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प्रो. जे.के. मेहता के आर्थिक विचार

प्रो. जे.के. मेहता के आर्थिक विचार

प्रो. जे.के. मेहता एक दार्शनिक तथा अर्थशास्त्री थे। उन पर महात्मा गाँधी का बहुत अधिक प्रभाव था। प्रो. मेहता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे।

प्रो. जे.के. मेहता के आर्थिक विचार

अर्थशास्त्र का क्षेत्र और परिभाषा

प्रो. मेहता का कहना था कि – “अर्थशास्त्र वह विज्ञान हैं जो मानवीय व्यवहार को इच्छारहित अवस्था में पहुँचने के एक साधन के रूप में अध्ययन करता है।” उनका विचार था कि मानव व्यवहार अर्थशास्त्र के विज्ञान की विषय-वस्तु है। यह साधारणतः मानव बुद्धि के असंतुलन की अवस्था का परिणाम है। असंतुलन आनन्द की अपेक्षा अधिक दर्द के कारण है।

आवश्यकतारहित अवस्था

आवश्यकतारहित अवस्था में न तो खाना-पीना और न अनार्जित आय सम्मिलित है। सभी चीज़ों के लिए इनकी आवश्यकता होती है जो स्वार्थहीन उद्देश्यों के लिए अर्जित नहीं होने चाहिए वरन् सभी के लिए जिनसे हमारी संवेदना का कार्य होता है। इस प्रकार आवश्यकतारहित भावना केवल हमारी अपनी खुशी के लिए बल्कि हमें सामाजिक कल्याण में योगदान के लिए समर्थ कर सकेगी।

आर्थिक सामान्यीकरण की प्रकृति

आर्थिक सिद्धान्त बताता है कि तथ्यों को उनके आकार की उचित व्यवस्था या उनके समय में स्थान की व्यवस्था से है। आर्थिक सामान्यीकरण हमें समझाता है कि पृथक एकल अनुभवों का कोई अर्थ नहीं है। उन्हें एक-दूसरे से सम्बन्धित करना होता है। एक सम्बन्ध गणितीय है और दूसरा दार्शनिक है।

स्थैतिक और प्रावैगिक अर्थशास्त्र

प्रो. मेहता ने बताया कि प्रावैगिक सकारात्मक धारणा नहीं है, यह स्थैतिक का नकारात्मक रूप है। समय तत्व का एक चर के रूप में स्थैतिक में प्रचलन ही प्रवैगिक है। स्थैतिक अर्थशास्त्र से तात्पर्य उस आर्थिक प्रणाली से है जो संतुलन में है। उनका कहना है कि प्रावैगिक अर्थशास्त्र क्रमिक समय अन्तराल पर अल्पकाल के अन्तर्गत संतुलन के अस्थायी बिन्दुओं का निर्धारण करता है। यह समय-समय पर परिवर्तित होता है और अन्तिम परिणामों से सम्बन्धित नहीं है। स्थैतिक अर्थशास्त्र का व्यापार चक्र के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रो. मेहता का विकासशील अर्थशास्त्र सिर्मन के आर्थिक प्रावैगिक अर्थशास्त्र के समान है जो आन्तरिक प्रक्रिया को सम्मिलित करता है।

उपभोक्ता की बचत

प्रो. मेहता का विचार है कि मार्शल की उपभोक्ता बचत केवल क्रेता की बचत है। यह उपयोगिता के बीच का अंतर है जो वह वस्तु के उपभोग से व्युत्पन्न करने की आशा रखता है और इसके खरीदने की लागत है। उनका कहना है कि आगे की आवश्यकताओं की अपेक्षा अब की वस्तुओं के लिए हमारी अधिक आवश्यकता होने पर, उपभोक्ता की बचत अधिक होगी। उनका कहना है कि “यह किसी के संसाधनों को विविध उपयोगों में रखने की संभावना के कारण है जो उपभोक्ता के लिए समान रूप से लाभदायक नहीं है।”

