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ज्वार-भाटा की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्त

ज्वार-भाटा की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत

ज्वार-भाटा की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत

(Theories of Origin of Tides)

ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के विषय में अनेक विद्वानों ने अपने मौलिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। इनमें प्रमुख सिद्धान्त निम्न हैं-

  • न्यूटन का सन्तुलन सिद्धान्त
  • विलियम वेवेल का प्रगामी तरंग सिद्धान्त
  • हैरिस का स्थायी तरंग सिद्धान्त
  1. न्यूटन का सन्तुलन सिद्धांत (Equilibrium Theory of Sir Isaac Newton)-

    सर आइजक न्यूटन ने 1687 ई0 में गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आधार पर ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के विषय में ‘सन्तुलन सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इस सिद्धान्त के अनुसा ब्रह्माण्ड के ग्रह, उपग्रह व नक्षत्र आपस में प्रत्येक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यह आकर्षण शक्ति इनके बीच की दूरी के वर्ग की विपरीत समानुपाती होती है। इसे निम्न सूत्र से ज्ञात करते हैं-

G.F. = (M1 × M2) / d2

अर्थात् G.F. = गुरुत्व बल, M1 तथा M2 = अलग-अलग पिण्डों की संहतियाँ, d = दोनों पिण्डों के केन्द्रों की पारस्परिक दूरी।

इसी सिद्धान्त के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति पृथ्वी को प्राप्त होती है। लाप्लास (Laplace) ने इस सिद्धान्त को अधिक विकसित रूप प्रदान किया। इस सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी पर ज्वार उपकेन्द्री बल (Centrifugal force) तथा आकर्षण बल (Gravitational force) का परिणाम है। जब किसी गतिशील वस्तु का आकर्षण होता है, तो आकर्षण शक्ति के विरुद्ध उपकेन्द्री बल का जन्म होता है। अतः पृथ्वी पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति और गतिशील पृथ्वी के उपकेन्द्री बल के सन्तुलन से ज्वार उत्पन्न होता है।

सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा पृथ्वी के अधिक निकट है। इसलिए इसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव अधिक पड़ता है। चन्द्रमा के ठीक सामने वाला पृथ्वी का भाग केन्द्र की अपेक्षा 6400 किमी0 चन्द्रमा के निकट होता है तथा ठीक इसके विपरीत वाला भाग चन्द्रमा से 12800 किमी0 अधिक दूर होता है। अतः चन्द्रमा के सम्मुख वाले भाग पर अधिक आकर्षण शक्ति का प्रभाव पड़ता है। यहाँ आकर्षण बल का प्रभाव उपकेन्द्री बल की अपेक्षा अधिक होता है, जिससे दीर्घ ज्वार उत्पन्न होता है। पृथ्वी पर चन्द्रमा के ठीक विपरीत वाले भाग पर दूरी बढ़ जाने के कारण चन्द्रमा के आकर्षण बल का प्रभाव कम होता है। यहाँ उपकेन्द्री बल का प्रभाव अधिक होने से जल बाहर की ओर आकर एकत्रित हो जाता है जिससे ज्वार उत्पन्न होता है। इस प्रकार पृथ्वी पर एक ही समय दो ज्वार आते हैं। इससे उपकेन्द्री व गुरुत्व बलों में सन्तुलन बना रहता है।

आलोचना (Criticism)

न्यूटन के सन्तुलन सिद्धान्त की आलोचना निम्न आधारों पर की गयी है-

  • महासागरों में ज्वार एक लहर के रूप में उत्पन्न होता है और यदि पृथ्वी के धरातल पर केवल जल ही जल होता तो इस सिद्धान्त के क्रियाशील होने की सम्भावना थी, परन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। यहाँ जल व थल का वितरण असमान है। यहाँ लहरें चन्द्रमा के साथ पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए प्रत्येक देशान्तर पर समान रूप से उत्पन्न होतीं। इनके विस्तार एवं दिशा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है।
  • सागरों की गहराई सर्वत्र समान नहीं है। अतः गहराई में भिन्नता, ज्वारीय लहरों की गति व ऊँचाई में भिन्नता पैदा कर देती है।
  • सागर की दूसरी गतियों का प्रभाव ज्वारीय तरंगों पर भी पड़ता है।
  • चन्द्रकलाओं के घटने व बढ़ने से भी ज्वारीय लहरों की ऊँचाई में अन्तर आ जाता है।
  • एअरी (Airy) के अनुसार यह सिद्धान्त पर्याप्त दोषपूर्ण है। यह भौतिक तथ्यों की अवहेलना करता है। सागर तली के उच्चावच का ज्वारीय तरंगों पर प्रभाव पड़ता है।
  1. प्रगामी तरंग सिद्धांत (Progressive Wave Theory)-

    ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के संबंध में विलियम वेवेल (William Whewell) ने 1833 ई. में ‘प्रगामी तरंग सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी देशान्तर के चन्द्रमा के सामने होने पर उस देशान्तर पर स्थिति सभी स्थानों पर ज्वार का समय एक व समान होना चाहिए, परन्तु वास्तविक रूप से ऐसा नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पर सभी जगह जल नहीं पाया जाता। बीच-बीच में स्थल खण्ड पाये जाते हैं। यदि सभी जगह जल होता तो चन्द्रमा द्वारा उत्पन्न की गयी ज्वार तंरग ठीक चन्द्रमा की गति के अनुरूप पूर्व से पश्चिम दिशा में निरन्तर चला करती। स्थल खण्डों के कारण इन तरंगों को अवरोध का सामना करना पड़ता है।

द० ध्रुव महासागर या अण्टार्कटिका में स्थल की कहीं रूकावट नहीं है। अतः यहाँ चन्द्रमा का आकर्षण सर्वाधिक रहता है। यहाँ ज्वारीय तरंग की प्रगति चन्द्रमा के साथ पूरब से पश्चिम को होती है इसे प्राथमिक ज्वारीय लहर (Primary tidal-wave) का नाम दिया गया है। यह लहर अन्य तरंगों को जन्म देती है जो उत्तर में अटलांटिक, प्रशान्त व हिन्द महासागर में प्रवेश कर जाती है। इन द्वितीय तरंगों का वेग चन्द्रमा की अवधि पर निर्भर नहीं करता, बल्कि जल की गहराई पर निर्भर करता है। इन द्वितीयक तरंगों का ‘उठाव ज्वार’ तथा गिराव भाटा’ कहलाता हैं ये ज्वार तरंगें देशान्तरों के अनुरूप उत्तर की ओर बढ़ती हैं। मार्ग में बाधा (स्थल) आने पर इनकी प्रगति रूक जाती है। इसलिये लहरों के समय तथा उनकी ऊँचाई में अन्तर विकसित हो जाता है।

आलोचना (Criticism)

यद्यपि प्रगामी तरंग सिद्धान्त सरल व बोधगम्य है, परन्तु फिर भी इस पर आपत्तियाँ की गई हैं, जो निम्न हैं-

  • प्रगामी तरंग सिद्धान्त के अनुसार ज्वारीय तरंगें दक्षिण महासागर में उत्पन्न होती हैं। वहाँ से गौण लहरें उत्तरी महासागरों में पहुँचती हैं। अतः ज्वार की आयु उत्तरी महासागर में कम होनी चाहिये। वास्तविकता यह है कि ज्वार की आयु दक्षिणी सागरों से उत्तरी सागरों की ओर बढ़ती जाती है।
  • वृहद् ज्वार का समय हार्न अन्तरीय से ग्रीनलैंड तक ही है जो सिद्धान्त के विपरीत है। ज्वार आने का समय दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ना चाहिये।
  • उत्तरी अटलांटिक व 30 प्रशान्त महासागर में एक ही अक्षांश पर दैनिक व अर्द्ध-दैनिक ज्वारीय तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं तथा एक ही समय दो स्थानों पर वृहद् ज्वार भी उठते पाया गया है। इन समस्याओं का समाधान प्रगामी तरंग सिद्धान्त में नहीं है।
  • ज्वारं एक स्थानीय तथा प्रादेशिक घटना है, इसकी उत्पत्ति दक्षिणी महासागर में सीमित नहीं हो सकती।
  • इस सिद्धान्त में महासागरीय तली की रचना तथा किनारों द्वारा उत्पन्न बाधाओं को ज्वारीय तरंगों की प्रगति से भली-भाँति सम्बद्ध नहीं किया जा सकता।
  • 1812 ई0 में एअरी (Airy) महोदय ने इसी प्रकार की कल्पना की थी जिसे नहर सिद्धान्त (Canal Theory) की संज्ञा दी गई थी।
  1. स्थायी तरंग सिद्धांत (Stationary Wave Theory)-

    ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ‘स्थायी तरंग सिद्धान्त’ का प्रतिपादन अमेरिकी विद्वान् हैरिस (R.A. Harris) ने किया था । इसे ‘दोलन सिद्धान्त’ (Oscillation Theory) की संज्ञा दी जाती है। हैरिस ने इस सिद्धान्त को एक प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया है। इनके अनुसार यदि किसी छिछले जल वाले टैंक को टेढ़ा करें तो जल की सतह स्वयमेव टेढ़ी हो जाती है और उसी के अनुसार तरंगें उत्पन्न होती हैं। जल की सतह दो प्रकार से टेढ़ी होती है-

  1. जल की सतह की अपेक्षा एक ओर तल ऊँचा और दूसरी ओर नीचा हो जाये। इस स्थिति में एक केन्द्रीय बिन्दु (Nodal points Revolution) होता है जहाँ पर जल का स्तर समान ही रहेगा।
  2. जल की सतह बीच में ऊँचा और दोनों ओर नीची हो, अतः केन्द्रीय बिन्दु दो होंगे। इस असमतल तल के होने से तरंगें उठेंगी और समुद्र में एक तल के सहारे आन्दोलन करेंगी। ये तरंगें धीरे-धीरे हल्की होती जायेंगी और अन्त में विलीन हो जायेंगी। यदि पुनः टैंक को टेढ़ा कर दिया जाय तो फिर से तरंगें उत्पन्न होंगी।

हैरिस ने महासागरों में भरे पानी को टैंक में भरे पानी के समान माना है जिस पर, चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण झटकों में महासागरों में दोलन क्रिया प्रारम्भ होती है। दूसरे शब्दों में, महासागरों में जब चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति द्वारा जल का खिंचाव होता है, जल में एक प्रकार की तरंगें प्रारम्भ हो जाती हैं जिन्हें स्थायी तरंगें कहते हैं। महासागरों में यह तरंगें एक ही ओर चलती हैं जिससे उस सागर में जहाँ यह पहुँचती हैं, जल का स्तर बढ़ जाता है। इस समय चन्द्रमा अपनी आकर्षण शक्ति से सागरीय जल को अपनी ओर खींचता है, जिसे ज्वार कहते हैं।

इसके विपरीत जब चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति कम हो जाती है तो पृथ्वी अपने पूर्व स्थान की ओर खिंचती है जिससे सागरीय जल में तरंगे पीछे को हटने लगती हैं, इसे भाटा कहते हैं।

हैरिस महोदय ने अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने तथा आलोचना से बचने के लिये सभी महासागरों में जाकर स्थायी तरंगों का अध्ययन किया। उनके अनुसार अलग-अलग महासागरों में स्थायी तरंगें भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं जिनसे ज्वार की उत्पत्ति होती है। महासागरों में जल के दोलन पर सागर की तली की बनावट, समुद्री तट की बनावट, समुद्र की गहराई आदि का प्रभाव पड़ता है। दोलन पर पृथ्वी के परिक्रमण (Revolution) का भी प्रभाव पड़ता है।

स्थायी तरंगें सभी महासागरों में लगातार एक ही गति से नहीं चलती हैं। इनमें बड़े-बड़े द्वीप व महाद्वीप बाधा उत्पन्न करते हैं। ये बाधाएँ अलग-अलग भँवर बिन्दुओं (Amphidromic Points) की उत्पत्ति करते हैं। ये भँवर बिन्दु ही प्रत्येक महासागर में अपने चारों ओर दोलन की क्रिया प्रारम्भ कर देते हैं। हैरिस के प्रयोग द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि दोलन भँवर बिन्दुओं के चारों ओर घूमते रहते हैं। हैरिस ने इस बात पर जोर दिया है कि महासागरों में जल का दोलन एक सीधी रेखा में ही होता। भँवर बिन्दुओं के चारों ओर अनेक जोर दिया है। हैरिस महोदय द्वारा प्रस्तुत ‘स्थायी तरंग सिद्धान्त’ ज्वार-भाटा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

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