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जनसंख्या एवं पर्यावरण- जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ

जनसंख्या एवं पर्यावरण

जनसंख्या एवं पर्यावरण

वर्तमान समय में भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हो रही है। बढ़ती हुई आबादी के कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने लगा है। अधिक जनसंख्या से अधिक भोजन की मांग बढ़ती है। आवास की समस्या उत्पन्न होती है। इन बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि योग्य भूमि तथा वनों की निर्मम ढंग से कटाई हो रही है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रहा है। प्रकृति का स्वरूप विकृत होता जा रहा है। हक्सले ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ (Brave New World) में लिखा है कि संसार के सामने दो सबसे खतरे हैं। एक बढ़ती जनसंख्या और दूसरा सभ्यता का यंत्रीकरण । जिस तीव्रता से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है उसमें यदि रोक न लगी तो अगले ही कुछ वर्षों में मनुष्य के निर्वाह का प्रश्न जटिल हो जाएगा। अमेरिका के पर्यावरण वैज्ञानिक डेविड टिलमैन के अनुसार – “यदि प्रदूषण की वर्तमान स्थितियाँ विद्यमान रहीं तो इसमें सर्वाधिक प्रभावित होने वाला क्षेत्र है कृषि। अगले 50 वर्षों में सिंचाई में काम आने वाले जल का अधिकतर इस्तेमाल पीने में किया जाएगा। कीटनाशकों का प्रयोग लगभग दो गुना हो जाएगा तथा मनुष्य को उन सुविधाओं को भी कृत्रिम रूप से तैयार करना पड़ेगा जो अब तक प्रकृति से मुफ्त उपलब्ध है।

विश्व स्तर पर जनसंख्या वृद्धि पर चिन्तन करते हुए National Academy of Sciences, U.S.A., 1989 ने अपने ब्रोशर कॉमन फ्यूचर ग्लोबल चेन्ज एण्ड कॉमन बुलर में लिखा है कि, “जनसंख्या वृद्धि संभवतः एक मुख्य, एकमात्र कारण है जिससे पर्यावरणीय संकट में वृद्धि होती है जिसमें संसाधन और शक्ति का ह्रास तथा ठोस, द्रव, गैस और तापीय अपशिष्ट की अत्यधिक वृद्धि सम्मिलित है।” जनसंख्या वृद्धि के प्रभाव के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित मानव पर्यावरण पर अन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस (1972) में स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था- “अधिक जनसंख्या गरीबी को बुलावा देती है और गरीबी प्रदूषण को जन्म देती है।”

जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। जल, मृदा, वायु, ध्वनि प्रदूषण की समस्या का मुख्य कारण जनाधिक्य ही है। जनसंख्या वृद्धि और नगरों की ओर पलायन के कारण झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या बढ़ रही है। यातायात के साधनों की वृद्धि के फलस्वरूप वायु और ध्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है। निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन बढ़ाने, कीटनाशकों और विषैले रासायनिकों के प्रयोग, आवासीय सुविधा उपलब्ध कराने, कल-कारखानों की स्थापना के लिए कृषि योग्य भूमि और वनों का विनाश किया जा रहा है। प्रति वर्ष वनस्पति और जीव जगत की अनेक प्रजातियों का लोप होता जा रहा है। इस प्रकार तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए जा रहे प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से अनेकानेक दीर्घकालिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।

जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ

जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं।

  1. वनों के विनाश की समस्या

    बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के मानव द्वारा वनों को तेजी से काटकर कृषि योग्य भूमि बढ़ाई जा रही है। ग्रामीण जनता के भोजन पकाने के लिए मकानों के निर्माण के लिए लकड़ी प्राप्त के लिए वनों को तेजी से काटा जा रहा है जिससे हमारे देश की भूमि का प्रतिशत 23 प्रतिशत से गिरकर 12 प्रतिशत रह गया है। वनों के विनाश का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे बाढ़, भूमि का कटाव, वन सम्पदा की हानि जैसी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। वनों को कटने जीव-जन्तुओं के अस्तित्व पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वनों के बने रहने से वायु प्रदूषण कम होता है और सामान्य वर्षा होने से सहायता मिलती है।

  2. शुद्ध वायु की समस्या

    वायु के बिना किसी भी जीव का जीवन सम्भव नहीं है। बढ़ती हुई जनसंख्या एवं औद्योगीकरण के कारण वायु में शुद्धता नहीं रही। आधुनिक युग में विभिन्न प्रकार के उद्योगों से धुएँ के रूप में अनेक विषाक्त गैसें निकलती हैं जो वायुमण्डल को प्रदूषित कर देती हैं। वायुमण्डल में लाभदायक गैसें जैसे – ऑक्सीजन आदि की कमी हो रही है। वायुमण्डल में ऑक्सीजन के कम होने तथा कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ने से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। अगर कार्बन डाईऑक्साइड का वायुमण्डल में इसी प्रकार बढ़ना जारी रहा तो ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण पृथ्वी का तापक्रम6 सेल्सियस बढ़ जाने की आशंका है जिससे जनजीवन के अस्त-व्यस्त हो जाने का खतरा है।

