संविदा के मानक (Standard Forms of Contract)

संविदा के मानक

संविदा के मानक (Standard Forms of Contract)

आज-कल प्राय : यह चलन है कि संविदा से सम्बन्धित विलेख एक पक्षकार तैयार करा लेता है, उसके बाद दूसरे के पास स्वीकृति पास होने के लिए प्रस्तुत करता है। यदि द्वितीय पक्षकार संविदा की इच्छा रखता है तो वह विलेख में लिखी शर्तों को स्वीकार करता है। इसे ही संविदा का मानक रूप कहा जाता है। इसका प्रचलन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।

उदाहरणार्थ- रेलवे प्राधिकारी अथवा जीवन बीमा निगम प्रतिदिन अनेकों संविदायें मानक रूप में करते हैं। ऐसी संविदायें अधिकांशतः ऐसे विषय से सम्बन्धित होती हैं जिनके सम्बन्ध में यह आवश्यक होता है कि संविदा की शर्ते सभी के लिए एक समान हो। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति रेलगाड़ी से यात्रा करता है अथवा रेलवें के क्लॉक रूम में अपना सामान रखता है तो ऐसी स्थिति में सभी के साथ अलग-अलग संविदा करना सम्भव नहीं है और परिणामस्वरूप मानक रूप में संविदा पहले से ही छपी रहती है और संविदा करने वाले की छपी शर्तों के आधार पर ही संविदा पहले से ही छपी रहती है और संविदा करने वाले छपी शर्तों के आधार पर ही संविदा करनी पड़ती है। इस प्रकार यदि कोई यात्री रेलवे से यात्रा के टिकट खरीदता है तो उसे टिकट पर छपी शर्तों को भी स्वीकार करना पड़ता है। इसकी प्रकार यदि कोई व्यक्ति रेलवे क्लॉक रूम में समान रखता है और उसके बदले में उसे रसीद दी जाती है तो उसे रसीद में लिखी शर्तों को भी स्वीकार करना पड़ता है।

यदि कोई व्यक्ति बीमा कराता है तो उसे मानक रूप में संविदा करना होता है और वह लिखी और छपी शर्तों में परिवर्तन नहीं कर सकता है। इस प्रकार यदि संविदा मानक रूप में की जाती है, तो स्वीकार्ता को सौदेबाजी करने का अवसर नहीं मिलता है। ऐसी संविदा करने के कुछ लाभ हैं। ऐसी संविदायें निश्चित होती हैं और इसके साथ ही ऐसी संविदा में सौदेबाजी न होने के कारण समय की बर्बादी नहीं होती है। ऐसी संविदाओं में एकरूपता भी होती है।

लेकिन ऐसी संविदा करने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें एक पक्षकार संविदा को लिख और छपवा कर तैयार कर लेता है और दूसरे पक्षकार को लिखी और छपी शर्तों को स्वीकार करना पड़ता है अर्थात् यदि वह संविदा करना चाहता है तो संविदा उसी लिखे और छपे फार्म में करनी होगी और इस प्रकार दूसरा पक्षकार उन शर्तों में परिवर्तन नहीं कर सकता। जो पक्षकार संविदा को छपवाता है वह उसमें अपनी सुविधानुसार तथा हितानुसार शर्तें सम्मिलित कर लेता है और फलत: यह दूसरे पक्षकार के हित पर अनुचित आघात पहुँचाने की सम्भावना होती है।

यही कारण है कि न्यायालय ने ऐसे पक्षकार को सुरक्षा प्रदान कई महत्वपूर्ण उपबन्ध किये हैं जैसे-

