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लुइस के श्रम की असीमित पूर्ति सिद्धांत की आलोचना (Lewis Model of Unlimited supply of labour)

लुइस के आर्थिक विकास मॉडल की आलोचना

लुइस के आर्थिक विकास मॉडल की आलोचना

प्रो. लेविस ने, “असीमित श्रम पूर्ति सिद्धान्त” के द्वारा विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की भांति लुइस भी यह मानते हैं कि विकसित देशों में जीवन निर्वाह के बराबर पर श्रम की असीमित पूर्ति उपलब्ध होती है इसलिए प्रत्येक अर्थशास्त्री का यह प्रयास होगा कि श्रम को निर्वाह से हटाकर पूँजीवादी क्षेत्र में लगाया जाय जिससे पूँजी संचय को बढ़ावा मिलने पर अधिक विकास संभव हो सके। लेविस का मॉडल इस मान्यता पर आधारित है कि अल्पविकसित देशों में प्रचलित मजदूरी दर पर श्रम की पूर्ति लोचदार होती है चूंकि यहां पर श्रम का अतिरेक होता है चूंकि इन देशों में पूँजी तथा प्राकृतिक साधनों की तुलना में जनसंख्या का आधिक्य पाया जाता है। परिणामस्वरूप इन देशों में श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य और कभी-कभी ऋणात्मक भी हो सकती है।

अतिरेक श्रम की समस्या का समाधान

इन देशों की प्रमुख समस्या श्रम की अतिरेक मात्रा में उचित ढंग से प्रयोग करने की है। लेविस ने अर्थव्यवस्था के दो क्षेत्रों में बाँटा है – पूंजीवादी क्षेत्र एवं जीवन निर्वाह क्षेत्र । पूंजीवादी क्षेत्र अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र है, जहां पुनरुप्पादकीय पूँजी नहीं प्राप्त होती है और यहां पूँजीवादी क्षेत्र की अपेक्षा प्रति व्यक्ति उत्पादन की मात्रा कम होती है।

लुइस के अनुसार, आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए हमें जीवन निर्वाह क्षेत्र से श्रमिकों को हटाकर उन्हें पूँजीवादी क्षेत्र में लगाना होगा जिससे नये उद्योगों की स्थापना करके तथा वर्तमान उद्योगों का विस्तार करके अर्थात् उन्हें पूँजीवादी क्षेत्रों में लगाकर राष्ट्रीय आय बढ़ाई जा सकती है किन्तु पूँजीवादी क्षेत्र को अपने विस्तार के लिए प्रशिक्षित श्रम की आवश्यकता होती है। इसके उत्तर में लुइस कहते हैं कि कुशल या प्रशिक्षित श्रमिकों की समस्या एक स्थायी समस्या है और इसे प्रशिक्षण द्वारा दूर किया जा सकता है। श्रम के जीवन निर्वाह क्षेत्र से पूँजीवादी क्षेत्र में हस्तांतरण के लिए लुइस ने कुछ मान्यताएँ निश्चित की है जो निम्न हैं –

  1. श्रम शक्ति का हस्तांतरण प्रचलित मजदूरी अर्थात् जीवन निर्वाह मजदूरी पर ही किया जाय।
  2. पूँजीवादी क्षेत्र में उन्हें मिलने वाली मजदूरी निश्चित और समान होनी चाहिए।
  3. पूँजीवादी क्षेत्र में विनियोग अधिक किये जायँ भले ही वे जनसंख्या वृद्धि अनुपात में हों।
  4. श्रमिकों को प्रशिक्षित करने की लागत एक समान बनी रहनी चाहिए।

पूँजीवादी अतिरेक

पूँजीवादी क्षेत्र में मजदूरी उस न्यूनतम आय से निर्धारित होगी जो जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है। इस प्रकार, पूँजीवादी क्षेत्र की मजदूरी, निर्वाह क्षेत्र में प्राप्त होने वाली आय से निर्धारित होती हैं। प्रायः मजदूरी का यह स्तर निर्वाह क्षेत्र में श्रमिक की औसत उपज से श्रम नहीं हो सकता। इस प्रकार निर्वाह क्षेत्र मजूदरों की आय की न्यूनतम सीमा निर्धारित करता है और व्यावहारिक रूप से पूँजीवादी मजदूरी निर्वाह मजदूरी से 50% अधिक होती है जो कि पूँजीवादी क्षेत्र का अतिरेक माना जा सकता है। यह अतिरेक निम्न कारणों से प्राप्त हो सकता है-

