्थिक नीति का सूत्रपात करके भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाया। नरसिम्हा राव ने अपनी विदेश नीति को आर्थिक तत्वों से जोड़ने का सफल प्रयास किया परंतु इसका आशा यह भी नहीं है कि भारत अपने मौलिक सिद्धांतों से हट गया। राव काल में भी विदेश नीति में उन्हीं आधारों को प्राथमिकता प्रदान की गयी अथवा उन्हीं के आधार पर विश्व के विभिन्न देशों के साथ संबंध बनाये रखने की कोशिश की गयी जो पूर्व के प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में थी।

गुट निरपेक्षता का पूर्ण समर्थन, पंचशील, परमाणु निरस्त्रीकरण, पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध, पाकिस्तान के साथ विभिन्न समस्याओं का समाधान, शांतिपूर्ण परमाणु शक्ति तथा तकनीक का विकास, संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन, सुरक्षा परिषद का विस्तार एवं लोकतंत्रीकरण की मांग का समर्थन तथा तीसरे विश्व के देशों के साथ और अधिक मित्रतापूर्ण सहयोग की स्थापना तथा नव उपनिवेशवाद का विरोध, दक्षिण-दक्षिण को सहयोग, एशियन के देशों तथा मध्य एशिया के गणतंत्रों तथा एशिया और अफ्रीका के सभी छोटे-बड़ों राज्यों के साथ आर्थिक सहयोग तथा व्यापार में तेजी से वृद्धि आदि भारतीय विदेश नीति की विशेषताओं पर बल दिया जाने लगा।

नरसिम्हा राव की सरकार ऐसे समय सत्ता में आयी जब विश्व एक ध्रुवीय बन गया था। विश्व राजनीति में अमेरिका की एक आयामी दादागिरी बढ़ती गयी जिससे भारत भी नही बच रह सका। कश्मीर और आर्थिक नीतियों के मामलों के संबंध में भारत पर अमेरिका का काफी दबाव था। अमेरिका ने एक ओर सुपर 301 एवं स्पेशल 301 की तलवार लटकाकर भारत को ब्लैकमैल करने की कोशिश की तो दूसरी तरफ राबिन राफेल ने 1947 में राज्यों के भारत में हुए विलय को ही चुनौती दे डाली। इस प्रकार नरसिम्हा राव के शासनकाल में विदेश नीति पर दो मामलों-कश्मीर समस्या तथा देश की अर्थव्यवस्था पर काफी अधिक दबाव रहा।

जहां तक अर्थव्यवस्था का प्रश्न है तो नरसिम्हा राव ने देश को एक नया आर्थिक दर्शन दिया इससे न केवल देश को घोर आर्थिक संकट से बचाया गया बल्कि विश्व आर्थिक परिवेश में भारत अपने परम्परागत दृष्टिकोण में बदलाव करके विकास के सर्वोच्च शिखर की ओर अग्रसर हो गया। नयी आर्थिक नीति का ही योगदान है कि वर्ष 2000 में भारत क्रय शक्ति के आधार पर विश्व की चौथी महाशक्ति बन गया है। दूसरी तरफ अमेरिका कश्मीर मामले को द्विपक्षीय से त्रिपक्षीय बनाने में सफल नहीं हो पाया अथवा पाकिस्तान उसे भारत से तोड़कर अलग नहीं कर पाया, तो इसका श्रेय नसरिम्हा राव की उत्कृष्ट विदेश नीति को ही दिया जाना चाहिए। इससे यह निष्कर्ष निकालता है कि राव का विदेश नीति का सम्पूर्ण काल कश्मीर को बचाने तथा भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ समेकित करने में लग गया।