  1. शर्तों की सूचना-

    जब कोई पक्षकार स्वीकृति प्रदान करते हुये मानक रूप में छपी संविदा पर हस्ताक्षर कर देता है तो वह उन शर्तों से बाध्य हो जाता है, चाहे वह संविदा की शर्तों को पढ़ा हो अथवा न पढ़ा हो, क्योंकि ऐसी स्थिति में मान लिया जाता है कि उसने संविदा की शर्तों को पढ़ा है। परन्तु यह नियम उसी दशा में लागू होता है जबकि हस्ताक्षर करने वाले को कपट या दुर्व्यपदेशन द्वारा उकसाया न गया हो। अतः यदि हस्ताक्षर करने वाले को कपट अथवा दुर्व्यपदेशन द्वारा हस्ताक्षर करने के लिए उकसाया न गया है तो यह मान लिया जाता है कि हस्ताक्षार करने वाला संविदा को पढ़ा है और वह उन शर्तों से बाध्य हो जाता है। यदि संविदा पर हस्ताक्षर नहीं किया गया है तो शर्तों की युक्तियुक्त सूचना दूसरे पक्षकार को देनी आवश्यक है और सूचना संविदा के समय या इसके पूर्व दी जानी चाहिये और सूचना प्रतिग्रहीता अथवा उसे प्राधिकृत अभिकर्ता को दिया जाना चाहिए। अतः संविदा बन्धकारी होंगी, जबकि संविदा छपवाने वाले पक्षकार ने इसकी सूचना दूसरे पक्षकार को दी है और इस सम्बन्ध में निम्न नियमों का पालन किया हो-

  • सूचना संविदा के पूर्व अथवा संविदा के समय दी जानी चाहिए-

    संविदा की शर्तें दूसरे पक्षकार पर तभी बन्धनकारी होंगी जबकि उसकी सूचना दूसरे पक्षकार को दे दी गई हो। शर्तों की सूचना संविदा के पूर्व अथवा संविदा के समय दे दी जानी चाहिए। संविदा के बाद दी गई सूचना महत्वहीन है। अर्थात् यह संविदा के बाद संविदा के शर्तों की सूचना दूसरे पक्षकार को दी जाती है तो शर्तें दूसरे पक्षकार पर बन्धनकारी नहीं होंगी। ओले बनाम मार्लवरी कोर्ट लि0 के बाद में पति और पत्नी एक होटल में एक कमरा किराये पर लिए। उन्होंने 7 दिन का किराया पेशगी दिया। जब वे कमरे में गये तो वहाँ उन्होंने एक नोटिस देखा। नोटिस में यह लिखा था कि मालिक वस्तुओं के खोने अथवा चोरी के लिए दायी नहीं होगा जब तक कि वस्तुयें होटल के मैनेजर के पास जमा न की गयी हो। होटल के कर्मचारियों की लापरवाही के कारण उक्त पति और पत्नी का सामान चोरी हो गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि चोरी के कारण हुई हानि के लिए होटल का मालिक दायी था। छूट वाली शर्त की सूचना संविदा के बाद दी गयी थी और इस कारण वह संविदा का भाग नहीं थी और उसके अन्तर्गत होटल का मालिक दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था।

यह उदल्लेखनीय है कि मशीन द्वारा टिकट देने की दशा में शर्तों की सूचना टिकट आने के पूर्व दी जानी चाहिए।

  • सूचना युक्तियुक्त होनी चाहिए –

    इसमें यह महत्वपूर्ण है कि संविदा छपवाने वाला व्यक्ति शर्तों की युक्तियुक्त सूचना दूसरे पक्षकार को दे। शर्तों की युक्तियुक्त सूचना के पूर्व अथवा संविदा के समय नहीं दी जाती है तो वे शर्तें प्रतिग्रहण के बाद भी दूसरे पक्षकार (प्रतिग्रहीता) पर बन्धनकारी नहीं होगी। उदाहरण के लिए हेन्डर्सन बनाम स्टीवेन्सन के वाद में वादी ने जलयान की यात्रा के प्रयोजन के लिए एक टिकट क्रय किया। उस टिकट के पीछे शर्तें छपी थीं। एक शर्त यह भी छपी थी कि यात्रियों के सामान को हुई हानि के लिए कम्पनी उत्तरदायी नहीं होगी। टिकट के सामने की ओर पीछे शर्तों को देखने के लिए कोई कर्मचारियों की लापरवाही के कारण नष्ट हो गया और उसे इसकी भरपाई के लिए कम्पनी के विरुद्ध वादी चालाया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि शर्तों को देखने के लिए कोई संकेत नहीं था। वादी ने टिकट के पीछे शर्तों को देखा भी नहीं। वादी का सामान कम्पनी के कर्मचारियों की लापरवाही के कारण नष्ट हो गया और उसने इसकी भरपाई के लिए कम्पनी के विरुद्ध वाद चलाया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि शर्तों की युक्तियुक्त सूचना नहीं दी गयी थी और इस कारण कम्पनी भरपाई के लिए दायी थी। इस प्रकार छूट वाली शर्त को वादी को हुई हानि की भरपाई के लिए दायी ठहराया गया।

