मार्ले मिन्टो सुधार अधिनियम की प्रमुख शर्तों एवं आलोचनात्मक विवरण
1892 का कानून भारतीयों को तो क्या अखिल भारतीय काँग्रेस के नरम दल को भी सन्तुष्ट न कर सका। काँग्रेस अपने प्रत्येक वर्ष के अधिनियम में काँसिलों के विस्तार और उनके सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि को माँग कर रही थी। काँग्रेस में गरम दल का बहुमत होता जा रहा था। इस कारण सरकार ने नरम दल को सन्तुष्ट करने तथा काँग्रेस को गरम दल के प्रभाव से बचाने के लिए कुछ सुधार करना आवश्यक समझा। इसके अतिरिक्त, लॉर्ड कर्जन के व्यवहार और शासन तथा जापान के हाथों रूस की पराजय ने भारतीयों को अत्यधिक असन्तुष्ट और क्रान्तिकारी कार्रवाइयों के लिए प्रोत्साहित किया। सरकार ने जनता को क्रान्तिकारियों के प्रभाव से बचाने के लिए भी सुधार करना आवश्यक समझा। उस समय गर्वनर-जनरल से मिन्टो और भारत सचिव लॉर्ड मार्ले था। अतः इन सुधारों को मोर्ले-मिण्टों सुधार के पुकारा गया।
मोर्ले-मिण्टों सुधार की शर्तें
इसकी शर्ते निम्नवत् थीं –
- केन्द्रीय व्यवस्थापिका-सभा के सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गयी।
- प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी, यथा बंगाल, मद्रास और बम्बई में 50 सदस्य तथा अन्य प्रान्तों में 30 सदस्य।
- इस एक्ट के अनुसार व्यवस्थापिका-सभाओं के सदस्य चार प्रकार के होने लगे- (i) पदेन सदस्य (Ex-office members) जैसे केन्द्र में गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी के सदस्य तथा प्रान्तों में गर्वनर और उसकी कार्यकारिणी के सदस्य; (ii) मनोनीत सरकारी अधिकारी; (iii) मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य; और (iv) निर्वाचित सदस्य।
- इन सुधारों द्वारा भारत में प्रादेशिक चुनाव पद्धति को आरम्भ नहीं किदया गया वरन् व्यावसायिक और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व-प्रणाली को अपनाया गया। चुनाव-क्षेत्र प्रान्तीय व्यवस्थापिका-सभाओं, जमींदार, व्यापारी-वर्ग, जिला-परिषद और मुसलमान आदि के आधार पर बनाये गये। उदाहरणार्थ, केन्द्र के 27 निर्वाचित सदस्यों में से 5 मुसलमानों द्वारा, 6 जमीदारों द्वारा, 1 मुसलमान जमींदारों द्वारा, 1 बम्बई की व्यापारी-सभा द्वारा, 1 बंगाल की व्यापारी-सभा द्वारा और 13 प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा चुने जाते थे। इसी प्रकार की व्यवस्था प्रान्तों में भी की गयी।
- केन्द्र में सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया परन्तु प्रान्तों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत रहा। परन्तु यह बहुमत केवल निर्वाचित सदस्यों का ही न था। इसमें मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य भी सम्मिलित थे।
- व्यवस्थापिका-सभाओं के अधिकरों में वृद्धि की गयी। सदस्यों को आर्थिक प्रस्तावों पर वाद-विवाद करने, उनके विषय में संशोधन प्रस्ताव रखने और उनके कुछ विषयों पर मतदान करने तथा अन्य साधारण प्रस्तावों के बारे में विवाद करने, प्रश्न पूछने, सहायक प्रश्न पूछने और मतदान करने एवं सार्वजनिक हित के लिए प्रस्तावों को प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया, यद्यपि प्रत्येक स्थिति में गवर्नरों और गवर्नर-जनरल को उनकी सलाह को ठुकराने का अधिकार था।
- भारत-सचिव को मद्रास और बम्बई की कार्यकारिणी के सदस्यों कीसंख्या को 2 से बढ़ाकर 4 कर देने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल भारत सचिव से स्वीकृति लेकर यही व्यवस्था बंगाल और अन्य प्रान्तों में भी कर सकता था।
