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विश्व में वर्षा का प्रादेशिक वितरण

विश्व में वर्षा का प्रादेशिक वितरण

विश्व में वर्षा का प्रादेशिक वितरण (Regional Distribution of Rainfall in the World)

विश्व में वर्षा का वितरण तापमान व वायुदाब की अपेक्षा अधिक जटिल है, क्योंकि इसे प्रभावित करने वाले कारक बहुत भिन्न तथा जटिल हैं। क्षेत्रीय दृष्टि से भूमध्य रेचा के निकटवर्ती भाग में सर्वाधिक वर्षा, उपोष्ण कटिबन्ध में कम वर्षा तथा शीत कटिबन्ध में अत्यल्प वर्षा होती है। उष्ण कटिबन्ध में महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों की अपेक्षा पूर्वी किनारों पर अधिक वर्षा तथा आन्तरिक भागों की तुलना में समुद्रतटीय भागों में अधिक वर्षा होती है। पर्वतीय भागों के पवनाभिमुखी ढ़ालों (Wind Ward Slopes) पर अधिक वर्षा तथा पवन विमुख (Lech Ward Slopes) ढालों पर कम वर्षा होती है।

वर्षा के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक

(Factors Affecting Distribution of Rainfall)

वर्षा के जटिल व असमान वितरण के लिए निम्न कारण उत्तरदायी हैं-

  1. अक्षांश

    धरातल पर वर्षा का असमान वितरण आरोही वायुराशियों के रुद्घोष्म शीतलन द्वारा उत्पन्न होता है। शीतलन में संघनन में अवक्षेपण की क्रियाएँ होती हैं। जिन अक्षांशों में पवनों का क्षैतिज अभिसरण होता है, वहीं पर वायुराशियों का आरोहण, सम्भव है। इसीलिये अभिरण पेटियां अधिकतम वर्षा की पटरियां होती हैं। इसके विपरीत उन अक्षांशों में, जहां वायु का अवतलन तथा पवनों का अपसरण होता है, कम वर्षा वाले या वृष्टि रहित क्षेत्र होते हैं। वायु के अभिसरण के कारण भूमध्य रेखा के आस-पास अधिकतम वृष्टि की एक पेटी मिलती है। इस पेटी में उत्तरी पूर्वी प्रशान्त महासागरीय तथा दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों का अभिसरण होता है। डोलड्रम पेटी के मौसमी खिसकाव के साथ सन्मार्गी पवनों के अभिसरण की पेटी भी कभी विषुवत रेखा के उत्तर तथा कभी दक्षिण खिसकती रहती है। विषुवत रेखा के दोनों ओर 10 अंश अक्षांशों में एक चौड़ी पेटी में धरातल पर सर्वाधिक वर्षा होती है।

उपोष्ण कटिबन्धीय उच्च वायु की पेटी में वायु का अवतलन होने से धरातल के निकट प्रति चक्रवातीय दशाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन क्षेत्रों में सबसे कम वर्षा होती है। इन अक्षांशों में वायुमण्डल में स्थायित्व होने से मेघ निर्माण नहीं होता, जिससे वृष्टि नहीं हो पाती।

उच्च वायु भार वाली ध्रुवीय पेटी की ओर दोनों गोलार्द्ध में पछुआ पवनों का प्रभाव मिलता है। इस क्षेत्र में वायुराशियों के मिश्रण से चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात उत्पन्न होते हैं। सम्पूर्ण वायुमण्डलीय परिसंचरण व्यवस्था चक्रवातों के रूप में पायी जाती है। इस क्षेत्र में चक्रवातीय या वाताग्री वृष्टि (Frontal Rainfall) होती है। इस पेटी में होने वाली वृष्टि का वार्षिक औसत 100 से 125 सेमी0 है। 50°-55° अक्षांशों से ध्रुवों की आरे ध्रुवीय पूर्वी पवनों की पेटी है जिसमें वायु के अवतलन तथा न्यून ताप के कारण वृष्टि की सम्भावना कम हो जाती है।

