हिन्दू विधि में विभाजन (Division in Hindu Law)

हिन्दू विधि में विभाजन

हिन्दू विधि में विभाजन से तात्पर्य संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को प्रत्येक सहदायिकों में विभक्त करने या बांटने से है। मिताक्षरा विधि के अनुसार विभाजन के दो विशिष्ट अर्थ होते हैं-प्रथमतः “पारिवारिक सम्पत्ति के विभिन्न सदस्यों के अनिश्चित हितों को निर्दिष्ट अंशों में समायोजन करना” तथा दूसरा अर्थ होता है, “संयुक्त प्रास्थिति का पृथक्करण तथा उसके विधिक परिणाम।” मिताक्षरा विधि में विभाजन की परिभाषा यह है “संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहदायिकी के चल हितों का निर्दिष्ट भागों में स्फुटन (crystallisation)।”

मिताक्षरा विधि में संयुक्त आस्ति तथा प्रास्थिति के विभाजन में संयुक्त सम्पत्ति में प्रत्येक सहदायिकी के भाग को निर्दिष्ट करना आता है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि सम्पत्ति की सीमाओं, परिसीमाओं में विभाजन हो। एक बार प्रत्येक सहदायिकी के भाग निर्धास्ति हो जाने के पश्चात् सम्पत्ति संयुक्त नहीं रह जाती तथा प्रत्येक भागीदार का सह-आभोगी (Tenants-in-Common) के रूप में सम्पत्ति पर अधिकार होता है। अन्य शब्दों में, उत्तरजीविता द्वारा सम्पत्ति पाने का अधिकार समाप्त हो जाता है।

मयूख के अनुसार, “विभाजन केवल एक प्रकार की मनःस्थिति है, जिसमें विभाजन होने का आशय ही विभाजन है। यह एक विधि है जिसके द्वारा संयुक्त अथवा पुनसँयुक्त परिवार का कोई सदस्य पृथक् हो जाता है तथा सहदायिकी नहीं रह जाता। विभाजन के लिए किसी अन्य सदस्य की अनुमति अथवा किसी न्यायालय की डिक्री अथवा कोई अन्य लेख आवश्यक नहीं है।

विभाजन के तरीके

हिन्दू विधि में विभाजन के निम्न तरीके बताये गये हैं-

  1. केवल घोषणा द्वारा विभाजन

    मिताक्षरा विधि में विभाजन संयुक्त विधि का पृथक्करण होता है तथा वह व्यक्ति-विशेष होने के संकल्प का विषय है। संयुक्त परिवार के विभाजन हेतु केवल एक सदस्य द्वारा पृथक् होने के दृढ़ मत का प्रदर्शन पर्याप्त हैं। विभाजन हेतु सदस्य द्वारा दावा करना इस मत का स्पष्ट दिग्दर्शन है।

किसी सहदायिक द्वारा मौखिक अथवा लिखित सूचना से संयुक्त स्थिति का विभाजन हो सकता है। यह सूचना अन्य सहदायिकों की अनुमति से वापस ली जा सकती है तथा इसके वापस लिये जाने पर विभाजन नहीं होगा।

यह आवश्यक नहीं है कि विभाजन सदस्यों के समझौते के ही परिणामस्वरूप हो। सदस्यों के किसी ऐसे कृत अथवा लेन-देन से भी विभाजन हो सकता है जिससे संयुक्त सम्पत्ति में उसके अंश की पृथक्ता का स्पष्ट ज्ञान हो। किसी प्रकार के आचरण से अथवा भावना के प्रदर्शन से संयुक्त स्थिति विनष्ट हो जाती है, इसका निर्धारण प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा। पृथक् होने की धारणा की सूचना कोई सदस्य द्वारा यदि धमकी देने के दृष्टिकोण से दी गई हो जब कि पृथक होने की धारणा वास्तविक नहीं है और कुछ ही समय बाद वह ऐसी धारणा का त्याग कर देता है तो ऐसी धारणा संयुक्त स्थिति के पृथक्करण के लिए पर्याप्त नहीं होती। पृथक्करण इस बात से भी नहीं होता कि संयुक्त परिवार का कोई एक सदस्य दिवालिया घोषित होने के लिए याचिका प्रस्तुत किये हैं। संयुक्त सम्पत्ति के न होने पर पृथक् होने की धारणा को सूचित करके विभाजन कराया जा सकता है।