  • निर्वाह क्षेत्र के उत्पादन में वृद्धि से उस क्षेत्र की वास्तविक आय बढ़ जाती है। फलस्वरूप पूँजीवादी क्षेत्र के श्रमिक भी अधिक मजदूरी की मांग करने लगते हैं।
  • निर्वाह क्षेत्र से श्रमिक हटाने पर भी उनका कुल उत्पादन बना रहता है तो श्रमिकों की वास्तविक आय बढ़ जाती है जिससे प्रेरित होकर पूँजीवादी क्षेत्र के श्रमिक भी अधिक आय मांगने लगते हैं।
  • पूँजीवादी क्षेत्र के रहन-सहन की ऊँची लागत के कारण सेवायोजन मजदूरी बढ़ा देते हैं।
  • श्रम संघों द्वारा अधिक मजदूरी की मांग के कारण मजदूरी में वृद्धि की जाती है।

प्रो० लुइस का कहना है कि चूँकि पूँजीवादी क्षेत्र में श्रम की सीमान्त उत्पादकता मजदूरी की दर से अधिक होती है इसलिए इस क्षेत्र में अतिरेक पैदा होता है। जिसको निवेश करने से पूँजी निर्माण होता है। इस क्षेत्र में जैसे- जैसे रोजगार बढ़ता जाता है वैसे-वैसे पूँजीपति का अतिरेक भी बढ़ता जाता है। इस अतिरेक नये पूँजी निर्माण क्षेत्र में विनियोजित कर दिया जाता है, जिससे और अधिक लोगों को रोजगार बढ़ता जाता है। यह चक्र तब तक चलता है जब तक कि समस्त अतिरिक्त श्रम को रोजगार नहीं मिल जाता। अर्थात् श्रम की पूर्ति लोचरहित नहीं हो जाती। इस प्रकार विकासशील अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास का मूल सार पूँजी निर्माण के लिए आवश्यक पूँजी अतिरेक के उत्पन्न होने और उनके पुनर्निवेश में निहित है। उसे अग्रांकित चित्र द्वारा और भी स्पष्ट किया जा सकता है।

lewis model of surplus labour

चित्र में रेखा SS1 औसत जीवन निर्वाह मजदूरी और WW1 पूँजीवादी मजदूरी को दिखलाती है। शुरू में पूँजीवादी क्षेत्र में ON1 श्रम के लिए, श्रम की सीमान्त उत्पादकता M1R1 हैं। इस प्रकार WR1M1 पूँजीवाद अतिरेक को दर्शाता है। जब इस अतिरेक को पुनः विनियोजित किया जाता है तो सीमान्त उत्पादकता बढ़कर M2R2 हो जाती है और रोजागर स्तर भी ON2 तक बढ़ जाता है। अब पूँजीवादी अतिरेक बढ़कर WR2M2 है जिसे पुनः विनियोग करने पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता M3R3 बढ़कर और रोजगार बढ़कर ON3 हो जाता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक जीवन निर्वाह क्षेत्र का समस्त अतिरेक श्रम पूँजीवादी क्षेत्र में शोषित नहीं हो जाता।

राज्य तथा निजी पूँजीपतियों का योगदान

इस प्रकार लुइस के मॉडल में राज्य तक ‘निजी पूंजीपतियों द्वारा अर्जित लाभ से ही पूँजी निर्माण की संभावना को दिखाया गया है। लुइस के अनुसार राज्य तथा निजी पूँजीपति पूँजी निर्माण की कुन्जी हैं और श्रम की असीमित पूर्ति की बाधा न होकर पूँजी निर्माण में सहायक सिद्ध होती लुइस के अनुसार इस क्रिया द्वारा 4% या 5% बचत या निवेश करने वाली एक अर्थव्यवस्था अपने आपको 12% से 15% अथवा उससे अधिक ऐच्छिक बचत करने वाली अर्थव्यवस्था में बदल सकती है।

अल्पविकसित देशों में पूँजी निर्माण की समस्या विश्लेषण करते हुए प्रो० लुइस कहते हैं, बचतकर्ता वे लोग है जो लाभ और लगान प्राप्त करते हैं। किन्तु यह वर्ग अधिकांश आय उपभोग और वापर व्यय करते हैं। बचत करने की ओर ध्यान नहीं देते और वेतन तथा मजदूरी प्राप्त करने वाला वर्ग भी राष्ट्रीय आय का केवल 3% या 4% ही बचा पाता है। दूसरा वर्ग भूमिपति, व्यापारी, साहूकार, पुरोहित, सैनिक राजघराने के लोग अनावश्यक उपभोग में अधिक रुचि रखते हैं। राज्य पूँजीपति को चूँकि कराधान द्वारा अतिरिक्त आय प्राप्त हो सकती है। इसे लुइस के अनुसार जब पूँजीनिवेश के अवसर तेजी से बढ़ते हैं तो अतिरेक भी तेजी से बढ़ता है और साथ-साथ पूँजीपति वर्ग का भी विकास होने लगता है।