नरसिम्हा राव के काल में भारत गुट निरपेक्षता को प्रभावी नेतृत्व दे पाने में विफल रहा। समूह-77 को एक नयी ताकत के रूप में बदल पाने में सफल न होना तथा राष्ट्रमंडल को महत्व न देना, दक्षेस में पाकिस्तान में उग्र व्यवहार के कारण अपनी रुचि को सीमित कर देने के लिये भारत दोषी नहीं सिद्ध हो जाता है। इनके कार्य आधार पर भारतीय विदेश नीति को अपने लक्ष्य से भटकना भी नहीं कहा जा सकता है। हां यह अवश्य हुआ कि सी०टी०बी०टी० पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया गया। नवम्बर, 1996 में विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की शिखर बैठक में रोम में भारतीय प्रधानमंत्री एच० डी० देवगौड़ा ने चीनी प्रधानमंत्री से आपसी बातचीत के समय यह आश्वासन दिया कि भारत दलाई लामा को अपने यहां किसी प्रकार की कोई चीन विरोधी गतिविधियों को संचालित नहीं होने देगा। यद्यपि विशेषज्ञों का मत है कि देवगौड़ा को उस समय यह आश्वासन देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। 28 नवम्बर, 1996 को चीन के प्रधानमंत्री जियांग जेमिन की भारत की तीन दिवसीय यात्रा पर दोनों देशों ने विश्वासजनक कार्यों के समझौते पर हस्ताक्षर किया। 1997 को भारत तथा अमेरिका के मध्य प्रत्यापर्ण संधि हुई। सितम्बर, 1997 में सं० रा० महासभा के अधिवेशन के समय भारतीय प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से व्यापक बातचीत की। बातचीत में भारत अमेरिकी द्विपक्षीय सहयोग पर बल दिया गया। सं० रा० अमेरिका द्वारा पहली बार यह स्वीकार किया गया कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मामला है तथा सं० रा० अमेरिका इस मामले में मध्यस्थता करने की कोई इच्छा नहीं रखता है। अक्टूबर, 1997 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ 6 दिवसीय यात्रा पर भारत आयी। 23 जुलाई, 1997 को जापान के विदेश मंत्री योकी हिकी इकेदा भारत आये तथा जापान ने भारत को समुद्रपारीय निवेश के लिये दूसरे सर्वाधिक के रूप में चयनित किया।

अटल बिहारी वाजपेयी के काल में विदेश नीति

मार्च, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की सरकार केंद्र में बनी। नयी सरकार ने अपने शासन के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम घोषित किया। राष्ट्रीय कार्यक्रम में विदेश नीति के संबंध में यह घोषणा की गयी थी कि भारत अपनी सुरक्षा के संबंध में कोई समझौता नहीं करेगा तथा भारतीय प्रभुसत्ता तथा भू-क्षेत्रीय अखण्डता की रक्षा के लिये परमाणु विकल्प सहित सभी विकल्पों को अपनाया जायेगा । राष्ट्रीय कार्यक्रम में यह भी कहा गया था कि भारतीय परमाणु नीति का पुनर्मूल्यांकन किया जायेगा तथा परमाणु शस्त्रों को अपनाने के विकल्प को भी अपनाया जायेगा। परंतु बाद में यह स्पष्ट किया गया कि परमाणु विकल्प खुला रखा जायेगा तथा (C.T.B.T.) पर हस्ताक्षर नहीं किये जायेंगे। उक्त कार्यक्रम में यह भी कहा गया कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भारत सरकार द्वारा अपने आकार तथा क्षमता के अनुकूल स्थान, भूमिका तथा स्थिति प्राप्त करने का प्रयास किया जायेगा तथा द्विपक्षीय वाद के आधार पर सभी पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण संबंधों की स्थापना की जायेगी। इस प्रकार राष्ट्रीय कार्यक्रम में विदेश नीति के संबंध में निम्नलिखित बातें कही गयी थी-

  1. सभी देशों विशेषरूप से पड़ोसी देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए जायेंगे।
  2. पाकिस्तान द्वारा अधिकृत कश्मीर भारत का है।
  3. एक निश्चित समय सारणी के आधार पर भू-मंडलीय नाभिकीय नियंत्रण ।
  4. यदि नाभिकीय शस्त्रयुक्त देश नाभिकीय शस्त्रों का संग्रह करना नहीं रोकते हैं तब देश की सुरक्षा के लिये उचित कदम उठाया जायेगा।
  5. सार्क और एशियान के तरह के प्रादेशिक और सभ्यताकारी समूहों का समर्थन और उनको शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया जायेगा।

