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1935 के अधिनियम के अन्तर्गत संघीय शासन एवं इसकी विशेषताएँ तथा दोष

1935 अधिनियम के अन्तर्गत संघ एवं इसकी विशेषताएँ तथा दोष

1935 के अधिनियम के अंतर्गत भारत के संघीय शासन की योजना रखी गई। इस संघ का निर्माण ब्रिटिश भरतीय राज्यों तथा देशी रियायतों को मिलाकर किया जाना था। संघ के अंतर्गत तीन प्रकार की इकाइयाँ रखी गई थीं।

  1. ब्रिटिश भारतीय प्रांत
  2. चीफ़ कमिश्नरों के प्रांत
  3. देशी रियासतें

ब्रिटिश भारतीय प्रांतों की संख्या 11 थी। ये प्रांत थे- मद्रास, बंबई, बंगाल, पंजाब, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, आसाम, उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रांत और सिंध।

प्रांतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था जब कि देशी रियासतों के लिए संघ में शामिल होना ऐच्छिक था। प्रत्येक देशी रियासत को, जो संघ में शामिल होना चाहती थी, एक स्वीकृति लेख पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। इस स्वीकृति लेख में वह रियासत उन शतों का उल्लेख करती है, जिन पर वह संघ में शामिल होने के लिए तैयार थी। इसमें उन सब विषयों का भी वर्णन होता था जिन पर रियासत संघ की प्रभुसत्ता स्वीकार करने को तैयार हो। संघ की सत्ता को किसी दूसरे स्वीकृति लेख द्वरा वृद्धि की जा सकती थी पर उसे कम नहीं किया जा सकता था। संघीय व्यवस्थापिका को इस स्वीकृति लेख में बीस वर्ष तक कोई परिवर्तन करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिश सम्राट स्वीकृति लेख को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं था। संघ के उन्हीं रियासतों को शामिल किया जाता था जो अधिकांश संघीय विषयों पर संघ की सत्ता स्वीकार करने के लिए तैयार हों। कुछ विशेष विषयों पर वह, विशेष परिस्थितियों में हो, संघ की सत्ता स्वीकार करने में इनकार कर सकती थी, जैसे डाकतार सेवा, मुद्रा आदि।

1935 के अधिनियम के अंतर्गत जिस संघीय शासन की स्थापना की जानी थी, उसमें एक संघ की सभी मुख्य विशेषताएँ मौजूद थी। संघ की तीन मुख्य विशेषताएँ होती है – लिखित तथा कठोर संविधान, शक्तियों का बँटवारा, संघीय न्यायपालिका। 1935 के अधिनियम में ये तीनों बाते संघ के लिए अपनाई गई।

1935 के अधिनियम के अंतर्गत संविधान लिखित तथा कठोर था। केन्द्र तथा इकाइयों के बीच शक्तियों का बँटवारा किया गया था, अधिनियम के अंतर्गत विषयों का बँटवारा करने के लिए तीन सूचियाँ बनाई गई-संघीय सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची।

संघीय सूची में अखिल भारतीय हित के 59 विषय रखे गए। कुछ प्रमुख विषय थे – मुद्रा, डाक व तार, रेल, केन्द्रीय सेवाएँ, विदेशी मामले, सशस्त्र सेनाएँ संघीय सूची के विषयो पर कानून बनाने का अधिकार केवल केन्द्रीय विधान मंडल को प्राप्त था।

प्रांतीय सूची में स्थान हित के 54 विषयों को रखा गया। प्रमुख विषय थे – शिक्षा, भू-राजस्व, स्थानीय स्वशासन, कानून और व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि सिंचाई और नहरें, जंगल तथा खाने आदि। इन पर साधारण स्थिति में कानून बनाने का अधिकार प्रांतीय विधान मंडलों को था।

समवर्ती सूची में सामान्य हित के 36 विषय रखे गए। इन पर संघीय तथा प्रांतीय दोनों विधान मंडल कानून बना सकते थे। प्रांतीय और केन्द्रीय विधान मंडल के कानून में किसी प्रकार विरोध उत्पत्र होने की स्थिति में, जब तक प्रांतीय कानूनों का विचारार्थ संरक्षित न किया गया हो और गवर्नर जनरल ने उस पर अपनी स्वीकृति न दे दी हो, संघीय कानून ही मान्य समझा जाएगा।