पूँजी निर्माण प्रक्रिया में बैंक साख

अतिरेक के अतिरिक्त बैंक साख की पूँजी निर्माण में सहायता करता है। बैंक साख के निर्माण से पूँजी निवेश के लिए अतिरिक्त पूँजी प्राप्त होती है जिससे वास्तविक आय में वृद्धि होती है और जिसके फलस्वरूप उत्पादन और रोजगार दोनों में वृद्धि होती है। यद्यपि यह पूँजी निर्माण थोड़े समय के लिए कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि ला सकता है लेकिन लुइस के अनुसार यह एक अस्थायी स्थिति है क्योंकि जैसे- जैसे पूँजीगत उद्योग उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाते जाते हैं वैसे ही वैसे उनकी कीमतें अधिक उत्पादन के कारण गिरने लगती हैं। लुइस के शब्दों में, “यह दशा आत्मविनाश होती है जो अपना विनाश स्वयं कर लेती है। कीमतें बढ़ना अवश्य शुरू होती है किन्तु देर या सबेर बढ़ता हुआ उत्पादन स्फीतिक शक्तियों पर काबू पा लेता है और अन्त में कीमतें उससे भी नीचे आ जाती हैं जितनी कि शुरू में थी।”

विकास प्रक्रिया : कब तक?

प्रो० लुइस ने इस प्रकार की स्थिति पैदा होने के तीन कारण बताये हैं-

  1. पूँजी संचय की गति जनसंख्या की वृद्धि की गति से तीव्र हो जाय जिससे श्रमिकों की संख्या में कमी हो जाय।
  2. प्रति व्यक्ति उत्पादन बढ़ जाय जिसके कारण पूँजीवाद क्षेत्र मजदूरी की दर ऊँची हो जाय और लाभ की मात्रा कम हो जाय।
  3. जीवन निर्वाह क्षेत्र की तुलना में पूँजीवादी क्षेत्र के आकार के अधिक बढ़ जाने के कारण व्यापार की शर्तें पूँजीवादी क्षेत्र के विपरीत हो जाय और पूँजीपतियों को अपने उत्पादन का अधिक भाग श्रमिकों को देने के लिए मजबूर किया जाय। फलस्वरूप लाभ की मात्रा कम हो जाये ।
  4. जब अतिरेक श्रम की मात्रा शून्य हो जाय।
  5. जब निर्वाह क्षेत्र में उत्पादन की नई तकनीकों के कारण उत्पादन बढ़ जाय जिससे पूँजीवादी क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी की दरों में वृद्धि हो जाय।
  6. जब श्रम संघों और राज्य हस्तक्षेप के कारण पूँजीवादी क्षेत्र में मजदूरी की दरें काफी ऊंची हो जायें।
  7. श्रमिक पूँजीवादी जीवन व्यतीत करने का ढंग अपना ले तो इन परिस्थितियों में पूँजी अतिरेक कम हो जायेगा और विकास कार्य रुक जायेगा।

लुइस के श्रम की असीमित पूर्ति सिद्धांत की आलोचनाएँ

लुइस मॉडल की मुख्यतः निम्न तर्कों द्वारा आलोचना की जाती है –

  1. श्रम की पूर्ति-

    लुइस ने श्रम पूर्ति को असीमित माना है, जो कि कुछ अल्पविकसित देशों जैसे लैटिन अमेरिका, पश्चिमी अफ्रीका आदि के लिए ठीक नहीं बैठती क्योंकि इनकी जनसंख्या काफी कम है।

  2. श्रम की गतिशीलता –

    प्रो० मायर के अनुसार श्रम का हस्तांतरण इतना सरल नहीं है जितनी लुइस ने माना है।

  3. तकनीकी योग्यता –

    तकनीकी योग्यता की समस्या एक दीर्घकालीन समस्या है। अतः लुइस की यह धारणा की कुशल श्रम की अड़चन अस्थायी है उचित नहीं है।

  4. उद्यमियों का अभाव –

    अल्पविकसित देशों में इन उद्यमियों का पर्याप्त अभाव रहता है जबकि लुइस यह मानकर चलते हैं कि उन देशों में उद्यमी वर्ग उपस्थिति रहता है।

  5. निवेश गुणक का लागू न होना-

    लुइस यह मानकर चलते हैं कि पूँजीवादी अतिरेक का निवेश पुनः निदेशित होता रहता है किन्तु अल्पविकसित देशों के लिए यह बात पूर्णतया सही नहीं है।

  6. स्थिर मजदूरी की मान्यता

    लुइस की यह वृद्धि प्रक्रिया उस समय तक चलती है जब तक कि मजदूरी की दर स्थिर बनी रहती है परन्तु यह मान्यता अवास्तविक है क्योंकि आर्थिक विकास के साथ-साथ मजदूरी दर में वृद्धि होना आवश्यम्भावी है।

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