रिचर्डसन स्पेन्स एण्ड कम्पनी बनाम राउण्ड्री के वाद में टिकट पर छपी शर्ते लाल स्याही से लगी मोहर से छापी गयी थीं। न्यायालय ने निर्णय दिया कि शर्तों की युक्तियुक्त सूचना नहीं दी गयी थी और परिणामस्वरूप उक्त शर्तें बन्धनकारी नहीं ठहराई गई।

यदि युक्तियुक्त सूचना देकर शर्तों के प्रति प्रतिग्रहीता का ध्यान आकर्षित किया गया है तो शर्तें संविदा का भाग हो जाती है और बन्धकारी हो जाती हैं। उदाहरण के लिए यदि टिकट के सामने लिखा है कि-“शर्तों के लिए, पीछे देखिये, तो पीछे लिखी शर्तें बन्धकारी होंगी, चाहे प्रतिग्रहीता ने उन शर्तों को पढ़ा हो अथवा न पढ़ा हो।” यदि युक्तियुक्त सूचना दे दी गयी हैं, जैसे टिकट पर लिखा हो, “शर्तों के पीछे देखिये”, तो शर्तें बन्धकारी और प्रभावी होती हैं, और यह तर्क व्यर्थ होता है कि वादी अनपढ़ था अथवा उसे भाषा ज्ञान नहीं था. जिस भाषा में शर्तें लिखी गयी थी अथवा उसने वास्तव में उन शर्तों को पढ़ा नहीं था।

पारकार साउथ ईस्टर्न रेलवे कं० के मामले में वादी ने अपना सामान रेलवे के क्लॉक रूम में जमा किया। उसे टिकट दिया गया जिसके सामने की ओर लिखा था। “पीछे देखें” टिकट के पीछे कुछ शर्तें छपी थीं। एक शर्त यह छपी थी कि कम्पनी 10 पौण्ड से अधिक मूल्य का सामान खोने पर उत्तरदायी नहीं होगी। ऐसी ही एक नोटिस क्लॉक रूम में भी टाँग दी गयी थी। वादी का सामान जो 10 पौंड से अधिक था खो गया था और उसने पूरे मूल्य की माँग की। वादी ने यह स्वीकार किया कि उसे यह मालूम था कि टिकट के पीछे कुछ लिखा है परन्तु वह यह नहीं जानता था कि पीछे जो लिखा गया है वे शर्तें हैं और उसने वास्तव में उसे नहीं पढ़ा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि शर्तों को युक्तियुक्त सूचना दे दी गई थी और परिणामस्वरूप शर्तें बन्धकारी थी और वादी का यह तर्क व्यर्थ था कि उसने वास्तव में उन शर्तों का पढ़ा नहीं था ।

  1. संविदात्मक दस्तावेज-

    संविदा करने वाले पक्षकार उन्हीं नियमों या बातों को मानने के लिए बाध्य (मजबूर) होते हैं जिसे संविदात्मक दस्तावेज में वर्णित किया गया हो। यदि दस्तावेज रसीदी है तो यहाँ संविदा का निर्माण नहीं होगा।

