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सविनय अवज्ञा आन्दोलन (Civil Disobedience Movement)

सविनय अवज्ञा आन्दोलन 

सविनय अवज्ञा आन्दोलन (Civil Disobedience Movement)

महात्मा गाँधी ने निम्नलिखित परिस्थितियों में 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ किया।

1) आशा और निराशा का वातावरण

मई 1929 के आम चुनाव में अनुदार दल के पराजय के बाद ब्रिटेन में लिवरल पार्टी के सहयोग से लेकर पार्टी की सरकार गठित हुई जिसमें रैमजे मैकडोनाल्ड ने राष्ट्र मण्डलीय देशों के श्रमिक सम्मेलन में इस बात की घोषणा की कि भारत शीघ्र ही एक अधिराज्य के रूप में राष्ट्र मण्डल में शामिल हो जायेगा। इसके साथ ही उन्होंने वायसराय लार्ड इर्विन को भारत के सम्बन्ध में परामर्श के लिए ब्रिटेन बुलाया। वहाँ वापस लौटने के पश्चात् उनहोंने 31 अक्टूबर 1929 को इस आशय की घोषण की भारत को अन्ततः औपनिवेशक स्वराज्य दे दिया जायेगा तथा साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होने के शीघ्र ही बाद ब्रिटिश सरकार एक गोलमेज सम्मेल बुलायेगी जिसमें उसके साथ-साथ ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व भी भाग लेंगे तथा उस सम्मेलन में भारत के लिए नए संविधान के सिद्धान्त पर विचार किया जायेगा। औपनिवेशक स्वराज्य देने की कोई कीमत निश्चित तिथि न घोषित करने से यह घोषणा अस्पष्ट तो थी परन्तु इससे भारतीयों के मन में आशा गाँधी और उन्हें उत्साह का अनुभव हुआ।

आशा और उत्साह के इस वातावरण में वायसराय की इस घोषणा के तत्काल बाद ही भारतीय नेताओं का दिल्ली में एक सम्मेलन हुआ जिसमें महात्मा गाँधी, पं. मोती लाल नेहरू, सर तेज बहादुर सपू, पं. मदन मोहन मालवीय, डॉ. अन्सारी, डॉ. भुंजे, श्रीमती एनी बेसेण्ट, बी० एस०एस० शास्त्री तथा अन्य कई नेताओं के हस्ताक्षर से एक घोषणा पत्र जारी कर वायसराय लार्ड इर्विन को उनकी सब्दावना के लिए धन्यवाद देते हुए उचित वातावरण तैयार करने हेतु राजनीतिक बन्दियों को मुक्त करने तथा शीघ्रातिशीघ्र प्रस्तावित सम्मेलन बुलाने की अपील की गयी। कांग्रेस का युवावर्ग इससे सन्तुष्ट नहीं था क्योंकि वह पूर्ण स्वराज्य का पक्षधर था। इसके विरोध में पं. जवाहर लाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस ने कार्य समिति से इस्तीफा दे दिया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड तथा लार्ड इरविन की इस अस्पष्ट घोषणा के केवल उसने ही नहीं अपितु ब्रिटेन की अनुदार और लिबरल दोनों ही पाटियों के लोगों ने भी इस पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया प्रकट की। अनुदार पार्टी के नेता चर्चिल ने कहा कि भारत को अपनिवेशिक स्वराज्य देना एक अपराध होगा। यह विरोध शान्त करने के लिए मजदूर दल की सरकार ने भारत के प्रति पुरानी नीति में किसी भी प्रकार कान्तिकारी परिवर्तन न करने का ब्रिटिश जनता को आश्वासन दिया।

ब्रिटेन की सरकार की इस दोहरी नीति (एक तरफ तो भारतीयों को औपनिवेशिक स्वराज्य देने और दूसरी तरफ ब्रिटिश जनता को भारत के प्रति पुरानी नीति से कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन न करने का आश्वासन) से भारतीयों के मन को आघात पहुंचा और उन्हें निराशा हुई। निराशा की इस स्थिति में महात्मा गाँधी ने पं. मोती लाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, सरकार बल्लभ भाई पटेल, मि. जिन्ना के साथ 23 दिसम्बर 1929 को वायसराय महोदय से भेंट कर यह जानकारी प्राप्त करनी चाही कि प्रस्ताविक गोलमेज सम्मेलन किस बात के लिए आयोजित होगा – क्या उसमें भारत को अधिराज्य देने की तिथि निश्चित की जायेगी या क्या उसमें अधिराज्य भारत का संविधान तैयार किया जायेगा? कोई सन्तोषजनक उत्तर न प्राप्त होने से भारतीय नेताओं को और निराशा हुई।