राघवम्मा बनाम चेन्चेम्मा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि पृथक्करण की इच्छा चाहे जिस रूप में व्यक्त की गई हो उसकी संसूचना, प्रज्ञापना (Indica- tion) या प्रकटीकरण (Representation) आवश्यक है, जो कि अन्य सहदायिकों को दिया जाना चाहिए।

  1. इच्छापत्र द्वारा विभाजन

    कोई सहदायिकी अपने इच्छापत्र में स्पष्ट तथा दृढ़ शब्दों में पृथक् होने के मत को व्यक्त करके अपने इस अधिकार का प्रयोग कर विभाजन कर सकता है। लक्ष्मी बनाम कृष्णा वेनियम्मल के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि जहाँ कोई सहदायिकी एक इच्छापत्र लिखता है, किन्तु इच्छापत्र में ऐसा कुछ नहीं होता कि जिससे उसके पृथक् होने की बात स्पष्ट हो, तो वह इच्छापत्र उसकी प्रास्थिति पर कोई प्रभाव नहीं डालता और न उससे इच्छापत्र ही वैध हो जाता है। अपने इस (पृथक् होने के) आशय की सूचना स्पष्ट रूप से अन्य सहदायिकों को देना चाहिए, इसके पूर्व कि संयुक्त स्थिति से पृथक्ता लायी जाय। कभी एक निष्यभावी इच्छापत्र यदि परिवार के वयस्क सभी सदस्यों की सहमति से युक्त एक पारिवारिक व्यवस्था के रूप में प्रभावशाली हो सकता है। किन्तु संयुक्त परिवार का पिता किसी पारिवारिक व्यवस्था को आरोपित नहीं कर सकता, यह कहते हुए कि वह विभाजन के अधिकार का प्रयोग कर रहा है। हालाँकि वह यह अधिकार रखता है किन्तु उपर्युक्त आशय का इच्छापत्र तभी प्रभावी हो सकता है जब कि सभी वयस्क सदस्यों ने सहमति दे दी हो।

  2. अन्य जाति में परिवर्तन

    किसी सहदायिक का अन्य जाति में बदल जाना उसके तथा अन्य सदस्यों के बीच विभाजन का कार्य करता है। इस प्रकार परिवर्तित व्यक्ति उत्तरजीविता द्वारा सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता। क्योंकि परिवर्तन के समय से ही वह व्यक्ति सहदायिकी नहीं रह जाता तथा वह परिवर्तित होने की स्थिति के अनुसार अंश पाने का अधिकारी नहीं होता है। किसी वाद की क्रिया अथवा व्यवहार के बिना किसी व्यक्ति का हिन्दू धर्म में पुनः परिवर्तन उसे सहदायिकी का आधार नहीं दे सकता।

  3. विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अन्तर्गत विवाह

    किसी व्यक्ति का उक्त अधिनियम के अन्तर्गत विवाह उसके तथा अन्य परिवार के सदस्यों के बीच विभाजन का कार्य करता है।

  4. समझौते द्वारा विभाजन

    सदस्यों द्वारा सम्पत्ति को पृथक् कर उपभोग करने का मत प्रदर्शित होने के कारण समझौते द्वारा विभाजन हो सकता है। यद्यपि सम्पत्ति का विभाजन सीमाओं तथा परिसीमाओं में न हुआ हो फिर भी संयुक्त स्थिति का विभाजन तथा सम्पत्ति का वास्तविक विभाजन, इन दोनों विचारों में अन्तर है। इस बात की व्याख्या हिन्दू विधि के मिताक्षरा शाखा में की गई है। मिताक्षरा विधि में विभाजन केवल संयुक्त स्थिति में विच्छेदन होने से ही पूर्ण हो जाता है। अंशों का निर्धारण बाद में भी किया जा सकता है।

अप्रूवियम बनाम रावसुब्बा अय्यर के प्रसिद्ध वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह कहा था कि अविभक्त संयुक्त परिवार के वास्तविक अर्थ में, कोई सदस्य संयुक्त अविभक्त सम्पत्ति के विषय में यह इंगित नहीं कर सकता कि वह अब एक निश्चित हिस्सा उसमें रखता है, किन्तु जब संयुक्त परिवार के सदस्य आपस में इस आशय का समझौता कर लेते हैं कि अब भविष्य में प्रत्येक सदस्य का निश्चित अंश होगा तो संयुक्त स्थिति बदल जाती है और उससे प्रत्येक सदस्य का एक निर्धारित अंश होगा जिसको वह सम्पूर्ण परिवार से पृथक् होकर उपभोग कर सकेगा।

