सविनय अवज्ञा आन्दोलन का विकास तथा प्रथम गोलमेज सम्मेलन
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रारम्भ
दाण्डी यात्रा शासन की हडधर्मी के कारण महात्माजी ने अब आन्दोलन चलाने के ढंग पर विचार करना प्रारम्भ किये बिना नमक बनायेंगे और इस प्रकार कानून का उल्लंघन करेंगे।
11 मार्च, 1930 को साबरमती के मैदान में 75 हजार व्यक्तियों ने एकत्रित होकर प्रण किया कि जब तक भारत स्वाधीन नहीं हो जाता तब तक न तो हम स्वयं चैन लेंगे और न सरकार को चैन लेने देंगे।
12 मार्च 1930 को महात्मा गाँधी और उनके द्वारा चुने गये 79 कार्यकर्ता साबरमती आश्रम में डाण्डी समुद्र तट की ओर चल पड़े। दो सौ मील की लम्बी यात्रा पैदल चलकर 24 दिनों में तय की गयी। बल्लभ भाई पटेल आगे चले और उनहोंने महात्मा जी के आगमन के लिए जनता को तैयार किया। इस महान यात्रा के मार्ग में ग्रामवासियों ने सहस्रों की संख्या में महात्मा गाँधी का अभिनन्दन किया। सुभाषचन्द्र बोस ने महात्मा गाँधी की ऐतिहासिक यात्रा की तुलना इल्बा से लौटने पर नैपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी के राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने हेतु रोम मार्च से की है।
महात्मा गाँधी 5 अप्रैल, 1930 ई. को डाण्डी पहुंचे और 6 अप्रैल को जलियाँवाला बाग नरमेघ के अविस्मणीय दिन उन्होंने डाण्डी समुद्र तट पर स्वयं नमक कानून का उल्लंघन कर सत्याग्रह का श्रीगणेश किया।
सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम
गाँधीजी का उपर्युक्त कार्य भारत के विभिन्न भागों में विशाल पैमाने पर सविनय अवज्ञा के शुरू किये जाने का संकेत चिह्न था। 6 अप्रैल को महात्मा गाँधी ने आन्दोलन के लिए निम्न कार्यक्रम निर्धारित किया। गाँव-गाँव को नमक बनाने के लिए निकल पड़ना चाहिए। बहनों को शराब, अफीम और विदेशी कपड़े की दुकानों पर धरना देना चाहिए। विदेशी वस्त्रों को जला देना चाहिये। हिन्दुओं को अस्पृश्यता त्याग देनी चाहिए। विद्यार्थी सरकारी शिक्षण संस्थाएँ छोड़ दें और सरकारी नौकर अपनी सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दें। 14 मई को महात्माजी की गिरफ्तारी के बाद कर बन्दी को भी आन्दोलन के कार्यक्रम में सम्मिलित कर लिया गया।
आन्दोलन का उत्कर्ष और सरकार का दमन चक्र
महात्मा जी द्वारा नमक कानून का उल्लंघन किये जाने के शीघ्र बाद ही आन्दोलन पूरे जोर से आ गया और इसने सम्पूर्ण देश को अपने प्रभाव में ले लिया।
आन्दोलन के प्रारम्भ होने के पहले ब्रिटिश सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों ने आन्दोलन की टेकनीक का उपहास किया था, आन्दोलन के गति पकड़ने पर वह कुछ समय के लिए हतप्रभ सी हो गयी। लेकिन कुछ समय बाद ही उसने निर्ममतापूर्वक दमन कार्य आरंभ कर दिया। प्रदर्शनों और सार्वजनिक सभाओं को निर्दयतापूर्वक तितर-बितर किया जाने लगा और अब लाठी प्रहार दिन-प्रतिदिन की घटना हो गयी। धारासना में 2,500 स्वयं सेवकों ने नमक के गोदाम पर चढ़ाई की और वे पाशविक लाठी प्रहार के शिकार हुए। जमीन, पीड़ा से कराहते हुए आदमियों से पट गयी थी किसी का धन्धा टूट गया था। किसी की खोपड़ी। लोगों के सफेद कपड़े खून से तर थे। न्यूफ्रीमैन’ के संवाददाता बेब मिलर धरासना के दृश्य और पुलिस की ज्यादतियों का वर्णन करते हुए लिखते हैं – 18 वर्ष तक 22 देशों में संवाद संग्रह के काम में मैने असंख्य उपद्रव, संघर्ष गली-कूचों में जमकर हुई लड़ाइयाँ और विद्रोह देखे है। लेकिन धारासना जैसे रोकटें खड़े कर देने वाले मर्मभेदी दृश्य मैंने कभी नहीं देखे। कभी-कभी ऐसी पीड़ा के दृश्य होते कि मुझे थोड़ी देर तक के लिए आँखे हटा लेनी पड़ती। स्वयं सेवकों का अनुशासन आश्चर्यजनक था। लगता था कि उन्होंने गाँधी की अहिंसा को घोलकर पी लिया है। धरासाना के बाद बडाला के नमक डिपों पर धावा बोलते समय भी स्वयं सेवकों ने इस प्रकार लाठी प्रहार सहन किया।
