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कीन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचना

कीन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचना | सार्वजनिक नीति के तत्व

कीन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचना

  1. मन्दी का अर्थशास्त्र

    शुम्पीटर के अनुसार, कीन्स का अर्थशास्त्र मन्दी का अर्थशास्त्र’ है और यह स्फीतिकारक अर्थव्यवस्था में लागू नहीं होता। दूसरे, कीन्स पहले स्वतन्त्र व्यापार के समर्थक थे परन्तु मन्दी के विनाशकारी प्रभाव ने उनके मन पर गहरा आघात किया और उन्होंने कहा कि स्वतन्त्र पूँजीवादी अर्थवस्था में सभी व्यक्तियों को रोजगार मिलना सम्भव नहीं। अतः कीन्स ने संरक्षण नीति पर बल दिया।

  2. अर्द्धविकसित देशों पर लागू होना

    अर्द्ध-विकसित देशों में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता, क्योंकि अर्द्धविकसित देशों की समस्यायें विकसित देशों से पूर्णतया भिन्न होती हैं।

  3. केवल पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में लागू होना

    कीन्स का रोजगार सिद्धान्त केवल पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ही लागू होता है जहाँ उत्पादन, वितरण तथा उपभोग की स्वतन्त्रता होती है। परन्तु समाजवादी तथा साम्यवादी देशों में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता।

  4. पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता गलत

    कीन्स ने अपने सिद्धान्त में यह माना कि बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता होती है जो त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि पूँजीवादी देशों में अपूर्ण प्रतियोगिता होती है और एकाधिकार होता है।

सार्वजनिक नीति हेतु महत्वपूर्ण तत्व

(Element, Important for Public Policy)

कीन्स के रोजगार सिद्धान्त के वे महत्वपूर्ण तत्व जो सार्वजनिक नीति पर प्रभाव डालते हैं, निम्नलिखित हैं –

  1. प्रभाव पूर्ण माँग (Effective Demand) –

    कीन्स ने ‘माँग’ के स्थान पर ‘प्रभावपूर्ण माँग’ शब्द का प्रयोग किया। इससे वस्तु को खरीदने की इच्छा और खरीदने की सामर्थ्य में भेद किया जा सकता है। समाज की प्रभाव-पूर्ण माँग से तात्पर्य वस्तुओं और सेवाओं की समस्त माँगों के कुल योग से है। समाज की प्रभावपूर्ण माँग को केवल उसके व्यय द्वारा ही जाना जा सकता है।

माँग में वृद्धि फर्म को अधिक वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए प्रेरित करती है और अधिक व्यक्तियों को रोजगार मिलता है। अर्थव्यवस्था में कुल रोजगार में लगाये गये श्रमिकों की संख्या व्यक्तिगत फर्मों द्वारा रोजगार में लगाये गये श्रमिकों की संख्या के बराबर होती है। अतः सभी फर्मों की उत्पादित वस्तुओं की कुल प्रभावपूर्ण माँग में परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्था में उत्पादन व रोजगार में बदलाव होते हैं।

रोजगार के प्रभावपूर्ण माँग पर निर्भर होने के कारण प्रभावपूर्ण माँग में कमी से बेरोजगारी फैलती है। अत: यदि बेरोगारी दूर करनी है तो प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि की जानी चाहिए। यदि उपभोग्य वस्तुओं की माँग बढ़ती है तो उपभोग्य उद्योग में अधिक लोगों को रोजगार मिलेगा तथा यदि पूँजीगत  वस्तुओं की माँग बढ़ती है तो विनियोग वस्तुओं के उद्योग में अधिक लोगों को रोजगार मिलेगा। बेरोजगारी को इन दोनों प्रकार की वस्तुओं की माँग बढ़ाकर रोजगार का स्तर बढ़ाया जा सकता है।

  1. कुल पूर्ति (Aggregate Supply) –

    कुल पूर्ति मूल्य मुद्रा की वह न्यूनतम मात्रा है जो श्रमिकों की दी हुई संख्या द्वारा उत्पादन करने में व्यय होती है। अर्थात् इसे कुल उत्पादन-व्यय के बराबर होना चाहिए। यदि उत्पादकों को वस्तु से कम से कम उत्पादन-व्यय मिलने की आशा न हो, तो कोई उत्पादन नहीं करेगा और न ही लोगों को रोजगार प्राप्त हो पायेगा।

  2. उपभोग क्रिया (Consumption Function) –

    जॉन मीनार्ड कीन्स के विचारानुसार रोजगार का स्तर उपभोग की वस्तुओं तथा विनियोग की वस्तुओं की माँग-निर्भर करता है। यदि रोजगार में वृद्धि करनी है तो उपभोग में वृद्धि करनी पड़ेगी। उपभोग प्रवृति प्रभावपूर्ण माँग व रोजगार की आवश्यक निर्धारक है। उपभोग प्रवृत्ति कुल आय और कुल उपभोग के सम्बन्ध को बताती है। यह कुल आय के भिन्न-भिन्न स्तरों पर उपभोग की भिन्न-भिन्न मात्राओं को व्यक्त करती है। उपभोग प्रवृत्ति और आय में ‘फलनात्मक सम्बन्ध’ होता है अर्थात् आय में वृद्धि होने पर उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ती है और यदि आय घटती है जो उपभोग की प्रवृत्ति भी कम हो जाती है।

  3. पूँजी की सीमान्त क्षमता व ब्याज दर (Marginal Efficiency of Capital and Rate of Interest)-

    पूँजी की सीमान्त क्षमता का आशय नई पूँजी सम्पत्ति द्वारा लागतों को निकालकर प्राप्त होने वाली अधिकतम भावी आय से हैं।

पूँजी की सीमान्त उत्पादकता तथा ब्याज की दर से निवेश तय होता है। उद्यमकर्ता जब निवेश करता है तो वह पूँजी की सीमान्त उत्पादकता की ब्याज की दर से तुलना करता है और जब तथा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की दर से अधिक रहती है, वह निवेश करता है। जब पूँजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की दर के बराबर हो जाती है तो निवेश बन्द कर दिया जाता है।

कीन्स के विचार में निवेश पर ब्याज की दर की अपेक्षा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता का अधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि पूँजी की सीमान्त उत्पादकता उद्यमियों की मनोवृत्ति पर निर्भर करती है। जब उद्यमियों के मनोवैज्ञानिक उत्तेजन के कारण पूँजी की सीमान्त उत्पादकता तेजी से बढ़ती है तो ब्याज की बढ़ती हुई दर भी उन्हें अधिक पूँजी निवेश से रोक नहीं पाती।

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