उद्योग-धंधों के स्थानीयकरण के कारक

उद्योग के स्थानीयकरण के कारक

भारतीय उद्योग धंधों का इतिहास वैदिक युग से प्रारंभ होता है जिसका उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा अनेक विदेशी यात्रियों के विवरणों में प्राप्त होता है किंतु विदेशी शासन-काल में यहाँ के उद्योगों को बहुत हानि उठानी पड़ी। स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में यहाँ केह उद्योगों का विकास नियोजित रूप में किया जा रहा है। इस नियोजित विकास के लिए ही पंचवर्षीय योजनाओं में व्यवस्थाएँ की गयी हैं।

उद्योग के स्थानीयकरण के कारक

उद्योगों की स्थापना के मुख्यरूप से तीन उद्देश्य होते हैं – (क) जनता को तैयार माल की आपूर्ति, (ख) माल को तैयार करने एवं उद्योगों में कच्चे माल का उपभोग करने में लागत एवं तैयार माल के विक्रय मूल्य में अंतर के कारण होने वाला लाभ एवं (ग) देश के कच्चे माल का उपभोग। उद्योगों को स्थापना द्वारा प्रथम एवं अंतिम उद्देश्य की आपूर्ति कहीं भी उद्योग की स्थापना द्वारा संभव हो सकती है किंतु आर्थिक दृष्टिकोण से लाभदायक स्थिति बहुत कम ही स्थानों पर पायी जाती है। इस प्रकार उद्योगों की स्थिति के निर्धारण में निम्न कारक महत्त्वपूर्ण होते हैं-

  1. कच्चे माल की निकटता

    प्रायः उद्योगों की स्थापना के पूर्व उनके आधार के रूप में कच्चे माल की खोज होती है। प्रारंभिक काल के साधनों में आवागमन के साधनों की अविकसित अवस्था में कच्चे माल की प्राप्ति स्थल पर ही उद्योग स्थापित किये जाते थे। जैसे सूती वस्त्रोद्योग की बंबई या अहमदाबाद में स्थापना अथवा जमशेदपुर में लौह इस्पात उद्योग की स्थापना। परंतु वर्तमान समय में कच्चे मालों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है। पहले प्रकार के वे कच्चे माल होते हैं जिसका भार कम होता है अतः उन्हें दूर तक ले जाने में परिवहन लागत अधिक नहीं पड़ती है। ऐसे कच्चे मालों पर आधारित उद्योगों की स्थापना कोई आवश्यक नहीं कि कच्चे मालों के स्रोत स्थल पर हो। द्वितीय प्रकार के कच्चे माल वे हैं जिनका भार अधिक होता है। ऐसे कच्चे मालों को दूर तक ले जाने में परिवहन लागत अधिक पड़ती है अतः ऐसे कच्चे मालों का प्रयोग उद्योगों की स्थापना के लिए हमेशा लाभदायक स्थिति उनकी प्राप्ति स्थल के निकट ही होती है।

  2. शक्ति के स्रोत

    उद्योग धंधों के लिए शक्ति की भी अतीव आवश्यकता होती है। शक्ति के स्रोत कोयला, खनिज तेल एवं विद्युत हैं। पहले अधिकांश उद्योग उन्हीं भागों में स्थापित किये जाते रहे जहाँ पर शक्ति के स्रोत के रूप में कोयला पाया जाता रहा, परंतु अब आवागमन एवं परिवहन के साधनों में विकास के फलस्वरूप उद्योगों के स्थानीयकरण में इनका महत्त्व अधिक नहीं रह गया है।

  3. अनुकूल जलवायु

    अपेक्षाकृत शीतल जलवायु में कार्य कुशलता बनी रहती है।

  4. आवागमन के साधनों की सुविधा

    आवागमन एवं परिवहन के साधनों की सुविधा होने से कच्चे मालों की आपूर्ति एवं तैयार मालों के वितरण में सुविधा रहती है। वैसे अधिकांशतया उद्योगों के केंद्रों के विकास के साथ-साथ उनका देश के अन्य भागों से आवागमन एवं संचार के साधनों द्वारा अधिकाधिक संबंध होते जाते हैं।

  5. श्रमिकों की सुविधा-

    श्रमिक एक गतिशील कारक हैं क्योंकि आवागमन के साधनों के विकास के फलस्वरूप उद्योग में कार्य करने के लिए दूर से भी श्रमिक पहुँचते रहते हैं। इसलिए श्रमिकों की उपलब्धि स्थानीय रूप से आवश्यक नहीं है।

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