ब्याज का सिद्धान्त

प्रो. मेहता का विचार है कि सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दोनों रूपों से अर्थशास्त्र में ब्याज के सिद्धान्त का अत्यधिक महत्व है। उन्होंने ब्याज को पूँजी के अर्जन के रूप में परिभाषित किया जो इसकी सीमांत उत्पादकता द्वारा निर्धारित होता है। ब्याज की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-

  1. पूँजी की सीमान्त उत्पादकता
  2. त्याग का प्रयास
  3. प्रतीक्षा की कीमत पर
  4. ब्याज समय अधिमान की वास्तविक अभिव्यक्ति है।

मेहता का कहना था कि क्लासिकी और केन्जीय दोनों सिद्धान्तों में कोई अंतर नहीं है। दोनों सिद्धान्त वास्तव में एक समान है।

कल्याणकारी अर्थशास्त्र

प्रो. मेहता का कहना है कि मनुष्य का कल्याण, दिये हुये किसी समय पर संतुष्टि की मात्रा से है जो वह उस समय प्राप्त करता है, द्वारा मापा जाता है। उनका कहना है कि कल्याण एक नीतिगत धारणा है। समाज कल्याण भी कल्याण का एक रूप है जो एक विशिष्ट मनुष्य के मस्तिष्क में स्थित होता है। सामाजिक कल्याण मनुष्य के मस्तिष्क में संतुष्टि का कुल योग है। अर्थशास्त्र का प्रत्येक अध्ययन कुछ अर्थ में कल्याण का अध्ययन है।

उपवास का अर्थशास्त्र

मेहता का कहना है कि उपवास का अर्थ खाना और पीना नहीं है। अगर कोई व्यक्ति उपवास में है तो उसके शरीर और मस्तिष्क दोनों को उपवास करना चाहिए। उपवास से अर्थ चिंतन को रोकना है जो सामान्यतः साधारण मनुष्य के लिए कठिन है। शारीरिक उपवास से तात्पर्य है कि शरीर से विषैले पदार्थ को हटाया जाये। उनका कहना है कि इसी प्रकार एक फर्म दो प्रकार से उपवास कर सकती है। पहला शारीरिक उपवास अर्थात् यह अपने भवन, उद्यम, मशीनरी, वस्तुओं के स्टाक आदि में कोई वृद्धि नहीं करे। द्वितीय मानसिक विकास अर्थात् संगठनकर्ता पवित्रता से सोचे यह अन्य उत्पादकों के बाजार पर तकनीकी क्षमता में सुधार करके अपना अधिकार प्राप्त करने का विचार नहीं करे जो बेरोजगारी को बढ़ायेगा।

वृद्धि और निवेश

प्रो. मेहता का विचार था कि वृद्धि से तात्पर्य जनसंख्या, धन और प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि है। जब आय बढ़ती है अर्थव्यवस्था उन्नति करती है, किन्तु नैतिक रूप से इसका पतन होता है। उन्होंने बताया कि वृद्धि और नैतिक प्रगति के बीच विपरीत सम्बन्ध होता है। प्रो. मेहता के  विचार में, मानवीय कारकों का परिमाणात्मक या गुणात्मक सुधार पूँजीगत वस्तुओं में वृद्धि या धन के उत्पादन से अधिक महत्वपूर्ण है।

प्रो. मेहता ने नवप्रवर्तन और निवेश वृद्धि पर बल दिया, जो आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक है। प्रथम शर्त है कि पूँजी अधिक उत्पादक होनी चाहिए। द्वितीय शर्त उत्पादन की अवधि । निवेश और अन्तिम उत्पादन के बीच समय अन्तराल होता है। अगर समय अधिमान की दर नीची है तो निवेश अधिक होगा।

समष्टि आर्थिक वृद्धि

प्रो. मेहता का कहना है कि पिछड़ी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे या संरचनात्मक स्थिरता के परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए बैंकिंग प्रणाली, परिवहन एवं संचार की अच्छी प्रणाली प्रभावी संगठन और पूँजी निर्माण की आवश्यकता होती है। प्रो. मेहता का कहना है कि लाभकारी निवेश बढ़ेगा, अगर “मजदूरों के हाथों में क्रय शक्ति में वृद्धि जनसंख्या की वृद्धि से होगी।

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