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पृथ्वी पटल पर वायुमण्डल की चलनशीलता

पृथ्वी पटल पर वायुमण्डल की चलनशीलता

पृथ्वी पटल पर वायुमण्डल की चलनशीलता

वायुमण्डल की चलनशीलता का मुख्य कारण सूर्य है। धरातल के असमान ताप के फलस्वरूप पवनें चलती हैं। असमान ताप के कारण विभिन्न स्थानों के वायुदाब में अन्तर मिलता है। अधिक वायुदाब के स्थान कम वायुदाब स्थान की ओर पवनें चलने लगती हैं। इस प्रकार वायुदाब वायु दिशा को नियंत्रित करता है।

वायुदाब एवं पवन

वायु का वेग भी वायुदाब पर निर्भर करता है। वायुदाब की प्रवणता (Pressure gradient) वायु की गति को प्रभावित करता है। जब वायुदाब की प्रवणता प्रपाती होती है तो पवन तीव्र गति से चलती है। समदाब रेखाएं प्रवणता की सूचक होती हैं। यदि समदाब रेखाएं पास-पास रहती हैं तो ढाल प्रपाती होता है और पवनें तीव्र गति से चलती हैं, किन्तु समदाब रेखाओं के दूर-दूर रहने पर वायुदाब मन्द होता है और पवनों की गति मन्द होती है।

पृथ्वी की गति से उत्पन्न विक्षेपक बल (Defectine force) के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर को मुड़ जाती हैं, इसको फेरल का नियम कहते हैं। इसी नियम को बाइजबैलेट (Buysballot) महोदय ने निम्न प्रकार बताया है। पृथ्वी के धरातल से ऊँचाई पर समदाब रेखाओं के समानान्तर पवनें बहती हैं। इसमें उत्तरी गोलार्द्ध में अल्प वायुदाब क्षेत्र पवनों की बायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दायीं ओर रहता है।

प्रमुख ग्रहीय स्थायी पवनें

धरातल पर छ बड़ी पवनें चलती हैं। उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटियों से दो पवनें विषुवतीय अल्प वायुदाब के क्षेत्र की ओर चलती हैं। ये सनमार्गी पवनें (Trade winds) हैं। इसी प्रकार उपोष्ण वायुदाब की पेटियों से दो पवनें उपध्रुवीय अल्पदाब क्षेत्र की ओर चलती हैं। इसका पछुआ हवाएं (Westerlies) कहते है। इसके अतिरिक्त दो पवनें ध्रुवीय उच्च दाब पेटी से उपध्रुवीय अल्प दाब पेटी की ओर चलती हैं, जहां ये पछुआ हवाओं से मिलती हैं इनको ध्रुवीय पवनें (Polar Winds) कहते हैं।

  1. सन्मार्गी पवनें-
    ये पवनें 10° से 30° अक्षांशों के मध्य चलती हैं, किन्तु सूर्य के साथ इनकी पेटी 5° उत्तर तथा दक्षिण को खिसक जाती हैं। ये हवाएं समुद्री भागों में निश्चित गति से चलती हैं। इनकी गति प्रायः 16 से 24 किमी. रहती है। महाद्वीपों के ऊपर इनकी दिशा तथा गति में बड़ा अन्तर मिलता है। उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूरबी संमार्गी पवनें चलती हैं। सन्मार्गी पवनें साल भर अबाध गति से दिन-रात निश्चित दिशा तथा गति से चलती हैं। इनसे महाद्वीपों के पूरबी किनारों पर पर्याप्त वर्षा होती है, किन्तु पश्चिमी किनारा प्रायः सूखा रहता है। ये जल भाग के 30.6 प्रतिशत भाग पर चलती है।
  2. पछुआ पवन-
    ये पवनें 30° से 60° अक्षांशों के मध्य चलती हैं। इनकी पटियां भी खिसक जाती हैं। इन हवाओं से महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में वर्षा होती है। इनसे साल भर वर्षा होती है। वायुदाब की पेटियों के खिसकने के साथ इनका क्षेत्र भी बदलता रहता है। ये हवाएं जल मण्डल के 24 प्रतिशत भाग पर चलती हैं। इन हवाओं की पेटी में महाद्वीपों के पूर्वी भाग शुष्क रहते हैं।

पछुआ हवाएं तूफानी होती हैं और साल भर भारी वर्षा करती हैं। उष्ण अक्षांशों से आने के कारण तापमान में वृद्धि करती हैं। पछुआ चक्रवाती हवाएं जिनको उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल खण्ड की बाधा मिलती है, किन्तु दक्षिणी गोलार्द्ध में विशाल समुद्रों पर हवाएं स्वच्छन्द रूप से प्रचण्ड गति से चलती हैं। इसी कारण इनको गरजने वाली चालीसा (Roaring forties) या वीर पछुआ पवनें (Brave Westwind) कहते हैं।