- भारत सरकार की परिषद में दो भारतीयों को नियुक्ति 1907 ई० में ही की जा चुकी थी। 1909 ई० में गवर्नर जनरल को अपनी कार्यकारणी में एक भारतीय सदस्य को लेने का भी अविष्कार मिल गया। इसके प्रथम भारतीय सदस्य श्री एस०पी० सिन्हा थे जिन्हें बाद में लॉर्ड की उपाधि से विभूषित किया गया।
यह विश्वास किया जाता है कि लॉर्ड मोर्ले ने इन सुधारों को लागू करने से पहले इनके विषय में श्री गोपालकृष्ण गोखले से सम्पत्ति प्रकट किया था। परन्तु वे बहुत लम्बे समय तक धोखे में न रहे। 1909 ई० में काँग्रेस और स्वयं गोखले ने इन सुधारों को असन्तोषजनक बताया। उन सुधारों में निम्नलिखित दोष थे
- निर्वाचन के लिए जो अप्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणाली अपनायी गयी थी वह सर्वथा असन्तोषजनक थी। मतदाताओं की योग्यता बहुत ऊंची रखी गयी थी जिसके कारण अधिक धनवान व्यक्ति ही मतदाता हो सकते थे। आयोग्यताओं के नियम भी ऐसे बनाये गये थे जिससे उग्र विचारों के व्यक्ति चुनावों में भाग नहीं ले सकते थे।
- पृथक निर्वाचन प्रणाली भारत के लिए बहुत हानिकारक थी। इसने भारत को विभिन्न वर्गों में बाँट दिया जिनमें आपस में द्वेष, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा होने लगी। साम्प्रदायिकता का प्रश्न भारतीय राजनीति में उसी समय में आरम्भ हुआ। मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान करके उन्हें सदा के लिए भारत के अन्य नागरिकों से पृथक् कर दिया गया। इससे मुस्लिम साम्प्रदायिक भावना दिन-प्रतिदिन तीव्र होती गयी जिसका अन्तिम परिणाम भारत का विभाजन हुआ।
- केन्द्र में तो सरकारी सदस्यों का बहुमत था ही, प्रान्तों में भी मनोनीत गौर सरकारी सदस्य सरकारी सदस्यों का ही साथ देते थे। इस कारण निर्वाचित सदस्यों की सलाह पर किसी भी कार्य के होने की सम्भावना नहीं हो सकती है।
- इसके अतिरिक्त गवर्नरों और गवर्नर-जनरल को उनकी किसी भी सलाह को ठुकराने का पूर्ण अधिकार था।
- इन सुधारों द्वारा भविष्य के लिए कोई लक्ष्य निश्चित नहीं किया गया था। संसदीय संस्थाएं तो स्थापित की गयी थीं किन्तु संसदीय शासन व्यवस्था को लक्ष्य नहीं बनाया गया था।
1909 के अधिनियम द्वारा लोगों की आशाएँ पूरी न हुई। लोगों ने एक उत्तरदायी सरकार की माँग की थी परन्तु बदले में उन्हें एक परोपकारी निरंकुश शासन’ अथवा ‘दयालु तानाशाही’ प्राप्त हुई। एक टिप्पणी के अनुसार, लोगों ने एक हजार पौंड का चैक पेश किया था और उन्हें एक पौंड दे दिया था। दूसरे, जहाँ एक तरफ संसदीय ढाँचा पुनः स्थापित किया गया वहाँ दूसरी तरफ उत्तरदायित्व नहीं दिया गया। परिणामस्वरूप, सरकार की गैरजिम्मेदाराना आलोचना आरम्भ हो गई और विधानपालिका में सरकार की निंदा करने के मंच बन गए। सन् 1901 में गोखले ने केन्द्रीय विधायी कौंसिल के सामने शिकायत की थी एक बार सरकार जब एक विशेष रास्ता अपनाने के बारे में निर्णय कर लेती थी फिर चाहे गैर-सरकारी सदस्य जो भी कहे उस विशेष रास्ते में कोई परिवर्तन नहीं ला सकते थे। छठे, मोहन दास कर्मचंद गाँधी के अनुसार डमिटो-मार्ले सुधारों ने हमारे सब किए कराए पर पानी फेर दिया है….. क्योंकि इन सुधारों द्वारा अलग-अलग प्रतिनिधित्व की बुराई को पुनः स्थापित किया गया। इस बुराई को 1919 में सिक्खों के लिए और 1932 में सांप्रदायिक अधिनर्णय के अंतर्गत दूसरे संप्रदायों, जैसे भारतीय, एम्लों-इंडियनों, यूरापियन और हरिजनों के सदंर्भ में बढ़ा दिया गया।
