असन्तुलित विकास के सिद्धान्त
असन्तुलित विकास के सिद्धान्त
असंतुलित विकास की अवधारणा के अनुसार, “अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में एक साथ निवेश न करके पहले केवल कुछ क्षेत्रों में निवेश करना चाहिए क्योंकि साधन व पूँजी इतने नहीं होते कि सभी क्षेत्रों में एक साथ विनियोग किये जा सके। इसीलिए अल्पविकसित देशों में कुछ चुने हुए प्रमुख क्षेत्रों में निवेश करके उनमें विकास की गति तीव्र की जाती है और उनसे उत्पन्न होने वाली मितव्ययिताओं में वृद्धि होने से अन्य क्षेत्रों का भी विकास होता है। अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे असन्तुलित वृद्धि से सन्तुलित वृद्धि की ओर बढ़ती है। विभिन्न अर्थशास्त्री जैसे सिंगर, किण्डल, वर्गर आदि असन्तुलित विकास पद्धति के पक्ष में अपने विचार प्रकट करते हैं। रोस्टोव व हर्षमैन ने सुनिश्चित रंग से इस पद्धति का प्रतिपादन किया है।
प्रो. हर्षमैन के विचार असन्तुलित आर्थिक विकास के सिद्धान्त को प्रो. हर्षमैन ने विशेष लोकप्रिय बनाया। आपने अपनी पुस्तक The Strategy to Economic Development’ में असंतुलित विकास का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वास्तव में अर्द्धविकसित देशों के लिए असन्तुलित विकास का सिद्धान्त एक महान कुंजी है।
प्रो. हर्षमैन निवेश के क्षेत्र को दो भागों में बांटते हैं-
- सामाजिक उपरि पूँजी तथा
- प्रत्यक्ष उत्पादन क्रियाएँ।
सामाजिक उपरिपूँजी में वे क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं, जिन पर अन्य प्रत्यक्ष क्रियाओं (DPA) में अन्तिम उत्पादन की इकाइयों को जोड़ा जाता है। औद्योगिक क्रियाएँ, शक्ति, सिंचाई, विद्युत, परिवहन साधन आदि पर निर्भर करती हैं।
“सामाजिक उपरिपूँजी” (Soc) में वृद्धि होने से देश की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है जो कि उद्योग के लिए बाह्य मितव्ययिताओं का कारण बनती है। इन बाह्य मितव्ययिताओं का प्रयोग प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं (DPA) में किया जाता है। उदाहरण के लिए परिवहन के साधनों में वृद्धि के फलस्वरूप कई अनेक नई उत्पादन इकाइयों की स्थापना होती है। इसी प्रकार विद्युत तथा शक्ति के साधनों की नियमित पूर्ति औद्योगिक विकास में सहायक होते हैं। दूसरे शब्दों में SOC में निवेश के परिणाम DPA में दृष्टिगोचर होते हैं। SOC व DPA एक-दूसरे के पूरक हैं। SOC की स्थापना का उद्देश्य DPA को प्रोत्साहित करना है। इसी प्रकार DPA में वृद्धि की आवश्यक शर्त SOC का उचित मात्रा में उपलब्ध होना है।
SOC और DPA से सम्बन्धित विकास कार्य दो प्रकार से किये जा सकते हैं-
- SOC की “अतिरिक्त क्षमता” के मार्ग में विकास तथा दूसरा
- SOC की न्यूनतम आय के मार्ग में विकास। दोनों ही क्रमों का एक निश्चित उद्देश्य असन्तुलित विकास द्वारा सन्तुलित विकास की ओर बढ़ाना है।
क्रम (a) में DPA में निवेश SOC की स्थापना के पश्चात् होता है जबकि क्रम (b) में SOC की अपेक्षा DPA में निवेश पहले किया जाता है।
हर्षमैन के अनुसार किसी अल्पविकसित देश को असन्तुलित विकास पद्धति के अन्तर्गत SOC की अतिरिक्त क्षमता के मार्ग विकास” के क्रम को अपनाना चाहिए।
हर्षमैन के इस विचार को निम्न चित्र की सहायता से दर्शाया जा सकता है।

चित्र में OX अक्ष पर DPA निवेश तथा OY अक्ष पर SOC निवेश को माना गया है। वक्र a, b, c, d, “सममात्रा वक्र” है जिसमें से प्रत्येक वक्र DPA और SOC की उन विविध मात्राओं को प्रकट करते हैं जिसमें किसी भी बिन्दु पर राष्ट्रीय आय की मात्रा समान रहती है। जब हम अपेक्षाकृत ऊँचे वक्र पर पहुँच जाते हैं तो राष्ट्रीय आय की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। मूल बिन्दु से गुजरती हुई 45° की रेखा DPA और SOC की सन्तुलित वृद्धि को प्रकट करती है। जब SOC को पहले बढ़ाया जाता है तो अर्थव्यवस्था गहरी रेखा AB,, BB, CC2, D का अनुसरण करती है। यदि DPA अर्थव्यवस्था को पहले बढ़ाती है तो यह बिन्दु अंकित रेखा AB, BC, C, D, D का अनुसरण करती है। SOC में निवेश ऐसे असन्तुलनों की कड़ियों को बढ़ावा देता है जो आर्थिक विकास की प्रेरक होती है। असन्तुलन की एक कड़ी विकास को प्रोत्साहित करती है परिणामस्वरूप नवीन असन्तुलन की कड़ी उदित होती है फिर आर्थिक विकास होता है और प्रक्रिया बराबर विकास को जन्म देती रहती है।