2) नेहरू रिपोर्ट पर कांग्रेस में मतभेद और समझौता

नेहरू रिपोर्ट पर कांग्रेस की पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच काफी मतभेद था। पं. जवाहर लाल नेहरू तथा सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में नयी पीढ़ी पूर्ण स्वराज्य की पक्षधर थी और वह इसी के आधार पर रिपोर्ट स्वीकार करने को तैयार थी। पुरानी पीढ़ी उसमें कोई परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं थी। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (दिसम्बर 1928) में महात्मा गाँधी की मध्यस्थता से उनके प्रस्ताव के आधार पर किसी प्रकार दोनों पक्षों के बीच समझौता सम्भव हो पाया तथा नेहरू रिपोर्ट स्वीकृत हुई। महात्मा गाँधी का उक्त प्रस्ताव ब्रिटिश शासन के लिए के अल्टीमेटम ही था। उसमें कहा गया था कि यदि शासन यह रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1929 तक स्वीकार नहीं कर लेता तो कांग्रेस ‘करबन्दी’ आदि के रूप में असहयोग आन्दोलन चालयेगी।

3) लाहौर अधिवेशन (दिसम्बर 1929) तथा कार्य समिति की बैठक (जनवरी 1930) के बाद की स्थिति 

ब्रिटिश सरकार की दोहरी और अस्पष्ट नीति से उत्पन्न निराशा एवं क्षोभ के वातावरण में दिसम्बर 1929 में कांग्रेस का लौहार अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता कांग्रेस के युवावर्ग नेता पं. जवाहर लाल नेहरू ने की। रावी नदी के तट पर आयोजित उस अधिवेशन में 31 दिसम्बर, 1929 की मध्यरात्रि में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। कांग्रेस के इस कदम ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को महत्वपूर्ण एवं क्रान्तिकारी मोड़ दिया। उसके युवावर्ग की यह ऐतिहासिक जीत थी। उस प्रस्ताव में पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति को लक्ष्य घोषित करते हुए प्रस्तावित गोलमेज सम्मेलन को निरर्थक की संज्ञा दी गयी तथा लोगों से भावी चुनावों के बहिष्कार और विधान मण्डलों एवं अन्य सरकारी समितियों की सदस्यता से इस्तीफा देने की अपील की गयी। इसी के साथ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को जब भी उचित समझे सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने के लिए अधिकृत भी किया गया। इस अधिवेशन के इस प्रस्ताव से यह बात साफ हो गयी कि भारत अब अपनी पूर्ण स्वाधीनता की लड़ाई शुरू करेगा जो अहिंसात्मक तरीके से होगी। इसका एक महत्वपूर्ण तात्कालिक परिणाम और सामने आया और वह जनतंत्रवादी दल की स्थापना का होगा।

इस अधिवेशन के तत्काल बाद ही जनवरी 1930 को कांग्रेस की नयी कार्यसमिति की बैठक जिसमें प्रति वर्ष 26 जनवरी का स्वाधीनता दिवस मानने का निश्चय किया गया। इस अवसर पर पढ़े जाने के लिए एक घोषणापत्र स्वीकार किया गया जिसमें स्वाधीनता को जन्मसिद्ध अधिकार घोषित करने हुए निर्धन भारत के शोषण तथा राजनीतिक आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से उसके विनाश के लिए ब्रिटिश सरकार की कटु आलोचना की गयी। इसी के साथ अंग्रेजों से सम्बन्ध विच्छेद कर स्वाधीनता प्राप्त करने का आह्वान भी किया गया। इसमें यह भी कहा गया कि जिस देश ने हमारा सर्वनाश किया है, उसके अधीन रहना मनुष्य और ईश्वर के प्रति अपराध है कार्यसमिति के इस प्रस्ताव से यह बात साफ हो गयी कि भारतीय जनता अब पूर्ण स्वराज्य के लिए संघर्ष प्रारम्भ कर देगी। कार्यसमिति के निश्चय के सन्दर्भ में 26 जनवरी, 1930 को पहला स्वाधीनता दिवस सभी स्थापनों पर अति उत्साह एवं निःस्वार्थ भाव से बनाया गया। इस अवसर पर लोगों ने देशभक्ति और आत्म बलिदान की भावना का पूर्ण प्रदर्शन किया।