श्री के0 एस0 मुंशी के अनुसार, उभरते हुए लोकतंत्र की पीङ्ग में छुरा भोंकने के बाद, देश में उभरती हुई राष्ट्रीयता के विरुद्ध, एक धार्मिक अल्पवर्ग को राजनीतिक अस्तित्व प्रदान किया गया जबकि कौसिलें एक आकर्षक छल बनी रही। इस बात ने राष्ट्रवादी मुसलमानों को बड़ा धक्का पहुँचाया क्योंकि सुधारों द्वारा निचले वर्ग के मुसलमानों के केन्द्र विमुख भावनाओं को उभारकर ऊपर लाया गया और इस प्रकार राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने लोगों के प्रतिनिधि रहने योग्य न छोड़ा। इस अधिनियम ने इसी कारण हिदूओं की सांप्रदायिक भावनों को भी उभारा। के0एम0 मुंशी के शब्दों में, एक वर्ग को दूसरे वर्ग और एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय के विपरीत रखकर दोनों के प्रभाव को एक दूसरे से खड़ा कर दिया गया।
डॉ ए0बी0 कीथ के अनुसर, यदि 1909 के सुधारों का उद्देश्य स्वशासन के लिए किए प्रचार को रोकना था तो अपने उद्देश्य में असल रहे, ये उग्रवादियों की मांगों को बिलकुल, संतुष्ट नही कर सकते थे। भारतीय नेता केन्द्रीय कौंसिल में, सरकारी बहुमत बनाए रखने के कारण भी रूष्ट थे। भारतीय नेता केन्द्रीय कौंसिल में, सरकारी बहुमत बनाए रखने के कारण प्रभावहीन बना दिया गया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के अनुसार, सुधारों को लागू करने के लिए जो नियम विनयम बनाए गए, उन्होंने सुधारों को निर्जीव सा बना दिया। उनका पूछना था कि क्या नौकरशाही हमसे रियायतें प्राप्त कर लेने के कारण बदला ले रही है? सुधारों की प्रकृति आधे रास्ते पर छोड़ देने वाली थी जो कि भारतीयों की भावनाओं (जो सत्ता का हस्तांतरण चाहते थे) को शांत नहीं कर सकती थी। इसके अतिरिक्त सुधारों ने ब्रिटिश सरकार की नीयत को स्पष्ट नहीं किया कि वे शक्ति को हस्तांतरित करना चाहते थे या नहीं। यदि हाँ, तो कब तक और किस ढंग से? सर बार्टल फ़रेरे के अनुसार, सरकार अब भी दरबार में बादशाह के समान है; परन्तु उसके दरबारी बेचैन हैं और उसके निजी शासन से पूर्ण सन्तुष्ट नहीं हैं, फलतः प्रशासन कार्य करने में सुस्त और कायर बन गया है। कौसिलों में संसदीय परिपाटियाँ उस सीमा तक अपनाई गई है जिस सीमा तक वे अधिकतम संघर्ष को जन्म देती है… भारत में हमने न तो पुरानी व्यवस्था की अच्छाइयों को अपनाया है और न ही नई व्यवस्था को।
ब्रिटिश सरकार वास्तव में भारतीयों को कुछ प्रदान नहीं करना चाहती थी, यह तथ्य बिल पारित होते भारत मंत्री लार्ड माले के ब्रिटिश संसद के समक्ष दिए बयान से प्रकट होता है। 17 दिसम्बर, 1908 को लार्ड मार्ले के सुधार योजना की घोषणा लॉर्ड-सभा के समक्ष इन शब्दों के साथ रखी, ङ्खयदि मैं भारत में एक संसदीय व्यवस्था की स्थापना का प्रयत्न कर रहा हूँ या यदि कहा जा सके कि सुधार के इस अध्याय द्वारा प्रत्यक्ष या आवश्यक रूप से भारत में संसदीय प्रणाली की स्थापना होती है तो मैं यह कहूँगा कि मेरा इस सारी प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं है इस तरह के कार्य की शुरूआत में भाग लेने का मेरा कतई इरादा नहीं है। यदि भारत में मेरा अस्तित्व अधिकारी या भौतिक दृष्टि से 20 गुना बढ़ जाता है . जो कि संभव नहीं है – तो भी भारत में संसदीय प्रणाली की स्थापना करने के बारे में एक मिनट के लिए सोचना भी मेरा उद्देश्य नहीं होगा।
सन् 1909 के अधिनियम की ओर भी अधिक आलोचना इस आधार पर की गई है, कि इसके तरह जो नियम बनाए गए वे (जैसा कि लॉर्ड मिंटो ने खुद माना है) अत्यधिक उलझाने वाले और आमतौर पर भ्रांतिपूर्ण थे।ङ्ग लॉर्ड मिंटो के मत में इसका कारण यह था कि सरकार इस बात के लिए ङ्खचितिंत थी कि इन्हीं सुधारों से संसदीय मताधिकार की झलक न प्राप्त हो। मैंने प्रत्येक उस बात का विरोध किया जो इस प्रकार के आभास के समरूप हो। हम एक संसद हरगिज नहीं चाहते थे; हम कौंसिलें चाहते थे परंतु ऐसी कौसिलें नहीं जिनका चुनाव संसदीय ढंग से हो….। इस तरह की बनावट का सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि धीरे-धीरे संगङ्गित हो रहे लोगों को देशी लोगों का देशी लोगों के खिलाफ संतुलन के सिद्धान्त के आधार पर पृथक् खंडों में बाँटा जा सके क्योंकि अंग्रेजो ने सभी संप्रदायों के प्रगतिशील (राष्ट्रीय दृष्टि खने वाले) नेताओं में राष्ट्रीय दृष्टिकोण की एकता को देख लिया था।