हर्षमैन के अनुसार, “एक आदर्श स्थिति तब प्राप्त होती है जब एक असन्तुलन में विकास को गति मिलती है जो कि प्रतिफल में समान असन्तुलन को जोर देती है और यही क्रिया अनन्त काल तक चलती रहती है। यदि असन्तुलित विकास की ऐसी कड़ी को स्थापित किया जा सके तो आर्थिक नीति के निर्माता पुराने अनुभवों से क्रियाओं को देख सकते हैं।”
असन्तुलित विकास की मुख्य बातें
- यह पद्धति ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक व्यावहारिक और मान्य है क्योंकि यह पूर्व में होने वाले प्रगति को लक्षित करता है।
- यह सिद्धान्त बड़े धक्के के सिद्धान्त को स्वीकार करता है और देश की अर्थव्यवस्था का विनियोग बड़े पैमाने पर होना आवश्यक मानता है।
- यह पद्धति प्रोत्साहनों और दबावों पर निर्भर करती है।
- इस सिद्धान्त में कड़ियों की श्रृंखला जो असन्तुलन बनाती हैं, पर जोर दिया गया है।
- यह पद्धति स्वतन्त्र मूल्य नीति पर आधारित नहीं है।
- इस पद्धति के अनुसार Strategic Section के आवश्यक और अधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर जोर दिया गया है।
इन्हीं कारणों से इस पद्धति का लाभ यह है कि कम समय में अधिक उन्नति हो जाती है और पूँजीगत वस्तुओं के उद्योग की स्थापना के कारण विकास तेजी से होने लगता है।
सन्तुलित और असन्तुलित संवृद्धि में अन्तर
सन्तुलित और असन्तुलित संवृद्धि में अन्तर निम्न प्रकार हैं
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क्षेत्रों का विकास –
सन्तुलित संवृद्धि सिद्धान्त अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों की संवृद्धि पर एक साथ जोर देता है जबकि असन्तुलित संवृद्धि सिद्धान्त अर्थव्यवस्था के कुछ चुने हुए क्षेत्रों के विकास पर जोर देता है।
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विनियोग मसि-
सन्तुलित संवृद्धि सिद्धान्त को लागू करने में भारी राशि विनियोजित करने की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि यह सभी क्षेत्रों की एक साथ संवृद्धि करने की वकालत करती है। इसके विपरीत, असन्तुलित संवृद्धि को लागू करने में व्यय-पूँजी निवेश की आवश्यकता होती है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था अग्रणी क्षेत्रों के ही संवृद्धि की बात करता है।
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रणनीति की अवधि-
सन्तुलित विकास दीर्घकालीन रणनीति को अपनाता है जबकि असन्तुलित संवृद्धि अल्पकालीन रणनीति पर आधारित होता है।
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बाजार का आकार –
सन्तुलित संवृद्धि सिद्धान्त के अनुसार, बाजार का आकार मुख्य बाधा होती है जबकि असन्तुलित संवृद्धि में यह निर्णय की कमी माना जाता है।
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संवृद्धि दरों-
संतुलित संवृद्धि में, विकास धीरे-धीरे मधुरतम तथा संगत रूप में होता है जबकि असन्तुलित संवृद्धि में अंसगति पायी जाती है तथा संवृद्धि दर असमान तथा गैर-क्रमिक होती है।
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कमी की समस्या –
सन्तुलित विकास स्वल्पता को ध्यान में रखता है जबकि असन्तुलित संवृद्धि इन स्वल्पताओं को विशिष्ट रूप से ध्यान में रखता है।
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पूरक बनाम प्रतियोगी-
सन्तुलित संवृद्धि यह मान लेता है कि उद्योग एक-दूसरे के पूरक है जबकि असन्तुलित संवृद्धि यह मानता है कि उद्योग एक-दूसरे के प्रतियोगी है।
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बाधाओं का बिखराव-
सन्तुलित संवृद्धि में, अवरोध सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में फैले होते हैं तथा वे आर्थिक संवृद्धि में अड़चन पैदा करते हैं जिसके विपरीत असन्तुलित संवृद्धि सिद्धान्त में माना जाता है कि ये अवरोध अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में संकेन्द्रित हैं तथा ये आविष्कार तथा नवप्रवर्तन के लिए पर्याप्त प्रेरणा प्रदान करते हैं।
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