जहाँ तक अवशिष्ट शक्तियों का प्रश्न था, अधिनियम मेंयह व्यवस्था की गई थी कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से किसी अवशिष्ट विषय पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्रीय विधान मंडल अथवा प्रांतीय विधान मंडल को दे सकता था।

अधिनियम में एक संघीय न्यायालय की भी व्यवस्था की गई थी। इस न्यायालय को केन्द्र तथा इकाइयों के झगड़ों तथा इकाइयों के आपसी झगड़ों का निर्णय करने का अधिकार था। उसे अधिनियम की व्याख्या करने का भी अधिकार था, परंतु यह भारत के लिए उच्चतम न्यायालय नहीं था।

इस प्रकार प्रस्तावित संघ में, एक संघ की सभी मुख्य विशेषताएँ मौजूद थी, परंतु इसके बावजूद 1935 के अधिनियम के अंतर्गत स्थापित होने वाला संघ वास्तविक अर्थों में संघ नहीं था। वह संसार के अन्य सभी संघों, जैसे कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा अमरीका सबसे भिन्न था। इस संघ की कुछ ऐसी अनूठी विशेषताएँ थी जो इसे अन्य सभी संघों से पृथक् करती थी।

संघ की विशेषताएँ

संघ की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार थी सर्वप्रथम यह संघ प्रभुसत्ता संपन्न घटकों का स्वैच्छिक संघ नहीं था। देशी रियासतों के संदर्भ में हम उनका स्वेच्छा से शामिल होना भले ही मान ले पर ब्रिटिश भारतीय प्रांतों का शामिल होना एक अनिवार्य क्रिया थी जो उन पर बाहर से थोपी गई थी।

संघ की इकाइइयों में असमानता थी। संघ की इकाइयों में क्षेत्रफल, महत्त्व, शासनपद्धति आदि में भारी असमानता थी। ब्रिटिश प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना हो चुकी थी परंतु देशी रियायतों में अभी तक निरंकुशता का साम्राज्य था।

इसके अलावा संघ की इकाइयों पर संघ को एक समान प्रभुत्व प्राप्त नहीं था। चीफ़ कमिश्नर के प्रांतों पर संघीय सरकार का नियंत्रण सबसे अधिक था, इनके लिए कानूनों का निर्माण भी संघीय विधान मंडल करता था। देशी रियासतों पर संघ की सत्ता सबसे कम थी। यही नहीं, प्रत्येक रियासत पर भी संघ को समान सत्ता प्राप्त नहीं थी, क्योंकि यह देशी रियासतों की इच्छा था कि वे स्वीकृति लेख द्वारा किन विषयों पर संघ को सत्ता को स्वीकार करें।

प्रायः सभी संघों में, संघीय विधान मंडल के उच्च सदन में, संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है। परंतु भारतीय संघ में इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व नहीं प्रदान किया गया था। सभी संघों में निम्न सदन के लिए प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था होती है, परन्तु भारत में संघीय सभा के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था रखी गई थी। भारतीय संघ की एक अन्य विशेषता जो इसे अन्य संघों पृथक् करती थी वह यह थी कि संघीय विधानमंडल में प्रांतों के प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आए थे, जब कि देशी रियासतों के प्रतिनिधि मनोनीत किए जाते थे।

प्रायः सभी संविधानों में संशोधन करने का अधिकार संसद को होता है परन्तु भारत में 1935 के अधिनियम के अंतर्गत संशोधन का अधिकार केन्द्रीय विधान मंडल को न देकर, ब्रिटिश संसद को दिया। साधारणतया संघीय स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करती है। दिन प्रतिदिन के प्रशासन में किसी वाह्य सत्ता को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता, परन्तु भारतीय संघ और उसकी इकाइयों के संबंध में गवर्नर जनरल तथा भारत सचिव को विशेष अधिकार प्राप्त थे।

संघीय योजना के दोष

1935 के अधिनियम के अंतर्गत जिस संघीय शासन की योजन रखी गई, वह दोषपूर्ण थी। वास्तव में इसकी जो विशेषताएँ थीं, वे ही इसके दोष थे। इन दोषों की वजह से सभी भारतीयों ने इसका विरोध किया।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारत राजनीतिक, तथा आर्थिक प्रगति के लिए भारत का राजनीतिक एकीकरण अनिवार्य थे। मुख्य रूप से छोटी-छोटी रियासतों के रूप में भारत का मूर्खतापूर्ण विजान किया हुआ था। भारत के 45% भाग पर एक तरह का प्रशासन था तो 5 5% पर बिल्कुल दूसरी तरह का। इस अंतर को ब्रिटिश सरकार ने अपने हितों की रक्षा के लिए कायम रखा था।