  1. जल एवं थल का विवरण-

    धरातल पर वर्षा के वितरण को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्वपूर्ण कारक जल एवं थल का वितरण है। स्थल से आने वाली वायु शुष्क होती हैं, जबकि महासागरों से चलने वाली वायु आर्द्रता युक्त होती है। वार्षिक वर्षा का 19 प्रतिशत स्थल भाग पर तथा शेष 81 प्रतिशत महासागरों पर गिरता है। जो स्थान समुद्र से निकट होते हैं वे अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत महाद्वीपों के आन्तरिक भाग समुद्र से दूर होने के कारण बहुत कम वर्षा प्राप्त कर पाते हैं। वर्षा के वितरण पर स्थल भाग का स्पष्ट प्रभाव एशिया महाद्वीप में दिखाई देता है जहां ईरान, अफगानिस्तान तथा अरब मरुप्रदेश में नाममात्र की वर्षा होती है। ये सभी भाग समुद्र से पर्याप्त दूर हैं। इसी प्रकार उत्तरी मैक्सिको तथा दक्षिणी-पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका के शुष्क प्रदेश महाद्वीपीय प्रभाव के स्पष्ट उदाहरण हैं। दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमेरिका के उपोष्ण कटिबन्धीय पेटी के पश्चिमी भाग महाद्वीपीय प्रभाव के कारण ही वृष्टि रहित है। जिन महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में पर्वतीय अवरोध हैं, वहां आन्तरिक क्षेत्र अधिक शुष्क हैं।

  2. पर्वतीय अवरोध-

    वर्षा के वितरण पर पर्वतों तथा पठारों की अवस्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। ऊंचे पर्वत तथा पठार वाष्प युक्त पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। अवरोध के कारण पवने ऊपर उठती हैं और ऊंचाई पर जाकर संघनन क्रिया को प्राप्त होती हैं, जिससे वर्षा होने लगती हैं। इन भौतिक अवरोधों के कारण वायु सम्मुख ढालों (Wind Ward Slopes) पर वर्षा अधिक तथा विमुख ढालों (Lee Ward Slopes) पर कम वर्षा होती है। पवन विमुख ढालों को ‘वृष्टि छाया प्रदेश’ (Rain Shadow Region) कहा जाता है।

पृथ्वी पर वर्षा का कटिबन्धीय वितरण

(Zonal Distribution of Rainfall on the Earth)

पीटरसन (Pettersen) के अनुसार पृथ्वी तल पर वर्षा की जात प्रमुख पेटियां पायी जाती हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

  1. भूमध्य रेखीय पेटी (Equatorial Belt)-

    इस पेटी का विस्तार भूमध्य रेखा के उत्तर एवं दक्षिण 10° अक्षांशों तक है। वर्षा की यह पेटी (Regime) वर्ष भर में विषुवत रेखा के दोनों ओर स्थानान्तरित होती रहती है। अटलांटिक व प्रशान्त महासागर के पूर्वी भाग में इस प्रकृति का स्थानान्तरण नगण्य होता है तथा इसका विस्तार 10°अक्षांश से अधिक नहीं होता। भूमध्य रेखीय पेटी में दक्षिणी अमेरिका की अमेजन घाटी, मध्य अमेरिका का वायु अभिमुख तटवर्ती क्षेत्र, अफ्रीका में कांगो बेसिन का मध्यवर्ती भाग, न्यूगिनी, फिलीपाइन्स तथा मेडागास्कर के पूर्वी तटीय भाग शामिल हैं।

भूमध्य रेखीय पेटी अन्य सभी पेटियों की अपेक्षा अधिक वर्षा प्राप्त होती है। अधिकांश क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सें. मी. से अधिक रहती है। प्रतिदिन दोपहर के बाद संवाहनीय धाराओं से वर्षा होती है। वर्षा की प्रकृति मूसलाधार होती है। वृष्टि मेघ गर्जन तथा विद्युत-चमक के साथ होती है। रात्रि में आकाश स्वच्छ हो जाता है तथा तारे दिखाई पड़ते हैं।