  1. ध्रुवीय हवाएं-
    ये हवाएं 60° अक्षांशों से ध्रुवों के मध्य चलती हैं इनकी पेटी सूर्य की स्थिति के अनुसार खिसक जाती हैं। जब सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में चमकता है तथा इनका क्षेत्र कुछ दक्षिण को खिसक जाता है और जब सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में चमकता है तो इसका क्षेत्र उत्तर को खिसक जाता है। ये अत्यधिक सर्द हवाएं हैं।

स्थलीय एवं सागरीय समीरें (Land and Sea Breeze)

स्थलीय भाग में दिन में सूर्य की किरणें जल्दी गर्म हो जाती हैं तथा रात में जल्दी ठण्डी हो जाती हैं, लेकिन समुद्र का पानी दिन में सूर्य की किरणों से देर में गर्म तथा रात में देर से ठण्डा होता है, इसी प्रकार दिन में स्थल की हवाएं जल्दी गर्म हो जाती हैं और रात को जल्दी ठण्डी हो जाती हैं, लेकिन सागरीय समीरों का क्रम धीरे चलता है। ये हवाएं भी मुख्य रूप से मानसूनी हवाओं का छोटा रूप हैं, जो कि 24 घण्टे में दो बार दिशा परिवर्तन करती हैं। ये दिन में सागर से स्थल की ओर तथा रात्रि में स्थल से सागर की ओर दिशा परिवर्तन करती हैं। इन हवाओं में दिन और रात में दिशा परिवर्तन का मुख्य आधार रात तथा दिन में हुए ताप परिवर्तन का जो कि महत्व के हिसाब से भी ये हवाएं ही मानी जाती हैं।

  1. स्थलीय समीर (Land breeze)-
    स्थल से चलती हवाओं को स्थलीय समीर कहा जाता है। ये प्रायः स्थल से सागर की ओर चला करती हैं। ये जितनी दूर जाती हैं उतना ही प्रभाव कम होता जाता है। ये वायुमण्डल में अधिक ऊँचाई तक नहीं मिलती है। वायुमण्डल में इनकी अधिक ऊंचाई 200 फुट तक मानी गयी हैं। इस प्रकार से किसी प्रकार की वर्षा नहीं करती। ये प्रायः शुष्क होती हैं। समुद्रतटीय क्षेत्रों पर इनका प्रभाव समकालीन होता है।
  2. सागरीय समीरें (Sea Breeze)-
    सागर की ओर से स्थल की ओर चलती हुई हवाओं को सागरी समीरें कहते हैं। जल की अपेक्षा स्थल जल्दी गर्म तथा ठण्डा हो जाता है। इसी प्रकार दिन में स्थलीय भाग पर निम्न दाब तथा जलीय भाग पर उच्च दाब उत्पन्न हो जाते हैं। अतः उच्च दाब की जलीय हवाएं स्थलीय भाग के निम्न दाब की ओर भागती हैं। इस प्रकार की हवाओं का क्रम बड़ी-बड़ी झीलों में भी होता है जो दिन के 10-11 बजे से दोपहर के 1 से 2 बजे तक पूर्ण युवास्थित होती हैं, लेकिन इसके बाद रात्रि के 8 बजे तक धीरे-धीरे समाप्ति अवस्था प्राप्त करती हैं। सागरीय हवाएं वायुमण्डल में अधिक ऊंचाई तक नहीं चलती हैं। लेकिन फिर भी इन हवाओं की ऊंचाई विभिन्न अलवायु प्रदेशों में विभिन्न वायुमण्डलीय क्रियाओं के कारण परिवर्तनशील रहती हैं। परीक्षण के उपरान्त ज्ञात हुआ है कि सागरीय समीरें, बड़ी-बड़ी झीलों के पास 200-500 मीटर की ऊंचाई तक पायी जाती हैं। लेकिन उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय भागों में सागरों के निकट भागों पर इनकी ऊंचाई 1000-2000 मीटर तक आंकी गयी है। तभी तो भूमध्यरेखीय भाग में रोजाना सायं काल 3 बजे से वर्षा होती है तथा कटिबन्धीय भाग सागर समीरों से पूर्ण प्रभावित रहते हैं। सागरीय हवाएं अक्षांशों के हिसाब से अपनी चाल तथा दिशा परिवर्तन करती रहती हैं। मध्य अक्षांशों में इनकी चाल 12 से 50 किमी प्रति घण्टा रहती है, जबकि निम्न अक्षांशों में इनकी चाल और अधिक हो जाती है। साथ ही अपनी स्थिति में तूफान आदि का रूप बना लेती हैं। इन हवाओं के तापक्रम के अनुसार काफी परिवर्तन होता रहता है। सागरीय समीरें आगे चलकर तटीय भागों में वर्षा करती हैं। अधिकतर इन हवाओं का प्रवाह-मार्ग निम्न अक्षांश ही है, क्योंकि इन अक्षांशों में चलने वाली हवाएं तथा सागरीय हवाओं में किसी प्रकार की रूकावट नहीं होती हैं। इन हवाओं के रूकावटी तथा परिवर्तनकारी क्षेत्र केवल निम्न मध्य अक्षांश ही हैं। यहां पर सागरीय समीरें अपनी स्थिति तथा स्वभाव में बिल्कुल परिवर्तनशील हो जाती हैं और इन अक्षांशों की हवाओं के साथ तूफान आदि में मिलकर समाप्त हो जाती हैं।