कभी-कभी पुलिस बिल्कुल मामूली सी बातों पर छात्रों का पीछा करती हुई उनकी कक्षाओं में घुस जाती थी और उन्हें व उनके अध्यापकों को लाठियों का शिकार बनाती थी। कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर दिया गया था और एक वर्ष में ही लगभग 90 हजार सत्याग्रहियों को जेल में लूंस दिया गया। महिलाओं के साथ भी इसी प्रकार की कठोरता का बर्ताव किया था। देश को अध्यादेश शासन के अधीन कर दिया गया था और एक के तुरन्त बाद दूसरे दमनमूलक कानूनों का बोलबाला था करबन्दी आन्दोलन के कुचलने के लिए सरकार ने सम्पत्ति के बलात ग्रहण, हरण और नीलाम का सहारा लिया था। पुलिस के इन जुल्मों के परिणामस्वरूप कई गाँव बिल्कुल उजड़ गये।
पुलिस के दमन कार्य की प्रतिक्रिया के रूप कुछ स्थानों पर जनता ने भी हिसात्मक कार्यवाहियाँ की शोलापुर में एक उत्तेजित भीड़ ने 6 थाने जला दिये तथा कुछ की, लेकिन पुलिस ने 25 व्यक्तियों को गोली से भूनकर और सैकड़ों को घायल करके प्रतिशोध लिया। पेशावर में अप्रैल 1930 में इससे भी भंयकर घटनाएँ हुई और 24 अप्रैल से 4 मई तक पेशावर में अंग्रेजी हुकूमत नहीं रही। इस अवधि में शान्तिपूर्ण व अनुशासित खुदाई खुदमतगारों ने व्यवस्था कायम रखी। इसके बाद सैनिक दस्तों ने पुनः शहर पर अधिकार कर लिया और अनेक खुदाई खिदमत गारों को मशीनगनों से भूशायी कर दिया। इस दौर में एक महत्वपूर्ण घटना यह हुई कि एक गढ़वाली प्लेटून में अपने निहत्थे मुस्लिम देशवासियों पर गोली चालने से इंकार कर दिया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन और भारतीय मुसलमान
इस आन्दोलन में भारतीय मुसलमानों में बहुत ही थोड़ा भाग लिया। जिन्ना के नेतृत्व में अधिकतर मुसलमान इस आन्दोलन से अलग रहे मि. गाँधी का साथ देने से इंकार करते हैं क्योंकि उनका आन्दोलन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए नहीं वरन् भरत के 7 करोड़ मुसलमानों को हिन्दू महासभा का आश्रित बना देने के लिए है।ङ्ग जिन मुस्लिम नेताओं के खिलाफत आन्दोलन में महात्मा गांधी का साथ दिया था, उनमें से अधिकतर अब इस आन्दोलन में अलग रहे, परन्तु उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त के पङ्गोनों ने खान अब्दुल गुफ्फार खाँ ने नेतृत्व में इस आन्दोलन में भाग लिया और हँसते-हँसते सरकार की लाठियाँ सहीं। मुफ्ती किफायतुल्ला के नेतृत्व में स्थापित जमीयत उल उलेमाए हिन्द के द्वारा भी आन्दोलन का समर्थ किया गया।
गाँधी इर्विन समझौता-प्रथम गोलमेज सम्मेलन
ब्रिटिश पत्रकार मि. सोलोकौम्ब तथा डॉक्टर जयकर और तेजबहादुर सप्रू के समझौता प्रयास के विफल तथा दमनचक्र के निष्प्रभावी होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने इस आन्दोलन की समाप्ति के लिए गोलमेज सम्मेलन के आयोजन के रूप में एक प्रयास किया परन्तु वह भी विफल रहा। भारत की समस्याओं एवं उनके समाधान पर विचार के लिए ब्रिटिश सम्राट ने 12 नवम्बर 1930 को लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन बुलाया जिसमें ग्रेट ब्रिटेन, ब्रिटिश भारत तथा भारत की देशी रियासतों के 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया और ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमज मैकडानल्ड ने जिसकी अध्यक्षता की वायसराय और ब्रिटिश सरकार को कोई स्पष्ट आश्वासन न होने तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन के चलाते रहने के कारण कांग्रेस के किसी भी प्रतिनिधि ने भाग नहीं लिया। इसका सीधा मतलब यह था कि इस सम्मेलन में भारतीय जनता का न तो कोई वास्तविक प्रतिनिधि था और न इसमें भारत की आत्मा की विद्यमान थी। ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधि जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित न होकर वायसरांय द्वारा मनोनीत थे। साम्प्रदायिक मुसलमानों को इसमें मनोनीत किया गया परन्तु राष्ट्रवादी मुसलमानों को इसमें कोई स्थान नहीं दिया गया। इसमें अनेक सुझावों पर विचार विमर्श हुआ परन्तु यह सविनय अवज्ञा आन्दोलन को किसी भी तरह प्रभावित करने में सफल नहीं रहा। इस सम्मेलन के नतीजे से ब्रिटिश सरकार यह बात अच्छी तरह समझ ली कि कांग्रेस के सहयोग के बिना भारत की किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है अतः उसने समझौते के लिए किये गये दूसरे प्रयास के रूप में गाँधी जी तथा कांग्रेस कार्यसमिति के 19 सदस्यों को जेल से रिहा कर दिया। जेले से रिहा होने पर उन्होंने पं. मोती लाल नेहरू से इलाहाबाद स्थिति उनके आवास स्वराज भवन में विचार विमर्श किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री की घोषणा से कोई ऐसा आश्वासन नहीं मिला है कि उसे आधार मानकर अगले गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया जा सके। आन्दोलन जारी रहा और इसी बीच 6 फरवरी 1931 को पं0 मोतीलाल नेहरू का निधान हो गया।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन के वापस आने के बाद डॉक्टर जयकर और तेजबहादुर सप्रू सरकार तथा कांग्रेस के बीच समझौता कराने का एक और प्रयास किया जिसके फलस्वरूप महात्मा गाँधी एवं वायसराय लार्ड इर्विन ने 17 फरवरी से 5 मार्च (1931) तक वार्ता की तथा 5 मार्च को उनके मध्य एक समझौत हुआ जिसे गांधी इर्विन समझौता कहा जाता है। चर्चिल जैसे अनुदारवादियों ने इसकी कटु आलोचना करते हुए कहा कि सम्राट के प्रतिनिधि ने एक अधनंगे फकीर से बराबरी के दर्जे पर बातचीत की है इसके अन्तर्गत सरकार की तरफ से सात आश्वासन दिये गये –
- हिंसात्मक कार्यों के लिए दण्डित अपराधियों को छोड़ सभी राजनीतिक कैदी रिहा कर दिये जायेगे।
- सभी आध्यादेश तथा राजनीतिज्ञों के विरूद्ध मुकदमें वापस ले लिए जायेगें।
- आन्दोलन के दौरान जब्त सम्पत्ति स्वामी को लौटा दी जायेगी।
- शराब, अफीम और विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर शान्तिपूर्ण पिकेटिंग करने वाले सत्याग्रही गिरफ्तार नहीं किये जायेंगे।
- समुद्र से निश्चित दूरी पर रहकर नमक बनाने वालों को कार्य करने दिया जायेगा।
- जो जमानतें और जुर्माने वसूल नहीं किये हैं, उनकी वसूली नहीं की जायेगी।
- आन्दोलन से सिलसिले में नौकरी में इस्तीफा देने वाले सरकारी कर्मचारियों का वापस लेने के बारे में उदारतापूर्वक विचार किया जायेगा।
सरकार की तरह महात्मा गाँधी ने भी पाँच आश्वासन दिये।
- कांग्रेस सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर देगी।
- वह आन्दोलन के दौरान पण्डित द्वारा की गयी ज्यादतियों की निष्पक्ष जाँच की अपनी माँग त्याग देगी।
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
- वह ब्रिटिश माल के बहिष्कार का राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग नहीं करेगी।
- यह समझौते का उसके द्वारा उलंघन होने पर सरकार शन्ति एवं व्यवस्था के लिए आवश्यक कार्यवाही करने को स्वतन्त्र होगी।
इस समझौते के साथ इसकी पहली शर्त के अनुसार सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया गया तथा कांग्रेस की सभी समितियों और उपसमितियों को इसकी सभी शर्तों के पालन का निर्देश दिया गया। इसके सरकार आन्दोलन समाप्त करने में विजयी रही।
महत्वपूर्ण लिंक
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