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आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक विकास में अंतर

आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि में अन्तर

आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि में अन्तर

सामान्य रूप से आर्थिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि में कोई अन्तर नहीं माना जाता है। परन्तु प्रो० शुम्पीटर तथा अन्य कई अर्थशास्त्रियों ने इन दोनों शब्दों में भेद किया है। आर्थिक वृद्धि एक स्वाभाविक एवं सामान्य प्रक्रिया है जिसके लिये समाज को कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना होता है। इसके विपरीत आर्थिक विकास के लिये विशेष प्रयत्नों का किया जाना आवश्यक होता है। आर्थिक वृद्धि एवं आर्थिक विकास में अन्तर को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया गया है –

  1. आर्थिक वृद्धि स्वाभाविक क्रमिक व स्थिर गति वाला परिवर्तन है जबकि आर्थिक विकास प्रेरितएवं असतत् प्रकृति का परिवर्तन है।
  2. आर्थिक वृद्धि में केवल उत्पादन में वृद्धि का होना सम्मिलित होता है जबकि आर्थिक विकास में उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ प्राविधिक एवं संस्थागत परिवर्तनों का होना भी सम्मिलित रहता है।
  3. आर्थिक वृद्धि उन्नत देशों की समस्याओं का समाधान है जबकि आर्थिक विकास अल्प-विकसित देशों की समस्याओं को हल करने का एक रास्ता है।
  4. आर्थिक वृद्धि स्थैतिक समय की स्थिति है जबकि आर्थिक विकास गतिशील साम्य का एक रूप है।

आर्थिक संवृद्धि

आर्थिक विकास

1. आर्थिक संवृद्धि क्रमिक व दीर्घकाल में स्थिर होती है।

2. आर्थिक संवृद्धि आर्थिक व संस्थागत घटकों में बदलने पर स्वतः होती रहती है।

3. इसमें किसी नवीनता का सृजन नहीं होता है।

4. यह परम्पराओं व नियमित घटनाओं का यह परिणाम है।

5. आर्थिक उन्नति जाहिलों और काहिलों का यह नारा है।

6. इसका अर्थ केवल उत्पादन वृद्धि से है।

7. यह स्थैतिक साम्य का एक रूप है जिसमें देश अत्यंत धीमी गति से उन्नति करता है।

1. इसमें आकस्मिक एवं एक-एक करके परिवर्तन होते हैं।

2. इसमें उन्नति व परिवर्तन के लिए विशेष परिवर्तन करना जरूरी है।

3. इसमें प्रचलित तथ्यों में सुधार किये जाते हैं और नई शक्तियों से नये मूल्य का निर्माण किया जाता है।

4. उन्नति की प्रबल इच्छा और सृजनात्मक शक्तियों का परिणाम है।

5. स्फूर्तिदायक होता है तथा विकास की चाह करने वालों की मंजिल और पतवार दोनों होता है।

6. इसका अर्थ उत्पादन वृद्धि व प्राविधिक और संस्थागत परिवर्तनों से लगाया जाता है।

7. यह गतिशील साम्य का एक रूप है जिसमें एक देश तीव्र गति से उन्नति की ओर बढ़ता है।

आर्थिक संवृद्धि के सम्बन्ध में प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचार

आर्थिक विकास के सम्बन्ध में प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के द्वारा रखे गये विचारों में काफी सीमा तक समानता पायी जाती है। अतः यदि सभी विचारकों के विकास सिद्धान्त को एक सम्मिलित तथा संयुक्त रूप में प्रकट किया जाए तो उसका सामान्य प्रारूप इस प्रकार होगा –

  1. राज्य द्वारा न्यूनतम हस्तक्षेप

    प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने सदैव ही स्वतन्त्र व्यापार अर्थात् सम्बन्ध नीति का समर्थन किया है। इन्होंने पूर्ण प्रतियोगिता, उत्पादन व उपभोग की स्वतन्त्रता तथा निजी सम्पत्ति के अस्तित्व को आर्थिक विकास का उत्प्रेरक माना है।

  2. स्थिर अवस्था

    अर्थव्यवस्था में लाभों की मात्रा बढ़ने पर → पूँजी निवेश वृद्धि → मजदूरी कोष वृद्धि → जनसंख्या वृद्धि → माँग वृद्धि → अतिरिक्त श्रम व पूँजी का विनियोजन परन्तु उत्पत्ति ह्रास नियम के कारण लागत मूल्य वृद्धि →लगान व मजदूरी वृद्धि → लाभ में कमी →पूँजी विनियोजन में कमी →तकनीकी प्रगति में रुकावट →मजदूरी दर में कमी उसके फलस्वरूप अन्त में पूँजी संचय की प्रक्रिया दम तोड़ देती है। यही अवस्था स्थिर अवस्था को प्रदर्शित करती है।

  3. विकास एक संचयी प्रक्रिया है

    अधिकांश प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विचार था कि विकास एक संचयी प्रक्रिया है। एक बार विकास आरम्भ होने पर इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर संचयी रूप से पड़ना प्रारम्भ हो जाता है।

  4. लाभ घटने की प्रवृत्ति

    लाभ की प्रवृत्ति लगातार बढ़ने की नहीं होती क्योंकि पूँजीपतियों के बीच जब अधिक पूँजी संचय के लिए प्रतियोगिता बढ़ती है तो लाभ स्वतः ही घटना प्रारम्भ हो जाता है।

  5. लाभ पूँजी निवेश का प्रेरणास्त्रोत

    इनकी धारणा थी कि पूँजी निर्माण का कार्य अन्ततः पूँजीपतियों पर आधारित होता है, अतः इन्हें मिलने वाले लाभ की मात्रा अधिक होनी चाहिए।

  6. विकास हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन आवश्यक है

    प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री भौतिक वस्तुओं के उत्पादन में होने वाली वृद्धि को आर्थिक विकास का एक साधव मानते थे। इनके द्वारा विकास के घटकों के रूप में केवल भूमि, श्रम व पूँजी के अस्तित्व पर ही अधिक बल प्रदान किया गया था। इनकी दृष्टि में आर्थिक विकास का मापदण्ड राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि है।

  7. पूँजी संचय आर्थिक विकास की कुँजी

    प्रतिष्ठित सम्प्रदाय के अर्थशास्त्रियों के अनुसार पूँजी संचय आर्थिक विकास की एक आवश्यक शर्त है। इन्होंने पूँजी संचय की दर एवं आर्थिक विकास की दर में एक प्रत्यक्ष अनुपात की भी कल्पना की है।

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