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मार्गदर्शन/निर्देशन

मार्गदर्शन/निर्देशन

मार्गदर्शन की आवश्यकता

विद्यालयों में मार्गदर्शन निम्नलिखित बातों के लिए आवश्यक है-

  1. शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकता

    (Educational Need)- शिक्षा प्राप्त करते समय विद्यार्थियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है; जैसे—विषयों या कोर्सी को चुनना, उचित पुस्तकों को चुनना, रोचक कार्यों (Hobbies) तथा पाठ्य-सहायक क्रियाओं को चुनना । अपने लेख, उच्चारण तथा अध्ययन आदतों को सुधारने के लिए भी उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है । सीखने की प्रक्रिया में तथा विशिष्ट ज्ञान एवं कौशल की प्राप्ति में भी उन्हें सहायता की आवश्यकता होती है। अत: उनकी शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकता विकासात्मक भी है और समायोजनात्मक भी । अत: उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में उचित रूप से समायोजित (Adjust) होने के लिए एवं प्रगति करने के लिए मार्गदर्शन चाहिए।

  2. व्यावसायिक आवश्यकता 

    (Vocational Needs)- शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों को भविष्य में अपनी रोजी कमाने के योग्य बनाना है । उनके द्वारा भविष्य में कई व्यवसायों को अपनाया जा सकता है । इन व्यवसायों तथा अवसरों की जानकारी व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय साधनों की अधिकतम उपयोगिता के लिए अत्यन्त आवश्यक है । मार्गदर्शन व्यावसायिक सूचना प्रदान करके हमारी इस दिशा में बहुत सहायता करता है। प्रत्येक व्यक्ति हर प्रकार का काम नहीं कर सकता। उसे अपनी योग्यताओं तथा शक्तियों के अनुकूल काम चुनने के लिए उचित मार्गदर्शन मिलना चाहिए । जीवन की सफलता तथा राष्ट्रीय संवृद्धि के लिए व्यावसायिक समायोजन अत्यन्त आवश्यक है और यह तब हो सकता है जब सुयोग्य व्यक्तियों द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को छोटी आयु में ही अपनी योग्यताओं, रुचियों तथा अभिरुचियों के अनुसार व्यवसाय चुनने का मार्गदर्शन किया जाये।

  3. व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक आवश्यकता

    (Personal & Psychological Needs)- बच्चों के व्यक्तिगत एवं मनोवैज्ञानिक समायोजन के लिए मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। उनके उचित विकास तथा जीवन में उनकी सफलता के लिए उनका भावात्मक एवं सामाजिक समायोजन अत्यन्त आवश्यक है । कुसमायोजन (Maladjustment) से कई गम्भीर समस्याएँ पैदा होती हैं। बच्चों में कई प्रकार के मानसिक विकार उत्पन्न हो सकते हैं। अत: बच्चों को मानसिक उलझनों, तनावों तथा चिन्ताओं से मुक्त करने के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

इस प्रकार यदि हम बच्चों को आत्म-समायोजन तथा सामाजिक समायोजन में सहायता प्रदान करना चाहते हैं और उन्हें विकास मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं तो उनको मार्गदर्शन प्रस्तुत करना होगा । भारत जैसे देश के लिए जहाँ अधिकांश माता-पिता अनपढ़ या अर्द्ध-शिक्षित हैं तो मार्गदर्शन और अधिक आवश्यक है । अतः अध्यापकों को मार्गदर्शन की आवश्यकता का अनुभव करना चाहिए और स्कूलों में मार्गदर्शन की व्यवस्था करनी चाहिए।

निर्देशन कार्यक्रम की विशेषताएँ

निर्देशन कार्यक्रम की विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं-

  1. निर्देशन प्रशिक्षण लेने के पश्चात् व्यक्तियों को व्यवस्थित निर्देशन कार्यक्रम का नेतृत्व करना चाहिए । निर्देशन कार्यक्रम किस प्रकार का हो, यह विद्यालयों के रूप पर निर्भर करता है । छोटे-छोटे विद्यालयों में एक ही प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति निर्देशन एवं शिक्षण दोनों कार्यों को कर सकता है, जबकि बड़े विद्यालयों में निर्देशन प्रदान करने के लिए परामर्शदाता पृथक् होता है। इसका कार्य मात्र निर्देशन क्रियाओं तक ही होता है।
  2. निर्देशन सेवा एक सतत् सेवा है । शुरुआत में छात्रों के समुचित समायोजन के लिए तत्पर प्रयास किये जाते हैं । निर्देशन प्रदान करने वाले व्यक्ति को कभी भी यह प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, कि छात्रों के असमायोजन के बाद ही निर्देशन देना चाहिए।
  3. निर्देशन कार्यक्रम छात्रों की आवश्यकता व रुचियों पर निर्भर होता है।
  4. शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में भी निर्देशन कार्यक्रम सहायक सिद्ध होते हैं।
  5. निर्देशन सेवाएँ ऐसी होनी चाहिए, जो कि छात्रों की विभिन्न आवश्यकता व समस्याओं को समझकर उनका निदान निकाल सकें।
  6. निर्देशन कार्यक्रमों के द्वारा उद्देश्यों का निर्धारण व सेवाओं का गठन किया जाता है । अर्थात् निर्देशन का एक निश्चित कार्यक्षेत्र रखा जाता है, तभी यह सफलता की तरफ अग्रसर होते हैं।

प्रधानाचार्य की भूमिका

(Role of Principal in Guidance)