घाटी तथा पर्वत समीर (Valley and Mountain Breeze)

पर्वत तथा घाटीय समीरें भी जलीय तथा स्थलीय हवाओं की भांति एक स्थानीय पवनें होती हैं जो कि दैनिक वायुभार में विभिन्नता के कारण चला करती हैं। दिन में सूर्य की किरणें से गर्मी प्राप्त होकर पर्वत घाटियों की हवाए हल्की होकर घाटी से ऊपर उठने लगती हैं। इस प्रकार घाटी से पर्वतों के ढालों के सहारे-सहारे उठने वाली ये हवाएं अपनी दिनचर्या के अनुसार पर्वतों की चोटियों तक पहुंचती हैं और ये घाटी समीर (Valley Breeze) कहलाती हैं। यही हवाएं रात्रि के समय अपने ताप को विकिरण कर देती हैं तथा विकिरण के साथ ताप की हवा समान होने से ठण्डी हो जाती हैं और रात्रि को धीरे-धीरे पर्वतों के ढालों पर होने के करण घाटियों में एकत्रित हो जाती हैं जिन्हें पर्वत समीर (Mountain Breeze) के नाम से पुकारते हैं इन हवाओं के साथ ही तापक्रम का अतिक्रम (Inversion) विलोम होता है अर्थात् ऊपरी भाग में तापक्रम अधिक होता है। इस प्रकार की हवाओं का उदाहरण आल्पस पर्वत की घाटियों में अधिक मिलता है। ग्रीष्मकाल में घाटियों के मुंह पर मालदार या सरकारी सर्वेयर लोग कैम्प लगाते हैं जिससे वहां की ठण्डी हवाएं स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाती हैं।

स्थानीय पवनें

कुछ विशेष कारणों से ग्रहीय या स्थायी पवन के क्रम में व्यतिवम पड़ जाता है और विशेष प्रकार के पवन ॠतु विशेष में चलते हैं। स्थान विशेष पर भी कुछ पवन चलते हैं। इन्हें स्थानीय पवन (Local winds) कहते हैं। धरातल के स्थानीय तापान्तर के फलस्वरूप अनेक प्रकार के स्थानीय पवन उत्पन्न होते हैं, जिनके अलग-अलग नाम हैं। उत्तर भारत में लू, उत्तरी सहारा से यूरोप की ओर जाने वाली सिराक्कों, मिस्र में खार्मासन, अरब में चलने वाली सिमून न्यू साउथ वेल्स (आस्ट्रेलिया) मं चलने वाला क्रिक फील्डर और कैलिफोर्निया (उ0अमेरिका) में चलने वाल सान्ताएना स्थानीय शुष्क पवनें हैं।

इसी तरह दक्षिणी यूरोप में बोरा एवं मिस्ट्रल, जाडे में सहारा से चलने वाला हरमटान, उत्तरी अमेरिका में ब्लिजर्ड, साइबेरिया में बुरी, अर्जेण्टाइना में पैम्पेरो, ऐण्डीज में युना ठण्डे स्थानीय पवन हैं।

  1. पर्वत एवं घाटी समीर (Mountain & Valley Breezes)-
    यह भी स्थानीय पवन हैं। पर्वतीय भागों में पर्वत शिखर गर्म होकर अल्प दाब के हो जाते हैं, जिससे घाटी की वायु चढ़ जाती है। यह घाटी समीर या आरोही पवन कहलाता है। रात के इसके विपरीत पर्वत शिखर ठण्डे हो जाते हैं और उच्च दाब उत्पन्न होने का कारण वहां वायु घाटी की आरे खिसक जाती हैं। यह पर्वतीय समीर या अवरोही पवन (Katabatic wind) कहलाता है।
  2. फोहन (Fohn)-
    यह उष्ण हवा दक्षिणी आल्पस से जब ऊपर उठती है तो फैल जाती है और तुषार के रूप में अपनी नमी गिरा देती डालती है। जब यह पहाड़ी को पार करके उत्तर की आरे उतरती है तो तापमान बढ़ जाता है और यह उष्ण हो जाती है।
  3. चिनूक (Chinook)-
    यह हवा रॉकी पर्वत से उत्तरी मैदान में उतरते हुए गर्म हो जाती है। इसका प्रभाव क्षेत्र फोहन की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। फोहन एवं चिनूक के प्रभाव क्षेत्र में कृषि कार्य में सुविधा है, अतः आर्थिक दृष्टि से इनका महत्व है।

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