(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

कौटिल्य के आर्थिक विचार

कौटिल्य के आर्थिक विचार

कौटिल्य के आर्थिक विचार

कौटिल्य ने अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र‘ में राजा, मन्त्रियों, एवं सरकारी अफसरों के कर्त्तव्यों, प्रशासन सम्बन्धी विधियों का विस्तृत उल्लेख किया है। कौटिल्य के अनुसार अर्थशास्त्र एक निरन्तर चलने वाला क्रम है। अपनी पुस्तक में उसने शहरों तथा ग्रामों की व्यवस्था, न्यायालयों, स्त्रियों के अधिकारों, वृद्धों तथा निःसहायों के पालन-पोषण, विशुद्ध तथा तलाक, राजस्व, थल तथा जल सेना की व्यवस्था, कूटनीति, कृषि, सूत कताई एवं बुनाई तथा अनेक अन्य विषयों की चर्चा की है। कौटिल्य ने प्रचलित आर्थिक विचारधारा के साथ-साथ स्वयं के निजी विचारों का भी उल्लेख किया है जो निम्लिखित विषयों पर आधारित है –

  1. भौतिक सम्प्रदा का स्वभाव एवं उद्देश्य –

    कौटिल्य के अनुसार धन का अर्थ अत्यन्त विस्तृत था। इसके अन्तर्गत उसने मुद्रा, वस्तु, प्राप्त किया हुआ धन, सरकारी अथवा निजी सम्पत्ति, बहुमूल्य धातु, संचित धन, उपयोग किया जाने वाला धन, हस्तान्तरित किया जाने वाला धन सम्मिलित किये थे। उसके अनुसार किसी भी वस्तु में धन के लिए चार विशेषताएँ होनी चाहिए अर्थात् वास्तविकता, उपयोगिता, हस्तान्तरणता और प्राप्य धन। धन के अन्तर्गत कौटिल्य श्रम तथा वन-सम्पदा को भी सम्मिलित करता था। उसने धन प्राप्त करने की विधियों एवं उद्देश्यों के सम्बन्ध में भी अपने विचार व्यक्त किये थे। उसके अनुसार, “जिस प्रकार विद्या को प्रतिक्षण प्राप्त किया जाता है ठीक उसी प्रकार धन को भी कण-कण करके प्राप्त करना चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो धन अथवा विद्या प्राप्त करने के लिए आतुर है, उसको किसी भी कण अथवा क्षण की ओर उदासीन नहीं होना चाहिए। धन की प्राप्ति सदैव ही लाभदायक होती है यदि उसको एक अच्छी स्त्री, अच्छे पुत्र अथवा अच्छे मित्र का पालन-पोषण करने या धर्मार्थ के उद्देश्य से प्राप्त किया जाता

  2. वार्त्ता –

    प्राचीन विचारकों ने ‘वार्ता’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था’ के विज्ञान के सन्दर्भ में किया है। कौटिल्य ने इसके अन्तर्गत कृषि, पशुपालन और व्यापार को सम्मिलित किया था। इन लोगों के लिए राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का इतना अधिक महत्त्व था कि कामंदक के अनुसार यदि यह नष्ट हो गयी तो संसार भी निर्जीव हो जायेगा। कौटिल्य ने वार्त्ता शब्द के स्थान पर अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग किया और अर्थशास्त्र के अन्तर्गत उसने अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र, व्यायामशास्त्र और सैन्य विज्ञान को सम्मिलित किया।

  3. कृषि तथा पशुपालन – कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृषि को प्रथम स्थान दिया गया है क्योंकि यह समाज को अनाज, पशु, धन, सोना, वन सम्प्रदा तथा सस्ता श्रम प्रदान करती है। इस दृष्टि से कौटिल्य के विचार प्रकृतिवादियों के विचारों से बहुत कुछ मिलते थे। वैदिक सामन्तों तथा तत्त्व ज्ञानियों के विरुद्ध कौटिल्य ने इस बात का अनुकरण किया कि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय कृषि व्यवस्था को अपना सकते हैं परन्तु शर्त यह है कि ब्राह्मण अपने हाथ से हल नहीं चलायेगा।
  4. श्रम की महानता –

    कौटिल्य ने अति प्राचीन विचारकों की, ‘आश्रम-व्यवस्था’ को स्वीकार किया था। वह दास प्रथा के पक्ष में नहीं था। कौटिल्य ने श्रमिकों के अनुशासन के लिए कुछ नियम बनाये थे जिनमें उन श्रमिकों के लिए दण्ड की व्यवस्था थी जो मजदूरी प्राप्त करने के पश्चात काम करने को तैयार नहीं होते थे। कुछ स्थितियों में श्रमिकों को छुट्टी की व्यवस्था की गयी थी।

