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कीन्स के आर्थिक विचार

कीन्स के आर्थिक विचार

कीन्स के आर्थिक विचार

कीन्स की पुस्तक ‘General Theory‘ एक महान रचना है और आसानी से हम उसको स्मिथ के ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स’ की श्रेणी में सम्मिलित कर सकते हैं। अपनी पुस्तक के आरम्भ में कीन्स ने अपनी प्रणाली और परम्परावादी अर्थशास्त्र की भिन्नता को स्पष्ट किया है। अपनी पुस्तक को भूमिका में लिखा है, “नये-नये विचारों को समझने में कोई कठिनाई नहीं, वरन् पुराने विचारों से बचने में कठिनाई होती है जो हमारे मस्तिष्क के प्रत्येक कोने में विद्यमान है।” कीन्स के विभिन्न सिद्धान्तों का विवरण निम्नलिखित प्रस्तुत है –

  1. उपभोग फलन (Consumption Function) –

    अर्थशास्त्र के विकास में उपभोग फलन सम्बन्धी विचार कीन्स का एक महान योगदान है। उपभोग फलन से कीन्स का अभिप्राय उपभोग तथा आय के अनुपात से है। यह निश्चित है कि आय के स्तर का निर्धारण निवेशों द्वारा होता है, लेकिन समय विलम्ब (Time lag) की तरफ कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। आय बढ़ने के साथ-साथ उपभोग वस्तुओं पर व्यय में आनुपातिक वृद्धी नहीं होती। यह व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति होती है। उसने निम्नलिखित समीकरण का उपयोग किया है-

Y = C + I (जहाँ Y = कुल आय, C = कुल उपभोग तथा J = कुल विनियोग को प्रदर्शित करते हैं।)

इस प्रकार आय के दो भाग हैं : उपभोग तथा निवेश। जैसा कि हम जानते हैं कि निवेश बचत के बराबर होता है।

अतः Y = C + S (जहाँ S = बचत)

इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भी समय अवधि में बचत अथवा निवेश आय का वह भाग है जो प्राप्त करने वाले व्यक्ति उपभोग वस्तुओं पर व्यय नहीं करते।

कीन्स के उपभोग फलन निम्नलिखित वास्तविक तथ्यों पर आधारित हैं-

  • जब आय में वृद्धि होती है, तो उपभोग व्यय में भी वृद्धि होगी परन्तु अपेक्षाकृत कम अनुपात में। अर्थात्

∆C < ∆Y => ∆C/ ΔΥ < I

  • आय में होने वाली वृद्धि उपभोग व्यय तथा बचत के बीच एक निश्चित अनुपात में विभक्त होगी।

∆Y = ∆C + ∆S

  • आय की वृद्धि के साथ उपभोग व्यय तथा बचत दोनों में ही वृद्धि होगी।
  1. निवेश के लिए प्रलोभन (Inducement to Invest) –

    निवेश प्रलोभन, पूँजी की सीमान्त क्षमता और निवेश की चालू दर के पारस्परिक सम्बन्ध पर निर्भर करता है। पूँजी की सीमान्त क्षमता से अभिप्राय अतिरिक्त पूँजी की आशातीत उत्पत्ति तथा उस पूँजी के आपूर्ति कीमत के अनुपात से है। पूँजी की अतिरिक्त इकाई का मूल्य लागत की अपेक्षा जितना अधिक होगा, उतना ही निवेश के लिए प्रलोभन अधिक होगा। पूँजी की अतिरिक्त इकाई का मूल्य एक ओर तो पूँजी सीमान्त क्षमता और दूसरी ओर ब्याज की दर पर निर्भर करता है। आशातीत उत्पत्ति की दर से ही कुल निवेश निर्धारित होते हैं। स्थिर अर्थव्यवस्था में ब्याज दर स्थायी रहने के कारण निवेश शून्य होंगे। निवेशों के प्रवाह को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि नये साधनों की खोज तथा तकनीकी सुधारों की सहायता से पूँजी की सीमान्त क्षमता की उन्नति को सुरक्षित रखा जाये और उपभोक्ताओं की माँग की उन्नति को बनाये रखा जाये।

  2. ब्याज दर (The Rate of Interest) –

    पूँजी की सीमान्त क्षमता के अतिरिक्त, निवेशकों का स्वभाव ब्याज की चालू दर से भी प्रभावित होता है। कीन्स के शब्दों में, ब्याज दर वह मूल्य है जो व्यक्तियों को नकदी या तरलता अलग करने और उसका निवेश करने के लिए दिया जाता है। इस प्रकार ब्याज का निर्धारण तरलता पसन्दगी द्वारा होता है। जब व्यक्ति आगमों (assets) की अपेक्षा नकदी को अधिक प्राथमिकता देते हैं तो उसे तरलता प्राथमिकता (liquidity preference) कहते हैं। यह प्राथमिकता निम्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए दिया जाता है :