यद्यपि दिसम्बर 1908 में बिल पारित होने के समय काँग्रेस ने सुधारों का स्वागत किया था परन्तु यह प्रसन्नता बहुत समय तक कायम न रह सकी और दिसम्बर 1909 में लाहौर में कांग्रेस के सभापति के पद से पृथक प्रतिनिधित्व और एक अल्पसंख्यक वर्ग को अत्यधिक सुरक्षा प्रदान किए जाने की घोर निंदा की गई। काँग्रेस ने 1909 के सुधारों को अपने चार प्रस्तावों द्वारा निम्न प्रकार की आलोचना की।
डॉ. पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार अपने पहले प्रस्ताव में कांग्रेस ने धर्म के आधार पर पृथक प्रतिनिधित्व स्थापित किए जाने को अस्वीकृत किया। कांग्रेस ने (क) एक धर्म विशेष के अनुयायियों को उनके अनुपात से अत्यधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने, (ख) सम्राट की मुसलिम और गैर-मुस्लिम प्रजा के निर्वाचकों और उम्मीदवारों की योग्यताओं के संबंध में अन्यायपूर्ण और शर्मनाक भेदभाव किए जाने, (ग) कौसिलों के उम्मीदवारों संबंधी अतार्किक अयोग्यताओं और नियत्रणों, (घ) शिक्षित वर्ग के प्रति सामान्य अविश्वास, और (ङ) प्रांतीय विधानपालिकाओं में गैर-सरकारी बहुसंख्यकों को प्रभावहीन बनाए जाने के बारे में असंतोष प्रकट किया। दूसरे प्रस्ताव द्वारा कांग्रेस ने यू.पी0, पंजाब, पूर्वी बंगाल, आसाम और बर्मा के लैफ़टीनेंट गवर्नरों की सहायतार्थ कार्यकारिणी कौसिलों की स्थापना किए जाने का अनुरोध किया। तीसरे प्रस्ताव द्वारा काँग्रेस ने सुधार विनियम की पंजाब के प्रति असंतोषजनक प्रकृति की ओर संकेत किया क्योंकि
कौंसिल की सदस्य संख्या इतनी काफ़ी नहीं थी कि सभी वर्गों और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान किए जाने का सिद्धान्त जो दूसरे प्रांतो में मुसलमानों के प्रति लागू था, पंजाब और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति लागू नहीं किया था, और विनियमों द्वारा पंजाब के गैर मुसलमानों को केन्द्रीय कौसल के दूर रखने का प्रयास किया गया था। चौथे प्रस्ताव द्वारा काँग्रेस ने बरार और मध्य प्राप्त (C.P.) के लिए कौंसिल की स्थापना न किए जाने और केन्द्रीय विधायी कौसिल के लिए दो सदस्यों के चुनाव में बरार के भूमिपतियों और मध्य प्रांत के जिला और म्युनिसिपल बोडौं के सदस्यों द्वारा भाग लेने का अधिकार न दिए जाने पर असंतोष प्रकट किया।
फिर भी उपर्युक्त सुधार सर्वथा बेकार न थे। 1892 ई. के एक्ट की अपेक्षा यह, निस्सन्देह, एक प्रगतिशील कदम था। भारतीयों को संसदीय शासन-व्यवस्था का परिचय इन्हीं सुधारों से प्राप्त हुआ। संसदीय शासन की संस्थाओं को स्थापित करने के पश्चात् उत्तरदायी शासन की स्थापना को रोकना असम्भव था। अप्रत्यक्ष निर्वाचन-पद्धति और व्यवस्थापिका-सभाओं के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि भी महत्वपूर्ण कदम थे। ये सुधार ‘उदार निरंकुशता’ या ‘सहयोग की नीति’ की चरम सीमा थे।
महत्वपूर्ण लिंक
- 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन
- भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण
- भारतीय राजनीति में उदारवादी नीति (1885 से 1905 तक)
- उग्रवादी के उदय के प्रमुख कारण
- उदारवादी राष्ट्रीयता का मूल्यांकन
- मुस्लिम समाज का धर्म और सामाजिक सुधार आंदोलन
- सुधार आन्दोलन में जाति प्रथा और अछूतोद्धार / हरिजन आन्दोलन
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