4) देश की राजनीतिक और आर्थिक नीति

लाहौर अधिवेशन के समय तथा उसके बाद देश की राजनीतिक स्थित अत्यन्त उत्तेजनापूर्ण थी। कांग्रेस का युवा वर्ग पूरी तरह सक्रिय हो पूर्ण स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश शासन के विरूद्ध संघर्ष करने को आतुर थे। मिस मेया की पुस्तक ‘मदर इण्डिया’ से भी भारतीयों के मन में अंग्रेजों के विरुद्ध विछोभ की भावना तेज हुई। 1930 की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी का भारत पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ा तथा उसकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी थी। डाक्टर पट्ठाभिसीतारमैया के अनुवाद कृषिजन्य वस्तुओं के भाव में 50% से भी अधिक की गिरावट आयी तथा किसानों को आर्थिक हालत इतनी खराब हो गयी कि वे एक गज कपड़ा और एक बोतल मिट्टी का तेल भी नहीं खरीद सकते थे। कर, लगान और ऋण की अदायगी करने में असमर्थ थे व्यावसायिक और औद्योगिक क्षेत्र में भी काफी असन्तोष व्याप्त था। इसके फलस्वरूप कांग्रेस को उद्योगपतियों और व्यापारियों का पहले से भी अधिक समर्थन तथा आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ। सरकारी दमन, अपनी कष्टप्रद आर्थिक स्थिति तथा अपने शोषण के कारण मजदूर वर्ग में भी व्यापक क्षोभ और असन्तोष व्याप्त था।

मार्च, 1929 में ‘मेरठ षड्यन्त्र अभियोग के अन्तर्गत 126 मजदूर नेताओं पर मुकदमा चलाने तथा उसमें 27 को राजद्रोह के अपराध में लम्बी अवधि की सजा देने से भी मजदूर क्षुब्ध एवं रूष्ट थे मार्क्सवादी विचारधारा तथा राष्ट्रीय आन्दोलन एवं श्रमिक आन्दोलनों में कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रिय भूमिका से मजदूर में वर्ग संघर्ष की भावना जोर पकड़ रही थी। मजदूरों में वर्ग संघर्ष की भावना तेज होने के साथ-साथ उस समय क्रान्तिकारी आन्दोलन भी जोर पर था। देश के अधिकतर प्रमुख क्रान्तिकारी मार्क्सवाद से प्रभावित थे। हिंसात्मक क्रान्ति के जरिये भारत में मार्क्सवादी समाजवादी समाज की स्थापना के पक्षधर थे। ऐसी राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में कांग्रेस के लिए यह बाध्यता हो गयी कि यह सशक्त अहिंसात्मक आन्दोलन की शुरूआत करें। यदि वह ऐसा करने में चूक जाती तो माक्र्सवाद द्वारा प्रभावित हिंसात्मक क्रान्ति को जोर पकड़ना निश्चित एवं आवश्म्भावी था।

5) 26 जनवरी, 1930 ई. का ऐतिहासिक दिवस

कांग्रेस कार्य समिति द्वारा 2 जनवरी, 1930 की बैङ्गक में प्रतिवर्ष 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाने की जो घोषणा की गयी थी, उस निश्चय के अनुसार 26 जनवरी, 1930 ई. को भारत के ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में पूर्ण स्वाधीनता दिवस बहुत उत्साहपूर्वक मनाया गया। इस दिवस के सम्बन्ध में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिख है – ‘स्वाधीनता दिवस जिस ढंग से मनाया गया, उससे प्रकट हुआ कि ऊपर दिखने वाली शिथिलता और निराशा की तह में असीम भावना, उत्साह और स्वार्थ त्याग की तैयारी दबी पड़ी थी। स्वदेश भक्ति और आत्म बलिदान के अंगारे राजभक्ति या कानून और व्यवस्था की गुलामी की रूख से केवल ढंके हुए थे। जरूरत इतनी ही थी कि भावना, और उत्साह के लाल अंगारों पर जमी हुयी राख को फूंक माकर हटा दिया जाय।

6) कांग्रेस का आन्दोलन छोड़ने का निश्चय

कांग्रेस कार्यकारिणी की एक बैठक 14 से 16 जनवरी, 1930 तक साबरमती में हुई। कार्यकारिणी ने स्थिति का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया और एक प्रस्ताव पास कर महात्मा गाँधी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने के सम्पूर्ण अधिकार दे दिये।