  5. व्यापार –

    कौटिल्य ने अपनी पुस्तक में व्यापार के विकास तथा नियमन सम्बन्धी प्रश्नों पर काफी विस्तृत विवेचन प्रस्तुत की है। इसी प्रकार धर्मशास्त्र और स्मृतियों में भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में वाणिज्य के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है। इनके अनुसार यातायात तथा संदेशवाहन के साधनों को उन्नत करने की जिम्मेदारी राज्य की है, कौटिल्य ने कहा था कि व्यापारियों की सुविधाओं के लिए गृह-भण्डारों तथा विश्राम-गृह को निर्मित करने की जिम्मेदारी भी राज्य की है। उन दिनों भारत में स्वतन्त्र व्यापार की प्रथा प्रचलित थी। व्यापार की जाने वाली वस्तुओं पर सीमा शुल्क तथा प्रशुल्क लगाया जाता था और उनसे जो आय प्राप्त होती थी उन पर राज्य का अधिकार होता था। व्यापार को विकसित करने के लिए राज्य कानून बनाता था। इस प्रकार स्पष्ट है कि उस युग में व्यापार काफी उन्नत अवस्था में था। कौटिल्य ने कुछ वस्तुओं को निर्मित करने तथा विभागीय एजेंसी द्वारा विक्रय करने की सलाह भी राज्य को दी थी।

  6. लोक-वित्त –

    कौटिल्य ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में राजस्व को प्रमुख स्थान दिया था। उसने स्पष्ट रूप से बताया है कि प्रशासन तथा अन्य सभी क्रियाएँ वित्त पर आधारित होने के कारण, यह अत्यन्त आवश्यक है कि राज्य-कोष की ओर अधिकतम ध्यान दिया जाये। उसके अनुसार राज्य को उद्योगों, वनों की व्यवस्था, कृषि व्यवस्था खान-खुदाई, मत्स्य पालन, व्यापार आदि में भाग लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त राज्य को करारोपण से भी आय प्राप्त होती है जो सरकारी विभागों के कार्य संचालन के लिए आवश्यक थी। प्राचीन समय में राजस्व का मुख्य उद्देश्य जनता को चारों पुरुषार्थों को सम्पन्न करने में सहायता प्रदान करना था।

  7. जनसंख्या-

    प्राचीन विचारकों के लिए अत्यधिक जनसंख्या चिन्ता का कारण नहीं था। वे एक बड़ी जनसंख्या को शक्ति का साधन समझते थे। उनका विश्वास था कि छोटे-छोटे राज्यों में निरन्तर युद्धों तथा चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं की अपर्याप्तता के परिणामस्वरूप ऊँची मृत्यु दर होने के कारण जनसंख्या कभी भी एक निश्चित सीमा से अधिक नहीं बढ़ सकती। कौटिल्य का सुझाव था कि राजा ऐसे उपनिवेश स्थापित करे, जिनमें विदेशों से आने वाले व्यक्तियों को बसने के लिए सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें।

  8. कल्याणकारी राज्य –

    कौटिल्य का राज्य सम्बन्धी विचार औद्योगिक आधारशीला पर आधारित था। उसके अनुसार राज्य के कार्य संचालन के लिए तीन निर्देशक सिद्धान्त होने चाहिए : प्रथम, राज्य को उद्योगो में भाग लेना चाहिए जो राष्ट्र को स्वावलम्बी बनाने में प्रत्यक्ष रूप से सहायक हो। दूसरे, खेती, सूत, कताई-बुनाई, पशुपालन, दस्तकारी इत्यादि को व्यक्तियों के अधिकार में छोड़ना चाहिए। अन्त में राज्य का कर्त्तव्य है कि वह देखे कि उत्पादन, वितरण तथा उपभोग सम्बन्धी क्रियाओं का संचालन कुशलतापूर्वक तथा निर्धारित नियमों के अनुसार हो। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्तियों पर राज्य का पूर्ण प्रभुत्व था किन्तु इसका उद्देश्य व्यक्तियों के कल्याण में वृद्धि करना था।

  9. सामाजिक सुरक्षा-

    कौटिल्य के समय में सामाजिक सुरक्षा, प्रणाली इतनी विस्तृत नहीं थी जितनी आज है किन्तु कौटिल्य ने जन-कल्याण पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। उसके अनुसार राज्य का कर्त्तव्य है कि निर्धनों के लिए धर्मार्थ संस्थाएँ एवं दरिद्रालय स्थापित करें, बेकारों को काम पर लगाये और दुर्बल तथा वृद्ध व्यक्तियों की सुरक्षा का प्रबन्ध करें।

  10. ब्याज –

    प्राचीन विचारक ब्याज के विरुद्ध नहीं थे परन्तु वे ब्याज की ऊँची दर के पक्ष में भी नहीं थे। कौटिल्य ब्याज दर के नियमन के पक्ष में था। उसके अनुसार ब्याज दर 15% न्यायोचित थी। किन्तु कुछ स्थिति में वह ब्याज की ऊँची दर को भी न्यायोचित समझता था।

  11. कीमतों का नियन्त्रण –

    चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियन्त्रित करना महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। इसका मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं को चालाक तथा बेईमान व्यापारियों की कुरीतियों से बचाना था। खाद्यान्न तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं में व्यापार करने का अधिकार केवल अधिकृत व्यापारियों को ही दिया जाता था जो राज्य द्वारा नियुक्त किये जाते थे। ये व्यापारी घरेलू वस्तुओं पर अधिक-से-अधिक 8% और विदेशी वस्तुओं पर 10% लाभ ले सकते थे।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!