वाजपेयी की सरकार ने सभी देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाने तथा विश्व शांति के लिये प्रयत्नशील रहने की परम्परागत भारतीय नीति को यथावत जारी रखने की घोषणा की परंतु भारत की परमाणु नाभिकीय नीति के असमंजस को समाप्त कर दिया। 11 मई तथा 13 मई, 1998 को 5 परमाणु परीक्षण करके अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। भारत द्वारा परमाणु परीक्षण करके अपने परमाणु नीति को स्पष्ट कर दिया गया। कि वह अपनी सुरक्षा के लिये कुछ भी कर सकता है। भारत के इस कदम से विश्व में प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। भारत पर अमेरिका सहित अनेक देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया जिसका भारत ने सफलतापूर्वक सामना किया। भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने विश्व के अनेक देशों की यात्रा की तथा विश्व के सामने भारतीय पक्ष को रखा। जसवंत सिंह भारतीय पक्ष को विश्व के सामने प्रभावशाली ढंग से रखने में सफल रहे तथा विश्व के अनेक देशों ने भारत पर लगाये गये प्रतिबंधों को सीमित करना शुरू कर दिया। यहां तक कि अमेरिका ने भी भारत के परमाणु परीक्षण को उसकी सुरक्षा के संबंध में देखना शुरू किया। यह भारत की सशक्त विदेश नीति का परिचायक है।

मई, 1999 में शुरू कारगिल युद्ध के समय भारतीय विदेश नीति काफी सफल रही। भारतीय विदेश मंत्री ने पूरी विश्व को प्रभावशाली तरीके से भारतीय पक्ष से अवगत कराया। कारगिल प्रकरण में अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सहित सभी देशों ने भारतीय दृष्टिकोण के प्रति समर्थन व्यक्त किया तथा कारगिल युद्ध के लिये पाकिस्तान को जिम्मेदार बताया।

कारगिल युद्ध के समय भारतीय विदेश नीति अपने उच्चतम शिखर पर भी थी। ध्यातव्य है कि भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने के लिये जनवरी, 1999 में लाहौर बस यात्रा की थी।

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंध बनाने के लिये पहल की और इसका परिणाम भी अच्छा रहा। पाकिस्तान को छोड़कर शेष संबंधों को सुधारने के लिये जनवरी, 1999 में लाहौर बस यात्रा की थी।

अटल बिहारी वाजयपेयी ने अपने पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंध बनाने के लिये पहल की और इसका परिणाम भी अच्छा रहा। पाकिस्तान को छोड़कर शेष सभी पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में सुधार हुआ। अगस्त, 1998 में वाजपेयी ने नामीबिया सहित अनेक अफ्रीकी देशों तथा खाड़ी के देशों की यात्रा की। सितम्बर, 1998 के डरबन गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला द्वारा कश्मीर का उल्लेख किये जाने से दोनों देशों के संबंधों में कटुता उत्पन्न हो गयी। परंतु उक्त शिखर सम्मेलन में भारत का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया कि सामूहिक विनाश के शस्त्रों के पूर्ण उन्मूलन की दिशा में कार्य करने के लिये 1999 में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया जाये।

अक्टूबर, 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की पुनः सरकार सत्तारूढ़ हुई। ध्यातव्य है कि अप्रैल 1999 में विश्वास मत न प्राप्त कर सकने के कारण वाजपेयी सरकार अल्पमत में आ गयी और उसे त्यागपत्र देना पड़ा था। परंतु कार्यवाहक सरकार के रूप में वह आसीन रही। वाजपेयी के द्वितीय काल में विदेश नीति और प्रखर हुई। अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत की 5 दिवसीय यात्रा पर आये। राष्ट्रपति क्लिंटन तथा भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा एक दृष्टि कथ्य (vision statement) जारी किया गया जिसमें नयी शताब्दी के नवप्रभात में दोनों देशों के मध्य नये संबंधों की स्थापना पर बल दिया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कश्मीर के मामले में भारतीय दृष्टिकोण का पूर्णरूपेण समर्थन किया तथा कश्मीर की नियंत्रण रेखा का सम्मान करने की सलाह दी। यह इस बात का परिचायक है कि भारतीय दृष्टिकोण या भारतीय कूटनीति को अब एक नया आयाम मिल रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी के अब तक के काल में भारतीय विदेश नीति दिनों-दिन और अधिक प्रखर हो रही है तथा आशा की जा रही है कि भविष्य में और अधिक प्रखर होगी।

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