  • जीवन की दैनिक आवश्यकताएँ,
  • अप्रत्याशित आवश्यकताएँ और
  • व्यापार सम्बन्धी आवश्यकताएँ जो मुख्यतया ‘सट्टे के उद्देश्य से प्रभावित होती है।

साधारण ब्याज दर की स्थिति में समाज अपनी तरलता अलग करने को तैयार न हो, किन्तु ऊँची ब्याज दर पर वह तैयार हो सकता है। अतः स्पष्ट है कि तरलता प्राथमिकता जितनी अधिक होगी, ब्याज दर उतनी ही ऊँची होगी। दूसरे शब्दों में, मुद्रा परिणाम कम होने से ब्याज दर ऊँची होगी और परिणाम बढ़ने से ब्याज दर कम हो जायेगी।

  1. गुणक सम्बन्धी विचार (Multiplier Related Concept) –

    समाज की आय दो बातों पर निर्भर करती है- निवेश की दर और उपभोग की प्रवृत्ति । यदि उपभोग की प्रवृत्ति स्थिर रहे तो निवेशों में प्रत्येक वृद्धि से कुल आय में जो वृद्धि होगी, इन दोनों के अनुपात को कीन्स ने गुणक (Multiplier) कहा है। कीन्स के अनुसार, “यह गुणक (K) हमें यह बताता है कि जब कुल विनियोग की मात्रा में वृद्धि होती है तब इस वृद्धि के परिणामस्वरूप कुल आय में भी वृद्धि होती है जो विनियोग वृद्धि के कई गुने के बराबर होती है।”

विनियोग वृद्धि के कारण आय की प्रारम्भिक वृद्धि एक श्रृंखला प्रभाव को जन्म देती है जिसके परिणामस्वरूप आय में कई गुना वृद्धि होती है। विनियोग की प्रारम्भिक वृद्धि I तथा आय में होने वाली कुल वृद्धि (∆Y) के बीच गुणात्मक सम्बन्ध को ‘गुणक’ कहते हैं। यदि K = गुणक तथा ∆I विनियोग में होने वाली प्रारम्भिक वृद्धि हो तो यह कहा जा सकता है कि-

K = ΔY / ΔΙ

गुणक तीन मान्यताओं पर आधारित है :

  • निवेश की मात्रा में प्रारम्भिक वृद्धि स्वायत्तता निवेश में वृद्धि होने के रूप में होती है।
  • उपभोग की मात्रा को आय निर्धारित करती है।
  • उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति स्थिर रहती है।
  1. रोजगार सिद्धान्त (Theory of Employment) –

    कीन्स का सबसे महान योगदान इस कथन में है कि साम्य में भी बेरोजगारी रहती है जबकि परम्परावादी लेखकों का विचार पूर्णतया भिन्न था। कीन्स के अनुसार समृद्धि के विस्तार के साथ-साथ उपभोग की वस्तुओं पर होने वाला व्यय कम होता जाता है और बचतें अधिक होती जाती है। ऐसा परिस्थितियों में पूर्ण रोजगार तथा उत्पादन के स्तर को बनाये रखने के लिए बचतों को अधिकाधिक उत्पादक निवेशों में लगाना चाहिए ताकि उपभोग-वस्तुओं की माँग गिरने से जो बुरे प्रभाव उत्पन्न हो, रोके जा सके। किसी भी देश में रोजगार का परिमाण प्रभावी माँग पर निर्भर करता है जो उपभोग की प्रवृत्ति और निवेश प्रलोभन से निर्धारित होती है। उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति यथास्थिर रहने पर रोजगार में निवेश के आकार के प्रत्यक्ष अनुपात में परिवर्तन होंगे। यद्यपि निवेश में वृद्धि के साथ-साथ रोजगार का आकार भी बढ़ना चाहिए किन्तु उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति गिरने की स्थिति में रोजगार का साम्य स्तर चालू निवेश की मात्रा पर निर्भर करेगा। निवेश में वृद्धि होने से आय बढ़ती है जिसके परिणामस्वरूप उपभोग वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि होती है और नये-नये निवेशों को प्रोत्साहन मिलता है। निवेश में कमी होने से आय एवं उपभोग वस्तुओं की माँग कम हो जाती है जिसके आय और भी कम हो जाती है। अन्त में चालू निवेश की मात्रा निवेश प्रलोभन पर निर्भर करेगी अर्थात् पूँजी की सीमान्त क्षमता सारणी पर निर्भर करेगी।

