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मिल्टन फ्रीडमैन के आर्थिक विचार

मिल्टन फ्रीडमैन के आर्थिक विचार

मिल्टन फ्रीडमैन के आर्थिक विचार

मिल्टन फ्रीडमैन (Milton Friedman) दक्षिणी अमेरिका का पहला अर्थशास्त्री था जिसे 1976 का नोबेल पुरस्कार मिला था। यह पुरस्कार उसे उपभोग विश्लेषण, मुद्रा सिद्धान्त एवं इतिहास के क्षेत्रों में उपलब्धियों तथा स्थिरकीरण की नीति के उपयोग का वह कट्टर समर्थक था। साथ ही वह अबन्ध विनिमय दर (Floating Exchange Rate) का पक्षपाती था। उसकी `Restatement of the quantity theory of money’ एक गौरवमय है और इस बात पर जोर देती है कि तीस की महामन्दी के कारण मुद्रा नीति को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। उसकी महान पुस्तक A Monetary History of the United States 1867-1960′ को उसकी अत्यन्त पारंगत एवं अनोखी सफलताओं में सम्मिलित किया जाता है। उसका नाम विशेषकर इसलिए प्रसिद्ध है कि उसने स्फीति मुद्रा की भूमिका को जीवनदान दिया और मुद्रा नीति के यन्त्रों के महत्त्व को समझने की जिज्ञासा को पुनर्जाप्रत किया। उसके प्रमुख आर्थिक विचार निम्नलिखित हैं-

  1. नवीन परम्परानिष्ठा (New Orthodoxy)-

    अमेरिका में नवीन परम्परानिष्ठा का सम्बन्ध ‘उपयोगिता तथा चयन’ (Utility and choice) सम्बन्धी संकल्पनाओं से भी है। फ्रीडमैन ने उपयोगिता का जोखिम की परिस्थितियों में विश्लेषण प्रस्तुत करके इस वाद-विवाद में भाग लिया। उसका कथन है कि, “घटती हुई सीमान्त उपयोगिता और जोखिम के साथ साधारण उच्चतम सीमा सम्बन्धी सिद्धान्त लागू नहीं होता क्योंकि जोखिम की पूर्ति के लिए कुछ-न-कुछ अतिरिक्त भुगतान की आवश्यकता होगी।” वह कहता है कि अनधिमान वक्र की तकनीक इस पर लागू करना सम्भव हो सकता है, किन्तु उसमें घटती हुई सीमान्त उपयोगिता का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इसमें उपयोगिता के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं किये जाते हैं।

फ्रीडमैन और सैल्वेज (Solvage) ने मिलकर ‘चयन सम्बन्धी तर्क’ का एक विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया और एक सूत्र तैयार किया है जिसके अनुसार परिणामों के एक समूह को दी गयी उपयोगिता की जा सकती है। स्पष्ट है कि मुद्रा आय के आकार के साथ-साथ कुल उपयोगिता में वृद्धि होती जाती है। यद्यपि यह परस्पर विरोधी प्रतीत होता है किन्तु व्यवहार सम्बन्धी समकालिक प्रतिक्रियाओं को सामान्य उपयोगिता फलन का एक अंग मान लिया गया। उनका कथन है कि यदि आय की वृद्धि के साथ यदि कोई व्यक्ति किसी नये वर्ग में शामिल नहीं होता तो यह स्थिति घटती हुई सीमान्त उपयोगिता की स्थिति होगी और यदि वह एक नये वर्ग में शामिल हो जाता है तो बढ़ती हुई सीमान्त उपयोगिता की स्थिति होगी। अतः यदि कोई व्यक्ति एक नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी में जाता है या किसी नये काम को करने लगता है और यदि नये काम से मिलने वाली ऊँची आय के कारण उसकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो जाती है तो इसका अर्थ यह होगा कि यह स्थिति ऊँची उपयोगिता वाली स्थिति होगी। किन्तु फ्रीडमैन अपने तर्क को बाद में उलट देता है और कहता है कि नीची आय वाले व्यक्ति अतिरिक्त जोखिम सहन करने के लिए तैयार नहीं होंगे, क्योंकि घटती हुई सीमान्त उपयोगिता की स्थिति में उनको प्रीमियम देना होगा ताकि अपने काम को करने के लिए प्रेरित हो सकें। दूसरी ओर वे लोग कदाचित अधिक जोखिम सहन करते हैं जिनकी आय सन्तुलित रहती है। उनकी सम्पूर्ण व्याख्या का सारांश यह है कि निर्धनता अपनी-अपनी पसन्द की चीज है।

