मानसून की उत्पत्ति

मानसून की उत्पत्ति

मानसून की उत्पत्ति

भारत की जलवायु निर्विवाद रूप से मानसूनी है। ‘मानसून’ शब्द अरबी भाषा के मौसम शब्द से बना है जिसका अर्थ ऋतु या मौसम है। डोबी के मत में मानसून दो परस्पर विरोधी मौसम वाली जलवायु है। पवनों का उत्क्रमण मानसूनी जलवायु का मूल सिद्धांत है। भारतीय विद्वान् डॉ. आर. एल. सिंह के अनुसारगी, “मौसम का आवर्तन मानसूनी जलवायु की प्रमुख विशेषता है।”

मानसून पवनों की उत्पत्ति के विषय में अनेक संकल्पनाएँ प्रचलित हैं-

  1. तापीय संकल्पना (Thermal Concept)-

    इस संकल्पना के अनुसार मानसून की उत्पत्ति जल एवं स्थल के विषम वितरण के कारण होती है तथा मानसून पवनें स्थलीय व समुद्री समीर का ही वृहद् रूप हैं। ग्रीष्म काल में अधिक सूर्यातप के स्थलीय भाग न्यून दाब के केंद्र बन जाते हैं तब सागरों की ओर से स्थल की ओर पवनें चलती है जिन्हें ग्रीष्मकालीन मानसून कहते हैं। इसके विपरीत शीतकाल में स्थलीय भाग सागरों की अपेक्षा अधिक ठण्डे होने के कारण उच्च दाब केंद्र होते हैं तथा पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं जो शीतकालीन मानसून कहलाती हैं।

  • ग्रीष्मकालीन मानसून

    21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होने लगता है। 21 जून को सूर्य कर्क रेखा पर लंबवत होता है। इस अवधि में अधिकतम सूर्यापत प्राप्ति के कारण एशिया में बैकाल झील तथा उ0प्र0 पाकिस्तान में न्यून वायु दाब केंद्र स्थापित हो जाते हैं। इसके विपरीत दक्षिणी हिंद महासागर एवं उत्तरी पश्चिमी आस्ट्रेलिया के निकट तथा जापान के दक्षिण में प्रशांत महासागर में उचच दाब केंद्र विकसित होते हैं। महासागरों में स्थित उच्च दाब केंद्रों से स्थलीय निम्न दाब केंद्रों ओर पवनें चलने लगती हैं। जो आर्द्र होने के कारण वर्षा कराती हैं।

  • शीतकालीन मानसून

    23 सितंबर के पश्चात् सूर्य दक्षिणायन होने लगता है तथा 22 दिसंबर को मकर रेखा पर लंबवत् चकमता है। इसलिये उत्तरी गोलार्द्ध में पश्चिमी पाकिस्तान के निकट उच्च दाब केंद्र स्थापित होते हैं। निकटवर्ती सागरीय भागों में निम्न दाब केंद्र विकसित होते हैं। अतः पवन स्थल से सागर की ओर चलने लगती हैं। शुष्क होने के कारण ये वर्षा नहीं करा पाती।

  1. नवीन (गतिक) संकल्पना (New Dynamic Concept) –
    मानसून की तापीय उत्पत्ति की संकल्पना में अत्यधिक साधारणीकरण पाया जाता है जो मानसून की प्रवृत्ति एवं व्यवहार के अनुरूप नहीं है। विद्वानों ने तापीय उत्पत्ति पर आक्षेप करते हुए निम्न तथ्य प्रस्तुत किये हैं-
  • ग्रीष्मकालीन मानसूनों के अंतर्गत महाद्वीपों पर स्थित निम्न दाब केंद्र यदि उच्च ताप के कारण विकसित होते हैं तो उन्हें कुछ अवधि तक स्थायी होना चाहिए, किंतु ऐसा नहीं होता।
  • मानसूनों को वृष्टि-क्षमता भी संदिग्ध ही हैं। आमतौर पर समुद्रों के ऊपर से चलने के कारण पवनें आर्द्र होती हैं। किंतु अधिकांश वर्षा इन पवनों के साथ सक्रिय वायुमंडलीय तूफानों, चक्रवात आदि से होती है।
  • यदि मानसून पवनें ताप जनित होतीं तो ऊपरी वायुमंडल में उनके विपरीत पवनों का क्रम होना चाहिए।
  1. मानसून की उत्पत्ति का अभिनव मत (जेट स्ट्रीम संकल्पना)-

    1950 ई0 के पश्चात् भारतीय मानसूनों की उत्पत्ति के संबंध में कोटेश्वरम (Koteswaram), यीन (Yin), मोनेक्स (Monex- सोवियत-भारतीय संयुक्त अध्ययन दल), फ्लोन (Flohn), रामारना (Rama-Ratna), अनंतकृष्णन (Anantkrishna) आदि द्वारा अनेक अनुसंधान व शोधकार्यों से मानसून की कार्यविधि (Machnism). के संबंध में निम्न तथ्य उभर कर आये-

  • हिमालय एवं तिब्बत का पठार एक यांत्रिक अवरोध के रूप में कार्य करते हैं।
  • तिब्बत का पठार एक उच्चतलीय ऊष्मा स्रोत का कार्य करता है।
  • उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के ऊपर क्षोभमंडल में वायु के परिध्रुवीय भंवर उत्पन्न होते हैं।
  • क्षोभमंडल में जेट स्ट्रीम का संचार होता है जो धरातल पर मानसूनों को गति प्रदान करता है।
  • मानसून एक जटिल पवन संचार तंत्र है, धरातलीय ताप जन्य पवन संचार मात्र नहीं है।