  3. शुद्ध जल की समस्या

    प्राकृतिक संसाधनों में जल एक महत्वपूर्ण घटक है जिसका उपयोग पृथ्वी एवं वायुमण्डल में उपस्थित सभी जीव करते हैं। विश्व धरातल के सम्पूर्ण क्षेत्रफल पर 70 प्रतिशत जल उपलब्ध है किन्तु आज अधिकांश मनुष्यों, जानवरों तथा पौधों को विशुद्ध जल दुर्लभ हो गया है। भारत में गंगा, यमुना, गोमती आदि सभी नदियों का जल प्रदूषित हो गया है। फलस्वरूप भारत लगभग3 प्रतिशत जनसंख्या प्रदूषित जल पीने को बाध्य हो गयी है। प्रदूषित जल के सेवन से अनेकानेक रोग उत्पन्न होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष 20 लाख व्यक्ति दूषित जल पीने के कारण मर जाते हैं।

  4. मृदा प्रदूषण एवं मृदा अपरदन

    बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्यान्नों की मांग की पूर्ति हेतु कृषि उपज बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के उर्वरकों का प्रयोग बहुतायत में किया जा रहा है। उर्वरक की अधिकता से खेतों की मृदा का प्रदूषण हो रहा है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। जनसंख्या विस्फोट ने मृदा संसाधनों को बुरी तरह प्रभावित किया है। ईंधन और चारे की बढ़ती मांग, पेड़-पौधे तथा वनों की अंधाधुंध कटाई से मृदा अपरदन में वृद्धि हुई है। मृदा की गुणवत्ता में ह्रास हुआ है। इसके अतिरिक्त अधिक संख्या में आवश्यक भवनों के निर्माण हेतु आवश्यक मिट्टी के लिए अत्यधिक मृदा का ज़माव बढ़ता जाता है जिससे इसकी जल धारण क्षमता कम होती जाती है।

  5. ध्वनि प्रदूषण

    जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप अधिक कल, कारखानों का विकास, परिवहन के साधनों, वायुयान, मोटर, रेलगाड़ी, स्कूटर, कारों आदि के आधिक्य एवं लाउडस्पीकरों के अधिक प्रयोग के कारण ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है। तीव्र ध्वनि के कारण नींद न आना, बहरापन, उच्च रक्तचाप, चिड़चिड़ापन जैसी बीमारियों के साथ सोचने-समझने की क्षमता का ह्रास एवं स्मरण शक्ति में कमी हो जाती है।

  6. अम्ल वर्षा

    जनसंख्या वृद्धि एवं औद्योगीकरण के कारण विभिन्न प्रकार के उद्योग, यातायात के साधन, ऊष्मीय विद्युत गृह में विभिन्न प्रकार के ईंधन का दहन होता है जिससे विभिन्न प्रकार की गैसें जैसे- सल्फर डाईऑक्साइड, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड आदि उत्सर्जित होती हैं। वायुमण्डल में मिल जाती हैं। जब ये गैसें वायुमण्डल जलवाष्प से सम्पर्क में आती हैं तो अम्ल में बदल जाती हैं जिससे वर्षा का पानी अम्लीय हो जाता है। अम्लीय वर्षा पेड़-पौधों, मिट्टी एवं वनों के विकास के लिए घातक है। अम्लीय वर्षा प्राणि मात्र के लिए अत्यधिक हानिकारक होती है इससे दमा, खांसी, फेफड़े का रोग हो जाता है।

पर्यावरण का आर्थिक विकास पर प्रभाव

पर्यावरण और आर्थिक विकास का बहुत गहरा सम्बन्ध है। पर्यावरण की व्यवस्थित संरचना विकास का पर्याय माना जाता है। हमारे धर्मशास्त्रों में पर्यावरण को ईश्वरीय विधान माना गया है। जब पर्यावरण अच्छा होगा तब आर्थिक संवृद्धि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जायेगी। पर्यावरण के आधार स्तम्भ पर ही विकास की नींव निर्भर है। भारतीय कृषि व्यवस्था पर्यावरण के अभाव में पनप ही नहीं सकती। पर्यावरणीय व्यवस्था पर उद्योगों की निर्भरता है। उत्तम प्रकार का पर्यावरण श्रेष्ठता का परिचायक है। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता उद्योगों के विकास के लिए सहायक है। प्रदूषित पर्यावरण विपत्तियों का आह्वान है। भारत में समस्त प्रकार के खनिज अवयव पाये जाते हैं जिसकी निर्भरता पर्यावरण पर है।

भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि व्यवस्था का मूलाधार वर्षा है। बिना पर्यावरण के वर्षा सम्भव नहीं है। अतः हम कह सकते हैं कि अर्थव्यवस्था तभी फलदायी होगी जब पर्यावरण श्रेष्ठ होगा।

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