महाद्वीपों के पूर्वी तटवर्ती भागों में, जहां मानसूनी पवनों का प्रभाव है अधिक समय तक अधिक वर्षा होती है। पूर्वी द्वीप समूह में वर्षा का वितरण एवं उसकी मात्रा में अधिक जटिलता है, जहां वर्षा का औसत 250 सेमी. है तथा वर्ष के प्रत्येक माह में थोड़ी बहुत वर्षा अवश्य होती है। दक्षिणी अमेरिका के विषुवतीय क्षेत्र में पूर्वी तथा पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों की वर्षा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। पश्चिमी तटवर्ती भाग में वार्षिक वर्षा का औसत 25 सेमी. तथा अमेजन नदी के मुहाने के समीपवर्ती क्षेत्रों में 200 सेमी. से अधिक है। कांगो बेसिन में वर्ष में दो बार अधिकतम वर्षा होती है जहां पर वार्षिक औसत भी 150 सेमी. से अधिक नहीं है। प्रशान्त महासागर में स्थित विभिन्न द्वीपों में भी वर्षा की मात्रा तथा ऋतु में अन्तर मिलता है।

  1. व्यापारिक या सन्मार्गी पवनों की पेटी (Trade Wind Belt)-

    उपोष्ण कटिबन्धीय उच्च वायुभार पेटी में उत्पन्न पवनें प्रायः शुष्कं रहती हैं। इन अक्षांशों में धरातल से वायु का आरोहण उस ऊंचाई तक नहीं हो पाता, जहां संघनन प्रारम्भ हो सके। व्यापारिक पवनें जब भूमध्य रेखा की ओर चलती हैं तो निरन्तर अधिक गर्म प्रदेशों की ओर जाने से उनकी शुष्कता में वृद्धि होती जाती है। विश्व के अधिकांश गर्म मरुस्थल सम्मार्गी पवनों की पेटी में स्थित हैं। अफ्रीका के सहारा व कालाहरी मरुस्थल, एशिया में अरब व थार मरुस्थल तथा दक्षिणी अमेरिका के पीरू व चिली के मरुस्थल सन्मार्गी पवनों के क्षेत्र में स्थित हैं। इन अक्षांशों में वायु का अवतलन तथा पवनों का अपसरण (divergence) होता है जिससे वायु का आरोहण नहीं होता। इन अक्षांशों में स्थित स्थल खण्डों के पूर्वी व पश्चिमी किनारों की जलवायु में भारी अन्तर पाया जाता है। पश्चिमी भाग शुष्क रहते हैं तथा पूर्वी भाग उष्णार्द्र पवनों से भारी वर्षा प्राप्त करते हैं।

  2. मानसूनी पवनों की पेटी (Monsoon Belt)-

    इस पेटी का विस्तार 200 से 40° अक्षाशों के मध्य मिलता है। मानसूनी हवाओं की पेटी में ग्रीष्मकाल के 4-5 महीनों में वर्षा होती है, जबकि शीत ऋतु शुष्क रहती है। मुम्बई में वर्षा का जून से सितम्बर तक का औसत 190 सेमी. तथा दिसम्बर से मार्च तक का औसत 5 सेमी. रहता है। मानसूनी पवनों की पेटी में वर्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वर्षा की मात्रा व समय में अनिश्चितता है। कभी-कभी लम्बी अवधि वाली अतिवृष्टि या अनावृष्टि से घोर संकट उत्पन्न हो जाता है। कभी बाढ़ से अपार क्षति तथा कभी अवर्षण या सूखे (Drought) से अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ग्रीष्मकाल में महासागरों की ओर से आने वाली वाष्पयुक्त पवनों से भारी मात्रा में वर्षा होती है। अधिकांश वर्षा पर्वतकृत/ उच्चावच वर्षा है। शीत ऋतु में चक्रवातीय वर्षा होती है। एशिया में मानसून पवनों में सामयिकता (Periodicity) बहुत अधिक पायी जाती है। भारत में सम्पूर्ण वर्षा का 50 प्रतिशत ग्रीष्मकाल में तथा चीन में सम्पूर्ण वृष्टि का 90 मई सितम्बर तक के इन पांच महीनों में ही प्राप्त हो जाता है।