उत्तरी गोलार्द्ध में शीत ऋतु की लंबी रातों में आर्कटिक क्षेत्र में ऊपर क्षोभमंडल में स्थित अत्यधिक ठंडी वायु भारी होने के कारण नीचे बैठने लगती है जिससे धरातल पर उच्च दाब बन जाता है। इसी समय क्षोभमंडल में धरातलीय उच्च दाब के ऊपर निम्न दाब रहता है। इस प्रकार उच्चतलीय निम्नदाब के चारों ओर चक्रवातीय क्रम में वायु बहती है। इस उच्चतलीय वायु संचार का विषुवत रेखा की ओर वाला भाग ‘जेट स्ट्रीम’ कहलाता है तथा इसकी सामान्य दिशा पश्चिम से पूर्व की ओर होती है। यह जेट स्ट्रीम एक मोड़ (Meander) बनाते हुए 20° से 35° अक्षांशों के मध्य बहती है।

उच्चतलीय पछुवा जेट स्ट्रीम दक्षिणी एशिया में सामान्यतः क्षोभमंडल में 12 किमी की ऊँचाई पर बहती है। हिमालय तथा तिब्बत के पठार के यांत्रिक अवरोध के कारण यह शाखाओं में बँट जाती है। इसकी उत्तरी शाखा तिब्बति के पठार के उत्तर में चापाकार रूप में पश्चिम से को बहती है। मुख्य (दक्षिणी) शाखा तिब्बत के पठार एवं हिमालय के दक्षिण में बहती है जेट स्ट्रीम की मुख्य शाखा अफगानिस्तान व पाकिस्तान के ऊपर से बहते हुए चक्रवातीय (वामावर्त (Amtik Clock-wise) का अनुसरण करती है। अतः उसके दाहिने ओर अफगानिस्तान व पाकिस्तान के ऊपर गतिजनित (Dynamically Induced) उच्च दाब (प्रतिचक्रवात) उत्पन्न होता है। हिमालय के दक्षिण में पछुवा जेट स्ट्रीम की मुख्य शाखा यांत्रिक अवरोध के कारण चक्रवातीय वक्र (वामावर्त) बनाते हुए बहती है तथा जेट स्ट्रीम के बाँयी ओर तिब्बत के पठार के ऊपर गति जनित उच्च-तलीय चक्रवात (निम्न दाब) उत्पन्न होता है।

शीतकाल में अफगानिस्तान, पाकिस्तान व उत्तरी पश्चिमी भारत में क्षोभ-मंडलीय प्रति चक्रवातीय दशाएँ विकसित होती हैं अतः हवाएँ नीचे बैठने लगती हैं। वायुमंडल स्थिर तथा मौसम शुष्क व साफ रहता है।

ग्रीष्मकाल-

मार्च के पश्चात् सूर्य के उत्तरायण होने के साथ ही ध्रुवीय उच्च तलीय उच्च दाब क्षीण होने लगता है तथा क्रमशः उत्तर की ओर खिसकने लगता है। परिध्रुवीय भ्वर के साथ ही पछुवा जेट स्ट्रीम भी उत्तर की ओर खिसकने लगती है। यूँ तो अप्रैल, मई में ही पाकिस्तान व उत्तरी पश्चिमी भारत पर तापजनित धरातलीय निम्न दाब बन जाता है किंतु क्षोभमंडल के जेट स्ट्रीम के स्थित रहने तक वहाँ गतिजनित चक्रवात कायम रहता है। उच्च तलीय उच्च दाब से वायु नीचे बैठती है। नीचे (ताप जनित निम्न वायुदाब) से वायु को ऊपर उठने से रोकती है। इसीलिए अप्रैल-मई में निम्न दाब के बावजूद वर्षा नहीं हो पाती।

जून के आरंभ में पछुआ जेट स्ट्रीम उत्तर की ओर खिसक जाती है तथा तिब्बत के पठार के उत्तर में (शीतकालीन मार्ग के विपरीत क्रम में) बहने लगती हैं। ईरान व अफगानिस्तान के ऊपर उच्चतलीय जेटस्ट्रोम चक्रवातीय दिशा में बहती है जिसमें क्षोभमंडल में गतिजनित निम्न दाब उत्पन्न होता है। यह निम्न दाब उत्तरी पश्चिमी भारत तक विस्तृत हो जाता है। इसके नीचे तापजनित निम्न दाब पहले से ही विकसित हो चुका होता है। अतः उच्चतलीय निम्न दाब नीचे से ऊपर उठने वाली हवाओं को खींचता है।

भारत की ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा विशिष्ट चक्रवातीय भंवरों से संबंधित हैं। जब दक्षिणी गोलार्द्ध में शीतकाल होता है तो वहाँ दक्षिणी ध्रुवीय भंवर अधिक विकसित होता है। यह भंवर अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण को उत्तर (विषुवत रेखा) की ओर धकेलता है। दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनें जब विषुवत रेखा को पार करती हैं तो कोरिऑलिस बल (विक्षेप) के कारण उनकी दिशा दक्षिणी पश्चिमी हो जाती है। अंत उष्णकटिबंधीय अभिसरण के साथ चक्रवातीय भंवर के रूप में गतिजन्य लहरें उत्पन्न होती हैं जो वर्षा कराती हैं।

यह उल्लेखनीय है कि दक्षिणी दशिया में ग्रीष्मकालीन मानसून अधिक प्रबल होता है जबकि पूर्वी एशिया में शीताकालीन मानसून अधिक प्रबल होता है। पूर्वी एशिया में शीतकालीन मानसूनों से हिमवर्षा होती है किंतु दक्षिण एशिया में हिमालय के अवरोध के कारण ठंडी ध्रुवीय पवनों का प्रभाव क्षीण पड़ जाता है।

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