उसमें लिखी शर्तें बन्धकारी नहीं होती हैं। इस बिन्दु पर चैपेल्टन बनाम बैरी अरबन डिस्ट्रिक्ट कौंसिल का वाद महत्वपूर्ण है। इस बाद में वादी ने कुछ कुर्सियाँ सागर के किनारे बैठने के प्रयोजन हेतु किराये पर ली। उसने किराया दिया और उसे टिकट मिला। उसने टिकट को देखा परन्तु यह महसूस नहीं यिका उस पर शर्तें छपीं हैं और उस पर जो लिखा था उसे पढ़े बिना उसने उसे अपनी जेब में रख लिया। जब वह कुर्सी पर बैठी तो कुर्सी की टाट टूट गयी और उसे चोट लगी। इस चोट के लिए प्रतिकर वसूल करने हेतु उसने वाद लाया। टिकट पर लिखा था-” कौंसिल कुर्सियाँ किराये पर देने के कारण हुई किसी दुर्घटना अथवा नुकसान के लिए दायी नहीं होगी।” न्यायालय ने कम्पनी को दायी ठहराया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि दिया गया टिक्ट केवल रसीद के रूप में था। यह केवल इसलिए दिया गया था कि ग्राहक के पास पैसा देने का सबूत रहे। उस पर छपी शर्तें संविदा का भाग नहीं थीं इस कारण शर्तें बन्धनकारी नहीं थी और परिणामस्वरूप कम्पनी इन शर्तों के आधार पर दायित्व से मुक्त नहीं हो सकती थी।

  1. दुर्व्यपदेशन नहीं होना चाहिये-

    यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देता है, जिसमें शर्तें हैं भी उन शर्तों से बाध्य नहीं होगा यदि दस्तावेज की विषय वस्तु के बारें में मिथ्या कथन दिया गया है। इस बिन्दु पर कर्टिस बनाम केमिकल क्लीनिंग एण्ड डाइंग क0 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में वादी ने प्रतिवादी को धुलाई के लिए कपड़े दिये। प्रतिवादी ने वादी की रसीद पर हस्ताक्षर करने को कहा तो वादी ने पूछा ऐसा करने का प्रयोजन क्या है। प्रतिवादी ने मौखिक रूप से कहा है कि यदि बटन आदि का कोई नुकसान होगा तो वादी को वहन करना होगा और तत्पश्चात् वादी ने उसे पर हस्ताक्षर कर दिये। वास्तव में उस रसीद में यह लिखा गया था कि धुलाई के लिये दिये गये कपड़े को होने वाली किसी क्षति के लिये प्रतिवादी का कोई दायित्व नहीं होगा। धुलाई के दौरान कपड़े पर धब्बे पड़ गये और वादी ने इसके लिए प्रतिवादी के विरुद्ध वाद संस्थित किया। प्रतिवादी ने उकत छूट वाले खण्ड के आधार पर दायित्व से मुक्ति का दावा किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को दायी ठहराया। न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी ने दायित्व से मुक्ति के विस्तार के सम्बन्ध में गलत बयानी की। अर्थात् न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि छूट के विस्तार के सम्बन्ध में गलत कथन के कारण वादी को छूट के विस्तार के बारे में भ्रम हुआ और परिणामस्वरूप प्रतिवादी उक्त छूट वाली शर्त का बचाव नहीं ले सकता।

  2. संविदा की शर्ते युक्तियुक्त होनी चाहिए –

    यह उल्लेखनीय है कि संविदा की शर्तें तभी बन्धकारी हो सकती है जबकि वे युक्तियुक्त हो । यदि शर्ते युक्तियुक्त नहीं है, तो वे बन्धनकारी नहीं होगी। जो शर्तें लोकनीति के विरुद्ध होती हैं, उन्हें अयुक्तियुक्त शर्तों को श्रेणी में रखते हैं। इसी प्रकार जो शर्ते संविदा के मुख्य उद्देश्य को ही नष्ट कर देती हैं, उन्हें भी अयुक्तियुक्त शर्तों की श्रेणी में रखा जाता है।