लेकिन संघ संबंधी जो प्रस्ताव आए उनका उद्देश्य किसी रूप में इस विभाजन को समाप्त करना नहीं था और न उनका उद्देश्य समान प्रशासनिक प्रणाली कायम करना था। ‘इन प्रस्तावों का केवल एक मकसद था जो बहुत स्पष्ट था, इनके जरिए प्रतिक्रियावादी पुरावशेषों को और मजबूत बनाना था और उन्हें भारत की केन्द्रीय सरकार के कर्मस्थल तक लाना था ताकि ब्रिटिश भारत के साम्राज्यवादियों के कमजोर पड़ते जा रहे प्रभुत्व को मजबूत बनाया जा सके और राष्ट्रीय आंदोलन अर्थात् राष्ट्रीय एकीकरण के आन्दोलनों का मुक़ाबला किया जा सके।’

राज्य संघ का वास्तविक उद्देश्य यह था कि ब्रिटिश भरत में प्रतिक्रियावादी शक्तियों का पलड़ा भारी किया जाए। यह बात प्रस्तावित सघीय विधान मंडल के दोनों सदनों में देशी रियासतों को दिए गए विशेष प्रतिनिधित्व से स्पष्ट हो जाती है। समूचे भारत की आबादी का 28 प्रतिशत भाग इन देशी रियासतों में रहता था, जब कि इन्हें उच्च सदन में 2/5 और निम्न सदन अनुपात में 1/3 में प्रतिनिधित्व मिलता था।

यही नहीं, इन प्रतिनिधियों को देशी रियासतों द्वारा नामजद किया जाता था। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि ताकि देशी रियासतों के शासकों के प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार के प्रति वफ़ादार रहें और संघ में जमींदारों सथा अल्पसंख्यकों के साथ मिलकर भारत की प्रगति के मार्ग में रोड़ा अटकाएँ। प्रो. कीथ ने भी लिखा है कि संघात्मक योजना को लेकर किसी प्रकार की संतुष्टि अनुभव करना गलती है। जिन इकाइयों से मिलकर यह बना है, उनमें इतनी अधिक असमानता है कि उनको आसानी से नहीं मिलाया जा सकता। यह भी स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने इस योजना को इसलिए माना है कि इससे ब्रिटिश भारत के ख़तरनाक लोकतंत्रात्मक तत्त्व पर शुद्ध अनुदारवादी तत्त्व का अंकुश लग जाएगा।

संघीय विधान मंडल की शक्तियों पर बहुत अधिक सीमाएँ लगा दी गई। इसे बिलकुल कमज़ोर बना दिया गया था। संघ ने निम्न सदन के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था की गई, सांप्रदायिक चुनाव-पद्धति को न केवल कायम रखा गया वरन् इसका और विस्तार किया गया। यह व्यवस्था लोकतंत्रात्मक सदन को कमज़ोर करने लिए थी।

इसके अलावा विधान मंडल पर गवर्नर जनरल तथा ब्रिटिश संसाद की आसाधरण शक्तियों को काफी रुकावट थी। गवर्नर जनरल विधान मंडल द्वारा पास किए हुए किसी भी प्रस्ताव को अस्वीकार कर सकता था और किसी ऐसी प्रस्ताव को कानून का रूप दे सकता था जिसे विधान मंडल ने पास करने से इनकार कर दिया हो। गवर्नर जनरल को यह भी अधिकार था कि वह विधान सभा द्वारा अस्वीकृत किसी अनुपान की माँग को विशेष दायित्वों के निर्वाह के लिए आवश्यक घोषित कर उसे खर्च को प्राधिकृत कर दें।

गवर्नर जनरल तथा गवर्नर अपने विशेष दायित्वों के नाम पर दैनिक प्रशासन में भी हस्तक्षेप कर सकते थे।

संघ योजना का एक अन्य दोष यह था कि इसके अन्तर्गत प्रांतों पर केन्द्र का नियंत्रण काफी था। असाधारण शक्तियां, संघीय योजना के अन्तर्गत न तो प्रांतों को दी गई न संघ को, बल्कि इस बारे में अंतिम निर्णय करने का अधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया था। गवर्नर जनरल को ऐसी असाधारण शक्ति किसी भी संघ में नहीं दी जाती है।

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