  2. कीमतों का सिद्धान्त (Theory of Prices) –

    कीन्स परम्परावादियों के इस विचार से सहमत था कि चलन में मुद्रा के परिणाम में वृद्धि होने से कीमत-स्तर में वृद्धि होती है, किन्तु कीमतों में वृद्धि होने का जो क्रम उन्होंने बताया, उससे वह सहमत नहीं था। कीन्स ने इस दोष को दूर करने का प्रयास किया। उसके अनुसार उसको मालूम करने के लिए –

  • मुद्रा तथा कुल माँग का सम्बन्ध
  • उत्पादन पर कुल माँग में होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव और
  • मजदूरी दरों के परिवर्तनों को ध्यान में रखना होगा। मुद्रा के परिणाम में वृद्धि होने से सट्टा सम्बन्धी क्रियाओं के लिए अधिक धन उपलब्ध होगा।

मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने से ब्याज दर गिरने और निवेश सम्बन्धी माँग बढ़ने लगती है जिसके परिणामस्वरूप आय, रोजगार तथा उत्पादन में वृद्धि हो जाती है।

  1. मौद्रिक मजदूरी दरें तथा रोजगार (Money Wage Rates and Employment) –

    कीन्स के अनुसार किसी भी देश में रोजगार का आकार, राष्ट्रीय आय तथा निवेश के स्तर पर निर्भर करता है। कीन्स से पहले यह विश्वास किया जाता था कि मौद्रिक मजदूरी कम करने से कुल उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि होगी तथा मौद्रिक मजदूरी बढ़ाने से उनमें कमी होगी। यह विश्वास इस बात पर आधारित है कि मौद्रिक मजदूरी की कटौती केवल रोजगार एवं उत्पादन स्तर को प्रभावित करती है। इन विचार के प्रतिपादकों को यह ध्यान नहीं रहा कि मौद्रिक मजदूरी में परिवर्तन होने से मौद्रिक आय एवं व्यय में भी परिवर्तन होते हैं। कीन्स इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मौद्रिक मजदूरी की दरों में परिवर्तन होने से रोजगार तथा उत्पादन के आकार में परिवर्तन नहीं हो सकते क्योंकि उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति इकाई से कम होती है। इसलिए व्यक्तियों की समस्त वास्तविक आय तथा कुल उत्पत्ति में वृद्धि होने से वास्तविक उपभोग में इतनी वृद्धि नहीं होगी जो अतिरिक्त उत्पत्ति को खरीद सके। कुल उत्पत्ति एवं वास्तविक आय में वृद्धि होने से समस्त वास्तविक आय आपूर्ति की अपेक्षा अधिक हो जायेगी। अतः मौद्रिक मजदूरी दरों में परिवर्तन होने से कीमतों एवं मौद्रिक आयों में तो सामानुपातिक वृद्धि हो जायेगी, किन्तु रोजगार, उत्पादन, वास्तविक आय अथवा वास्तविक मजदूरी के स्तर में वृद्धि नहीं होगी।

  2. व्यापार चक्र सिद्धान्त (Trade Cycle Theory) –

    कीन्स से पहले साधारणतया यह विश्वास किया जाता था कि आय, रोजगार तथा कीमतों की प्रारम्भिक वृद्धि अर्थव्यवस्था में स्फूर्ति का संचार बढ़ी हुई दर पर करती है जब तक कि पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त न हो जाये, किन्तु कीन्स का विचार है कि प्रभावी माँग का इसमें महत्त्वपूर्ण हाथ होता है, उसके अनुसार समृद्धि काल में व्यक्तियों की आदत तथा उपभोग रहने के कारण ही वे आय की वृद्धि की अपेक्षा कम खर्च करते हैं, क्योंकि बढ़ आय का एक बड़ा भाग व्यापारियों के हाथ में चला जाता है, जिनकी उपभोग की प्रवृत्ति अन्य वर्गों से कम होती है। परिणामतया समाज को कुल उपभोग प्रवृत्ति कम हो जाती है। अन्ततः निवेशों में भी कमी हो जाती है। जब बचतें निवेश से अधिक हो जाती हैं तो समृद्धि रुक जाती है तथा जब बचत निवेश कम होती है तो समृद्धि तीव्र हो जाती है। इस प्रकार निवेश गुणक के कार्य करने के कारण आय में कमी अथवा वृद्धि होती रहती है जिसके परिणामस्वरूप व्यापार का चक्रीय क्रम चलता रहता है।

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