लिली ह्वाईट बनाम मुनुस्वामी के मामले में भुलायी गृह की रसीद में एक शर्त का उल्लेख था कि वस्त्र की हानि होने पर ग्राहक वस्त्र के मूल्य या बाजार मूल्य का 50 प्रतिशत प्राप्त करने का हकदार होगा। वादी ने जो वस्तु धुलाई के लिए दिया था वह खो गयी। वादी ने वस्त्र के सम्पूर्ण मूल्य की माँग की, जबकि प्रतिवादी ने उक्त शर्त के आधार पर वस्त्र के मूल्य का 50 प्रतिशत देने को कहा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त शर्त लोकनीति के विरुद्ध और अयुक्तियुक्त थी और इसलिए इसे प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता। यदि ऐसी शर्तों को प्रभावी किया जायेगा तो बेईमानी को प्रोत्साहन मिलेगा।

  1. संविदा के मूलभूत भंग का सिद्धान्त-

    संविदा में कई शर्तें ऐसी होती हैं जो संविदा का आधार होती हैं। यदि कोई पक्षकार इन शर्तों का पालन नहीं करता है तो यह माना जाता है कि उसने संविदा का पालेन नहीं किया है। अर्थात् ऐसी स्थिति में यह माना जाता है कि उसने संविदा का मूलभूत भंग किया है। यदि कोई पक्षकार संविदा की मूलभूत शर्त का पालन नहीं करता है तो वह दायित्व से छूट प्रदान करने वाली शर्त का सहारा नहीं ले सकता है। यह उल्लेखनीय है कि भले ही छूट प्रदान करने वाली शर्त की युक्तियुक्त सूचना दे दी गई हो, मूलभूत शर्त को भंग करने पर छूट प्रदान करने वाली शर्तों के आधार पर दायित्व से मुक्ति प्राप्त नहीं किया जा सकता है। मूलभूत शर्तों के उल्लंघन की स्थिति में उल्लंघन करने वाला पक्षकार संविदा भंग के लिये दायी होता है और ऐसे दायित्व से छूट प्रदान करने वाली शर्तों के उपरान्त भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए नई कार के करार की दशा में यदि पुरानी कार दी जाती है तो यह संविदा का मूलभूत भंग है और संविदा भंग के दायित्व के इस आधार पर बचा नहीं जा सकता कि संविदा में छूट खंड है।

डेविस बनाम कॉलिन्स के मामले में वादी ने प्रतिवादी को धुलाई के लिए अपनी वर्दी दिया। उसे एक रसीद प्रदान की गई जिस पर लिखी शर्त के अनुसार धुलाई में होने वाली हानि के लिये धुलाई करने वाले का कोई दायित्व नहीं होगा; वस्तु का स्वामी अपने जोखिम पर धुलाई के लिए वस्त्र देंगा और धुलाई करने वाले का दायित्व धुलाई की लागत के दस गुने तक सीमित होगा। प्रतिवादी उस वस्त्र की धुलाई स्वयं न करके किसी अन्य धुलाई गृह को धुलाई के लिये दे दिया, जहाँ वह खो गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि धुलाई का कार्य स्वयं न करके किसी अन्य धुलाई गृह को देना संविदा का मूलभूत भंग था और परिणामस्वरूप प्रतिवादी छूट की शर्त के आधार पर दायित्व से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

पीयर्सन एल. जे. के अनुसार संविदा के मूलभूत भंग का सिद्धान्त अर्थान्वयन का एक नियम है और संविदा के पक्षकारों के आशय पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार संविदा की ऐसी शर्तें जो दायित्व से मुक्ति प्रदान करती हैं अथवा दायित्व को सीमित करती हैं उस समय लागू नहीं होती हैं जबकि संविदा का मूलभूत भंग किया जाता है इस प्रकार बाद के तथ्यों और परिस्थितियों तथा पक्षकारें के आशय पर निर्भर करता है कि छूट प्रदान करने वाली शर्ते लागू होंगी या नहीं।