  3. पछुआ पवनों की पेटी (Westerly Wind Belt)-

    पछुआ पवनों की पेटी (40° 65° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्द्ध) में वर्ष भर प्रत्येक माह में वर्षा होती है। शीतकाल में चक्रवातों की संख्या अधिक होने से चक्रवातीय अथवा वाताग्री (Frontal) वर्षा होती है, जिसका प्रभाव महासागरों एवं महाद्वीपों के पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों पर अधिक पड़ता है। ग्रीष्मकाल में धरातल के ऊष्मा से वायु की परतों में जलवाष्प ग्रहण करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है जिससे ग्रीष्म ऋतु में भारी वर्षा होती है। ग्रीष्मकालीन वृष्टि का औसत शीतकालीन वर्षा से अधिक होता है। बसन्त ऋतु में कम वर्षा होती है। शीतकाल में वृष्टि हिम के रूप में होती है।

  4. भूमध्यसागरीय प्रदेश (Mediterranean Region)-

    इस प्रदेश की स्थिति 30° से 45° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलाद्धों में है। भूमध्यसागर के निकटवर्ती भाग, कैलिफोर्निया, मध्य चिली, दक्षिणी-अफ्रीका का दक्षिणी-पश्चिमी भाग तथा पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया का दक्षिणी-पश्चिमी भाग इसमें सम्मिलित हैं। ये क्षेत्र शीत ऋतु में पछुआ पवनों की पेटी तथा ग्रीष्म ऋतु में व्यापारिक पवनों की पेटी में आ जाते हैं। शीत ऋतु में चक्रवातों द्वारा भूमध्यसागरीय प्रदेश में वर्ष भर में केवल तीन महीने वर्षा होती है। ग्रीष्मकाल में सन्मार्गी पवनें चलने के कारण वर्षा नहीं होती हए ।

  5. स्टेप्स प्रदेश (Steppes Region)-

    इस प्रदेश के अन्तर्गत भूमध्यसागर के निकट स्थित दक्षिण-पूर्वी रूस, तुरान, टर्की तथा उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी प्रदेश आते हैं। इन प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु शुष्क होती है तथा बसन्त ऋतु एवं ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में वर्षा होती है। एशिया महाद्वीप के स्टेप्स प्रदेश में पवनों की दिशा उत्तर तथा उत्तर-पूर्व होती है। ये स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं। शीतकाल में तापमान की कमी के कारण धरातल की पवनें गर्म होकर वायुमण्डल में ऊपर नहीं जा पाती जिससे संवाहनीय धाराएं निर्मित नहीं होती। बसन्त ऋतु में भूमध्यसागरीय चक्रवातों के आगमन के साथ थोड़ी वर्षा इन प्रदेशों में हो जाती है। ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में धरातल के गर्म होने तथा ऊपरी वायुमण्डल में तापमान में कमी के कारण संवाहनीय धाराएँ उत्पन्न होकर काफी ऊँचाई तक उठ जाती हैं, जिससे थोड़ी संवाहनीय वर्षा हो जाती है। शीतकाल में हिमपात होता है।

  6. ध्रुवीय प्रदेश (Polar Region)-

    66° से 90° अक्षांशों तक दोनों गोलादों में ध्रुवीय प्रदेश स्थित हैं। इस क्षेत्र में वर्ष भर तापमान कम रहता है तथा प्रति चक्रवातीय दशाएँ पायी जाती हैं। थोड़ी वर्षा हिम के रूप में होती है। क्रिचफील्ड के अनुसार ध्रुव प्रदेश में वर्षा का वार्षिक औसत 35 सेमी. से कम रहता है। ग्रीष्मकाल में यहां तूफानों के द्वारा वायु में जलवाष्प की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक हो जाती है। शीत ऋतु में अण्टार्कटिकां बहुत अधिक ठण्डा हो जाता है। तटवर्ती भागों में ग्रीष्मकालीन औसत तापमान हिमांक से भी नीचे रहता है। मध्यवर्ती पठारी भागों का तापमान तो और भी नीचा हो जाता है। थोड़ी वर्षा हिमचूर्ण (Ice Powder) के रूप में होती है।

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