निर्देशन कार्यक्रमों में प्रधानाचार्य निम्नलिखित भूमिका निभाते हैं-

  1. सर्वप्रथम निर्देशन सेवायें प्रदान करने हेतु एक समिति का गठन किया जाता। यह समिति ही निर्देशन व परामर्श समिति (Guidance and Counselling Committee) कहलाती है।
  2. इसके बाद इस कार्य हेतु उत्तम भवन तथा धन की व्यवस्था की जाती है ।
  3. विद्यालय में निर्देशन सम्बन्धी क्रियाओं का निरीक्षण करके समुचित व्यवस्था की जाती है।
  4. प्रधानाचार्य के द्वारा निर्देशन सम्बन्धी कायों में अपना नेतृत्व प्रदान किया जाता है।
  5. निर्देशन कार्यों हेतु योग्य व कुशल कार्यकर्ताओं की नियुक्ति भी प्रधानाचार्य द्वारा की जाती है।
  6. नियुक्त निर्देशन कार्यकर्ताओं के बीच कार्य का बँटवारा भी प्रधानाचार्य के द्वारा किया जाता है।
  7. निर्देशन कार्यकर्ताओं तथा शिक्षकों को नौकरी के साथ-साथ मध्य प्रशिक्षण की सुविधाएँ भी प्रधानाचार्य के द्वारा ही प्रदान की जाती हैं।

विद्यालयों में निर्देशन सुविधाएँ देने में प्रधानाचार्य की भूमिका मुख्य होती है। आज देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यदि विद्यालयों में निर्देशन समिति का गठन नहीं किया जाये तो बालक अपनी राह से भटक सकते हैं। अत: छात्रों को नई राह दिखाने के लिए निर्देशन समिति का गठन होना अति आवश्यक होता है। इस निर्देशन समिति में प्रशिक्षित शिक्षकों को लिया जाता है। इस निर्देशन समिति के द्वारा यथा समय निर्देशन में योग्य क्रियाओं का निर्धारण तथा मूल्यांकन किया जाता है। परन्तु सिर्फ उन्हीं शिक्षकों को इन कार्यों में सम्मिलित किया जाता है, जो कि निर्देशन कार्यों में रुचि लेते हैं । इसके अन्तर्गत निम्न व्यक्तियों को सम्मिलित किया जा सकता

  • निर्देशन कार्यों में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को।
  • वह व्यक्ति जो प्रोफेसर अथवा लैक्चरर जैसे उच्च पदों पर रह चुके हैं।
  • वह व्यक्ति जो सेवारत हैं, तथा उच्च शिक्षा से जुड़े क्षेत्रों में अपना योगदान, प्रदान कर चुके हैं।

शिक्षक की भूमिका

(Role of Teacher in Guidance)

शिक्षक की निर्देशन में अति महत्वपूर्ण भूमिका होती है । शिक्षक अपने छात्रों का अध्ययन अनेक परिस्थितियों में करता क्योंकि वह उनके सबसे निकट सम्पर्क में रहता है। शिक्षक ही छात्रों की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में सबसे अधिक जानकारी रखता है । अत: निर्देशन कार्यक्रम में शिक्षक अधिकाधिक सहयोग प्रदान कर सकता है । शिक्षकों के निर्देशन सम्बन्धी कार्य एवं उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं-

  • छात्रों के साथ सम्बन्ध स्थापित करके बाधित बालकों को पता लगाना ।
  • छात्रों के अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करना।
  • छात्रों को पुस्तकालय व सामाजिक संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित करना सिखाना।
  • पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना ।
  • जिन छात्रों का साक्षात्कार किया जा चुका है उनकी रिपोर्ट का निर्देशन छात्रों को प्रदान करना।
  • निर्देशन कार्यक्रमों में व्यवसायों तथा शैक्षिक अवसरों की सूची देना।
  • निर्देशन कार्यक्रम को अधिकाधिक सफल बनाने के लिए प्रधानाचार्य व शिक्षकों को पूर्ण सहयोग देना।
  • छात्रों की परीक्षायें लेने में सहायता करना तथा ऐसे छात्रों को जो अधिगम में कठिनाई अनुभव करते हों, उनको उपबोधकों के पास भेजना ।

निर्देशन की सीमाएँ

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में निर्देशन की बहुत अधिक आवश्यकता है।परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं है कि निर्देशन द्वारा शत-प्रतिशत समस्याओं को सुलझाया ही जा सकता है। इसकी भी अपनी सीमाएँ हैं । ये सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

  • मानवीय व्यवहार अमूर्त तत्वों-मन, बुद्धि आदि से प्रभावित होता है, उन्हें पूरी तरह सही-सही मापने का कोई उपकरण नहीं।
  • परिस्थिति बदल जाने से निर्देशन का स्वरूप भी बदल जाता है और परिस्थिति का पूर्वानुमान सम्भव नहीं।
  • वातावरणीय जटिलताएँ इतनी अधिक बढ़ गयी हैं कि उनमें सही-सही निर्णय लेना बड़ा ही कठिन है।
  • कुशल निर्देशन कार्यकर्ताओं का सदैव अभाव ही बना रहता है तथा अकुशल निर्देशक हाथों में मनोवैज्ञानिक उपकरण बड़े घातक सिद्ध हो सकते हैं।
  • समस्याग्रस्त व्यक्ति के प्रति संवदेनशीलता के अभाव में प्रायः निर्देशन प्रभावी सिद्ध नहीं होता और व्यक्तियों में संवदेनशीलता निरन्तर कम होती जा रही है।
  • सम्भवत: यही कारण है कि इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

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