  1. उपभोग फलन (Consumption Function) –

    उपभोग फलन के क्षेत्र में फ्रीडमैन का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। कीन्स के अनुसार उपभोग फलन आय तथा उपभोग के सम्बन्ध को दर्शाता है अर्थात् आय की वृद्धि के अनुपात में उपभोग में वृद्धि नहीं होती, किन्तु फ्रीडमैन ने इसमें एक नयी संकल्पना जोड़ा अर्थात् स्थायी आय संकल्पना। उनका तर्क था कि आय पर आधारित उपभोग फलन की उत्पादक उपयोगिता तनिक सीमित होती है क्योंकि वास्तविक निवेश का वास्तविक उपभोग पर कोई भी गुणक प्रभाव नहीं होता क्योंकि वास्तविक उपभोग स्वयं अपनी दीर्घकालीन प्रवृत्ति द्वारा निर्धारित होती है। फ्रीडमैन के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने उपभोग के स्तर विशेष को काफी लम्बे समय अवधि में प्राप्त कर पाता है और जिसके लिए उसने अपनी चालू आय को उधार खरीददारी या ॠण द्वारा बढ़ाना पड़ता है। इस प्रकार उपभोग तथा आय दोनों के दो भाग होते हैं – स्थायी (Permanent) और अस्थायी (Transitory)। स्थायी आय कुल आय का वह भाग है जो कोई भी व्यक्ति एक लम्बे काल में प्राप्त करने की आशा करता है और जो प्रत्येक व्यक्ति की समय सीमा तथा दूरदर्शिता पर निर्भर करती है और वातावरण व्यवसाय तथा पूँजीगत सम्पत्ति द्वारा प्रभावित होती है। आय का अस्थायी भाग वह आय है जो प्रत्याशित वृद्धि या कमी से प्रभावित होती है। फ्रीडमैन ने यह स्वीकारा है कि आय के स्थायी तत्त्व के आकार का प्रत्यक्ष अवलोकन सम्भव नहीं होता, किन्तु स्थायी तथा अस्थायी तत्त्वों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कुछ मान्यताओं के अधीन अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है। यह सम्बन्ध ब्याज दर, कुल सम्पत्ति में आय का अनुपात और उपभोक्ता की रुचि पर निर्भर करता है क्योंकि उपभोग के स्थायी भाग और आय में कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए सकल उपभोग केवल स्थायी आय पर निर्भर करता है।

  2. मुद्रा परिमाण सिद्धान्त (Money-Quantity Theory) –

    फ्रीडमैन का सर्वोत्तम योगदान मुद्रा परिमाण सिद्धान्त के पुनः व्याख्या के सम्बन्ध में है। अन्य लोगों के साथ मिलकर उसने इस सिद्धान्त का ‘सामान्य कीमत सिद्धान्त’ के साथ एकीकरण करने का प्रयास किया है। यह एक प्रकार से कीन्स के विरुद्ध एक क्रान्ति है। फ्रीडमैन तथा उसके साथियों के अनुसार बेकारी की उपस्थिति से यह सिद्ध नहीं होता कि आर्थिक प्रणाली किसी विश्लेषण दोष में पीड़ित है क्योंकि यह स्थिति केवल सरकार की मुद्रा नीति के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। उसने इसकी व्याख्या करने के लिए जिस सूत्र का प्रयोग किया है, वह है MV = PY जहाँ M = मुद्रा स्टॉक, V = आय का चलन वेग और Y वास्तविक आय की दर। इस सूत्र में मुद्रा की माँग पर बल दिया गया है। उपभोक्ताओं के लिए मुद्रा, धन का एक रूप है जबकि उत्पादकों के लिए यह एक प्रकार की पूँजी है। मुद्रा सम्पत्तियों की उपस्थिति की व्याख्या एक ऐसे सामान्य सिद्धान्त द्वारा की जा सकती है जो उपयोगिता को अधिकतम करने के लिए वैकल्पिक उपयोगों में धन के विभाजन की व्याख्या करता है। मुद्रा का एक निश्चित स्टॉक और उसकी आय का चलन वेग मुद्रा आय के स्तर को निर्धारित करते हैं। उसने यह निष्कर्ष निकाला था कि मुद्रा की माँग स्थिर रहती है यद्यपि दीर्घकाल में अनिश्चितता होती है। कुछ बातें ऐसी हैं जिनका माँग से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रहता, किन्तु वे मुद्रा की आपूर्ति को प्रभावित करती हैं, जैसे, राजनीतिक परिस्थितियाँ, बैंकिंग प्रणाली और सरकार की मुद्रा नीति। फ्रीडमैन ने यह स्वीकार किया था कि मौलिक समीकरण में मुद्रा स्टॉक के परिवर्तन के प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। उसका कथन था कि मुद्रा स्टॉक पर व्यक्तियों का नियन्त्रण न होकर सरकार का नियन्त्रण था। यदि एक व्यक्ति अपनी नकद सम्पत्ति को कम करने का प्रयास करता है तो उससे चलन वेग में वृद्धि होती है आय में वृद्धि होती है, आय में नकद शेषों का अनुपात हो जाता है और मुद्रा सम्पत्ति का वास्तविक मूल्य घट जाता है। यदि जनता अपनी वास्तविक शेषों को सुरक्षित रखना चाहती है तो समायोजन करना ही पड़ेगा। वास्तविक शेष मुख्यतया मुद्रा सम्पत्ति की लागत और जीवन स्तर से प्रभावित होते हैं। मुद्रा सम्पत्ति की लागत, वैकल्पिक परिसम्पत्तियों पर सूद की दर और कीमतों में परिवर्तन की प्रत्याशित दर द्वारा निर्धारित होती है। कीमतों की वृद्धि से नकद सम्पत्ति की लागत बढ़ जाती है जिससे शेषों में कमी करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है। यद्यपि फ्रीडमैन ने यह स्वीकारा था कि ऐसे प्रभावों से केवल स्फीति की अवधि ही लम्बी होती है और ब्याज दर का कोई विशेष संघात नहीं होता, किन्तु उसने जोर देकर कहा कि इस सबसे यह पता लग जाता है कि आय में मुद्रा की लागत का अनुपात क्यों कम हो जाता है। इसलिए नीति की कीमतों तथा उत्पाद के सन्दर्भ में मुद्रा स्टॉक का कड़ा संचालन करना चाहिए। अल्पकाल में यह सम्बन्ध कैसा होना चाहिए, यह निश्चित करना उसके अनुसार कठिन है। एकमात्र उचित नीति यही होगी कि उत्पाद की वृद्धि दर के अनुपात में ही मुद्रा स्टॉक में वृद्धि की जाये। इसके अतिरिक्त इस बात की भी आवश्यकता थी कि देश में फिजूलखर्ची न हो, व्यक्तियों में पहले करने की क्षमता हो और अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता तथा स्वतन्त्र व्यापार हो ।

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