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अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास का पर्यावरण पर प्रभाव

आर्थिक विकास का पर्यावरण पर प्रभाव

अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास का पर्यावरण पर प्रभाव

मानव अपने जीवन के लिये, जो दैनिक आवश्यकताएँ हैं उनकी पूर्ति के लिये प्रकृति पर निर्भर रहता है। दिनों दिन बढ़ती जा रही मानवीय आवश्यकता एवं उनकी पूर्ति के लिये हो रहे निरन्तर विकास के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी तेजी से बढ़ता जा रहा है जिसके फलस्वरूप प्रकृति अपना सन्तुलन बनाए रखने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रही है। प्रकृति में असन्तुलन का प्रत्यक्ष प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। प्रकृति में असन्तुलन का तात्पर्य है पर्यावरण में असन्तुलन अर्थात् पर्यावरणीय गुणों में ह्रास।

आर्थिक विकास के फलस्वरूप निम्नलिखित पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

  1. वन विनाश का पर्यावरण पर प्रभाव

    आर्थिक विकास के लिये मानव को विस्तृत भूमि की आवश्यकता होती हैं। भूमि प्राप्त करने के लिये वनों को काटना आवश्यक हो जाता है। भारत में वनों के विनाश का क्रम मानवीय क्रियाकलापों के विस्तार से प्रारम्भ हुआ है। बढ़ती जनसंख्या को कृषि भूमि, आवास, उद्योग, परिवहन, आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये वनों को साफ किया जाने लगा है। वन विनाश का सबसे अधिक दुष्परिणाम पर्यावरणीय व पारिस्थितिकी असन्तुलन है। वनों के होने से उनमें स्थित प्राणियों के निवास स्थल भी नष्ट हो गये। अतः भारत की जैव विविधता पर संकट आ गया। वनस्पति व प्राणियों की अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गयी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। वनों के विनाश के परिणामस्वरूप वायुमण्डल में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसों की मात्रा में निरन्तर वृद्धि, भूक्षरण, हिमस्खलन, अनावृष्टि, बाढ़, मरुस्थलीयकरण आदि पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि होगी।

  2. उत्खनन का पर्यावरण पर प्रभाव

    आर्थिक विकास को गति देने के लिये औद्योगीकरण आवश्यक है और उद्योगों की स्थापना के लिये खनिज पदार्थों का उत्खनन अत्यावश्यक है। विश्व के विभिन्न देशों में खनन संसाधनों को प्राप्त करने के लिये उत्खनन होता है। उत्खनन के दौरान वायु प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण अत्यधिक होता है। उत्खनन के पश्चात् बेकार छोड़े गये पदार्थ अन्य किसी उपयोग में नहीं आते। जहाँ मलवा डाला जाता है उसके नीचे की भूमि बेकार हो जाती है। जब उत्खनन सघन वन क्षेत्रों में संचालित होता है तो अमूल्य वन सम्पदा नष्ट हो जाती है।

  3. औद्योगीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव

    आर्थिक विकास का आधार औद्योगीकरण है आर्थिक प्रगति के लिये औद्योगिक विस्तार एवं औद्योगीकरण आवश्यक है किन्तु औद्योगिक इकाइयों की स्थापना के लिये विस्तृत भूखण्ड की प्राप्ति के लिये पहले वन विनाश किया जाता है। उत्पादन इकाइयों से वांछित उत्पादन के अतिरिक्त हानिकारक अवशिष्ट पदार्थ, प्रदूषित जल, जहरीली गैस, रासायनिक अवशेष, धूल, राख, धुआं आदि भी निकलते हैं। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले प्रदूषक जल, वायु, मिट्टी में मिलकर मिट्टी को प्रदूषित करते हैं और पर्यावरण को भी बिगाड़ देते हैं। इस तरह पर्यावरणीय प्रदूषण का या संकट का दूसरा कारण तीव्र औद्योगिक विकास है। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् पहले यूरोप में बाद में विश्व के अन्य भागों में उद्योगों की स्थापना बड़े पैमाने पर हुयी है। उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से दोहन होने लगा है। तीव्र औद्योगीकरण से लोगों का जीवन स्तर तो बढ़ा है किन्तु पर्यावरण की अत्यधिक हानि हुई है। औद्योगीकरण से वनों का विनाश हुआ है साथ ही उद्योगों में निकलने वाले हानिकारक पदार्थों से प्रदूषण, जल संकट, अति नगरीकरण आदि समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

  4. तीव्र तकनीकी विकास

    पर्यावरण संकट का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि 20वीं शताब्दी में औद्योगिक विकास के कारण विज्ञान एवं तकनीकी विकास भी तेजी से हुआ है। मानव ने तकनीकी के क्षेत्र में जो प्रगति की उसे तकनीकी क्रान्ति कहा जाता है। इसका लाभ उद्योग, कृषि, परिवहन, चिकित्सा आदि विभिन्न क्षेत्रों को प्राप्त हुआ है। किन्तु नई तकनीक से निर्मित विभिन्न उपभोक्ता सामग्री मानव स्वास्थ्य तथा पर्यावरण पर बुरा प्रभाव डाल रही है। तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप प्लास्टिक, कृत्रिम रेशा, कृत्रिम रबर, कृत्रिम उर्वरक, कृत्रिम घास इत्यादि अनेक संश्लिष्ट पदार्थ दैनिक जीवन में प्रयुक्त किये जा रहे हैं। इसके प्रयोग से जहाँ प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव कम हुआ है वहीं अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। प्रकृति में अपघटन न होने के कारण प्लास्टिक के कचरे का निपटान मानव के समक्ष एक चुनौती बन गया है। इसका मानव के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है। आणविक विस्फोटों व घातक हथियारों से विश्व पर्यावरण को सर्वाधिक खतरा है।

  5. अनियोजित विकास

    अनियोजित विकास पर्यावरणीय स्थिति को खतरनाक बना देता है और समाज को पारिस्थितिकीय संकट के कगार पर खड़ा कर देता है। विकसित देश अपने विकास की दिशा का निर्धारण करते समय विभिन्न प्रकार की सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों का अध्ययन करते हैं। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ औद्योगीकरण को योजना का प्रमुख अंग बनाया गया है, किन्तु उसका नियंत्रण कैसे और कौन करे, वह किस कीमत पर उपलब्ध होता है और निकट भविष्य में उसके क्या परिणाम हो सकते हैं, आदि प्रश्नों पर विचार नहीं किया जाता है। हमारे शहरों का अनियंत्रित विकास, शहरों में आबादी का संक्रेन्द्रण, गाँवों से शहरों की ओर बढ़ता पलायन आदि कारकों में वृद्धि से पारिस्थितिकीय पक्षों पर बहुत अधिक दबाव पड़ रहा है। शहरों की इस तरह की सामाजिक-आर्थिक दशाओं से व्यक्तियों का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। यही कारण है कि अब पारिस्थितिकीय दृष्टि से सबसे ज्यादा हानिकारक उद्योगों का सामाजिक विरोध किया जा रहा है।

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