यद्यपि कार्यकारिणी ने गाँधी को आन्दोलन प्रारम्भ करने के सम्पूर्ण अधिकार दे दिये थे, किन्तु शान्तिवादी और समझौते में विश्वास करने वाले होने के नाते गाँधी ने वायसराय को एक मौका दिया। अपने साप्ताहिक पत्र ‘यंग इण्डिया’ के लेख में उन्होंने वायसराय को निम्नलिखित 11 शर्ते बतायीं और आश्वासन दिया कि यदि सरकार उन्हें मान लें, तो उसे सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नाम भी नहीं सुनना पड़ेगा।

  1. पूर्ण नशबन्दी हो।
  2. मुद्रा विनिमय में एक रुपया एक शिलिंग चार पैसे के बराबर माना जाय।
  3. मालगुजारी कर दी जाय और मालगुजारी को विधान मण्डल के नियन्त्रण में रखा जाय।
  4. नमक पर लगने वाला कर बन्द हो।
  5. सैनिक व्यय कम हो और शुरू में उसे आधा कर दिया जाय।
  6. शासन व्यय में कमी करने के लिए बड़े अधिकारियों के वेतन आधे या उससे कम कर दिये जायें।
  7. विदेशी वस्त्रों पर तट कर लगाया जाय, ताकि देशी उद्योग का संरक्षण हो।
  8. तटीय व्यापार संरक्षण कानून पारित किया जाय।
  9. हत्या कर हत्या की चेष्टा में दण्डित बन्दियों को छोड़कर, सभी राजनीतिक बन्दी रिहा कर दिये जायँ, सभी मुकदमे वापस ले लिये जायँ और भारत से निर्वासित किये गये सभी लोगों को आने दिया जाय।
  10. खुफिया पुलिस तोड़ दी जाय या इसे जन-नियन्त्रण में रखा जाय।
  11. जन नियन्त्रण में आत्म रक्षा के लिए बन्दूक आदि हथियारों के लाइसेंस दिये जायें।

सरकार की ओर से कोई उत्तर न मिला, इतना ही नहीं आन्दोलन छिड़ने पर, उसे अधिक सफलता न मिले, इसलिए सरकार ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी जारी रखी। नेताओं में सुभाषचन्द्र बोस भी गिरफ्तार हुए और 11 अन्य व्यक्तियों के साथ उन्हें एक वर्ष की कड़ी कैद की सजा हुई।

यद्यपि सरकार ने महात्मा गाँधी के प्रस्ताव का कोई जवाब नहीं दिया था, किन्तु महात्मा गाँधी ने सरकार से सुलह का एक और प्रयत्न किया। इस बार उन्होंने अपने एक अंग्रेज मित्र रेजीवल रेनाल्डस की मार्फत वायसराय को एक पत्र भेजा। इस पत्र में उन्होंने लिखा कि ‘यदि आपको मेरे पत्र में कोताओं में सुभाषचन्द्र बोस भी गिरफ्तार हुए और 11 अन्य व्यक्तियों के साथ उन्हें एक वर्ष की कड़ी कैद की सजा हुई।

यद्यपि सरकार ने महात्मा गाँधी के प्रस्ताव को कोई जबाब नहीं दिया था, किन्तु महात्मा गाँधी ने सरकार से सुलह का एक और प्रत्यन्त किया। इस बार उन्होंने अपने एक अंग्रेज मित्र रेजीवल रेनाल्डस की मार्फत वायसराय को एक पत्र भेजा। इस पत्र में उन्होंने लिखा कि यदि आपकों मेरे पत्र में कोई सार दिखायी दे और आप मेरे साथ बातचीत करना चाहे, तो पत्र पहुँचते ही आप मुझे तार कर दीजिये। पत्र के उत्तर में वायसराय ने सिर्फ इतना कहा कि मुझे घुटने टेकर रोटी माँगी थी, पर मुझे पत्थर मिला। ब्रिटिश राज्य केवल शक्ति पहचानता है और इसीलिए मुझे वायसराय के उत्तर से आश्चर्य नहीं हुआ है। हमारे राष्ट्र के भाग्य में जेल की शान्ति ही एकमात्र शान्ति है। समस्त भारतवर्ष एक विशाल कारागृह है। में इस कानून को नहीं मानता और उद्गार प्रकट करने में असहाय राष्ट्र हृदय को मसलने वाली इस लादी गयी शान्ति को शोकमय एकरसता को भंग करना अपना पुनीत कर्त्तव्य मानता हूँ।

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