  1. छूट-खण्डों का कठोर अर्थान्वयन : कान्ट्रा प्रोफेरेन्टम का नियम –

    शब्दों का एक मात्र स्पष्ट प्रयोग करके ही कोई व्यक्ति स्वयं को किसी विधिक दायित्व से मुक्त कर सकता है इसी के आधर पर छूट-खण्डों के कठोर आर्थान्वयन के नियम को विकसित किया गया है कि छूट वाली शर्ते अथवा छूट वाने खण्डों का कठोर अर्थान्वयन किया जाना चाहिये। इस प्रकार यदि छुट वाले खण्ड अथवा छूट प्रदान करने वाली शर्तों में प्रयुक्त शब्दों में अनिश्चितता हो अथवा अस्पष्टता हो तो ऐसी स्थिति में उन शब्दों का अर्थ छूट खण्ड अथवा छूट प्रदान करने वाली शर्ता की व्यवस्था करने वाले पक्षकार के विरुद्ध और दूसरे पक्षकार के पक्ष में लगाया जायेगा। अर्थात् यदि कोई पक्षकार मानक रूप में संविदा तैयार करता है और इसमें कुछ ऐसी शर्ते सम्मिलित कर लेता है जो उसे दायित्व से मुक्त कर देती है अथवा उसके दायित्व को सीमित कर देती है और उन शर्तों में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अनिश्चित या अस्पष्ट हैं तो ऐसी स्थिति में इन शब्दो का अर्थ ऐसी शर्त से लगाने वाले पक्षकार के विरुद्ध और दूसरे पक्षकार के पक्ष में लगाया जायेगा। नियम यह है कि छूट वाले खण्ड अथवा छूट वाली शर्त में प्रयुक्त अस्पष्ट शब्दों का अर्थान्वयन उस पक्षकार के विरुद्ध किया जायेग जिसने उनका प्रयोग किया है। इसे कान्ट्रा प्रोफेरेन्टम का नियम कहते हैं। इस नियम का कारण यह है कि जो पक्षकार ऐसे स्पष्ट शब्दों का प्रयोग करके दायित्व से छूट प्राप्त करना चाहता है वहीं उन शब्दों के प्रयोग के लिये जिम्मेदार होगा, संक्षेप में, यदि छूट-खण्ड में प्रयोग किये शब्दों का विस्तृत या सीमित अर्थ लगाया जा सकता है तो इन शब्दों का सीमित अर्थ, लगाया जायेगा और उस पक्षकार के विरुद्ध लगाया जायेगा जिसने उक्त छूट-खण्ड का प्रयोग किया है।

ली (जॉन) एण्ड सनस (ग्रैन्थम) लि. बनाम रेलवे एक्जीक्यूटिव के मुकदमें ने वादी को रेलवे का एक गांदाम किराये पर दिया। बादी और प्रतिवादी के बीच किरायंदारी के सम्बन्ध में संविदा हुई थी जिसमें एक शर्त यह थी कि प्रतिवादी ऐसी क्षति के लिए दायी नहीं होगा जो न हुई होती यदि गोदाम किराये पर न दिया गया होता। प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण गोदाम में रखा माल आग से नष्ट हो गया। प्रतिवादी ने उक्त छूट वाली शर्त के अन्तर्गत दायित्व से मुक्ति का दावा किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त छूट वाली शर्त में प्रयुक्त शब्द अस्पष्ट हैं और उनका प्रतिवादी के विरुद्ध कठोरता से अर्थान्वयन किया जाना चाहिये। इस शर्त को केवल उसी दशा में लागू किया जायेगा जबकि क्षति स्वामी और किरायेदार के सम्बन्ध के कारण उत्पन्न हुई हो। इस बाद में गोदाम में रखा माल इंजन की चिन्गारी से आग लगने के कारण नष्ट हो गया था और इस कारण यदि क्षति स्वामी और किरायेदार के सम्बन्ध के कारण उत्पन्ना नहीं हुई थी और परिणामस्वरूप प्रतिवादी को उक्त शर्त के अन्तर्गत दायित्व से मुक्ति प्राप्त नहीं थी। इस प्रकार इस वाद में प्रतिवादी को दायी ठहराया गया।

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