  1. विवाचन द्वारा विभाजन

    उपर्युक्त खण्ड (5) में में दिये गये कारणानुसार किसी संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच हुए किसी समझौते द्वारा जहाँ उन्होंने इसके लिए मध्यस्थ नियुक्त किया हो, विभाजन उसके द्वारा किये गये समझौते की तिथि से फलीभूत होता है। कोई पंचाट नहीं दिया गया, यह इस बात का द्योतक नहीं है कि उनका पृथक् होने का मत समाप्त कर दिया गया है। जब सदस्यों ने मिलकर अपने अंश के विभाजन के लिए मामला विवाचन के हेतु दे दिया है जिससे संयुक्त आभोग सह-आभोग में परिणत हो जाय तो यह तथ्य इस आशय का द्योतक है कि सदस्यगण पृथक्करण चाहते हैं। ऐसी स्थिति में पंचाट न होने पर भी उनके पृथक् होने की धारणा समाप्त नहीं होती।

  2. पिता द्वारा विभाजन

    बिना पुत्रों की अनुमति लिए हुए पिता विभाजन कर सकता है। यह पुरातन पितृ प्राधिकार (Patria potestas) का अवशेष है। हिन्दू विधि के अनुसार पिता इस बात के लिए सक्षम है कि वह अपने जीवन-काल में विभाजन कर दे और इस प्रकार उसके द्वारा किया हुआ विभाजन उसके पुत्रों पर बाध्यकारी होगा। वह पुत्रों पर बाध्यकारी इसलिए नहीं होता कि उन्होंने उस पर सहमति दे दी थी वरन् इसलिए कि पिता को इस प्रकार का अधिकार प्राप्त है। यद्यपि इस प्रकार का अधिकार परिवार के हित के आधार पर कुछ सीमा तक नियन्त्रित है। इस प्रकार के मामलों में प्रश्न यह उठता है कि क्या यह एक विधिक संव्यवहार है जो हिन्दू-विधि के अनुरूप है?

  3. ाद द्वारा विभाजन

    केवल वाद प्रस्तुत करना ही संयुक्त स्थिति के विभाजन के हेतु पर्याप्त है। वाद का प्रस्तुतीकरण संयुक्त स्थिति को तत्काल समाप्त कर देता है। पृथक्करण के परिणाम तथा निश्चित अंशों के निर्धारण हेतु एक डिक्री की आवश्यकता हो सकती है। परन्तु वादी के अंश पृथक् होने के अधिकार का व्यक्तिकरण ही संयुक्त सम्पत्ति से उसकी पृथक् स्थिति का द्योतक है, चाहे वह परिणामतः विनिश्चय प्राप्त करे अथवा नहीं।

अन्त में चाहे वाद खारिज ही क्यों न हो जाय, वह किसी भी प्रकार से प्रास्थिति (Status) के विभाजन पर उसको प्राप्त हुआ था, दायित्वों एवं आभारों से मुक्त नहीं हो सकता। यदि ऋणदाताओं ने संयुक्त सम्पत्ति के विरुद्ध डिक्री प्राप्त कर ली है, तो वादी का वह अंश भी, जो उसे नहीं प्राप्त हुआ था, दायित्वों एवं आभारों से उसी प्रकार बाधित होगा जिस प्रकार अन्य सहदायिकों का अंश बाधित था।

उपर्युक्त विभाजन की आठ विधियाँ सर्वांगपूर्ण नहीं हैं। इसके अन्तर्गत कोई भी स्थिति, जिससे विभाजन का मत प्रदर्शन होता हो, आ सकती है।

अपवाद-

उपर्युक्त सामान्य नियम वहाँ लागू नहीं होगा जहाँ वाद प्रस्तुत करने के बाद विचारण के पूर्व ही इस आधार पर वापस ले लिया गया हो कि वादी अब विभाजन नहीं चाहता। इस स्थिति में संयुक्त स्थिति का विच्छेद नहीं हो सकता। विच्छेद जताने के लिए लाया गया वाद झूठा सिद्ध हो जाने पर कोई विभाजन नहीं माना जाएगा। प्रतिवादी की मृत्यु हो जाने पर यदि वाद वापस ले लिये गया हो तो भी कोई विभाजन नहीं समझ जायेगा।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए,  अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हम से संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है,  तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment