ऋण के संबंध में पवित्र दायित्व का सिद्धांत

पवित्र दायित्व का सिद्धान्त

हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पिता ऋणों को अदा करने का दायित्व पुत्रों तथा पोत्रों को सौंपा गया है। प्रिवी कौंसिल के अनुसार यह दायित्व प्रपौत्रों पर भी होता है, क्योंकि ये तीनों ही आपस में जन्म से सहदायिकी होते हैं। इसके अतिरिक्त उनका यह दायित्व ‘पवित्र दायित्व’ के सिद्धान्त पर आधारित होता है। इसके अन्तर्गत अपने पिता द्वारा अर्जित ऋणों को चुकता करना पुत्र का एक पवित्र कर्त्तव्य होता है, यदि वह ऋण किसी अवैध अथवा अनैतिक कार्य हेतु न लिया गया हो।

पवित्र दायित्व का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का मूल स्रोत स्मृतियाँ हैं। स्मृतिकारों ने लिखा है कि ऋण अदा न करना एक भयंकर पाप तथा ऋण न चुकता करने के दुष्परिणाम परलोक में भी होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार परलोक में अपने पिता की आत्मा को कष्ट से बचाने के लिए पुत्र का यह धर्म होता है कि वह पिता के ऋण को चुकता कर दे। बृहस्पति का कथन है कि “यदि पिता जीवित न हो तो उसके ऋणों को पुत्रों द्वारा अदा किया जाना चाहिए। किसी व्यक्ति द्वारा अपने ऋणों को चुकता करने के पूर्व अपने पिता के ऋण को चुकता करना चाहिए। परन्तु इन दोनों के पहले भी पितामह के ऋणों को चुकता करना चाहिए। पिता के ऋण सिद्ध हो जाने के पश्चात् उसे अपना ऋण समझ कर पुत्र को उसे चुकता करना चाहिए, अपने पितामह के ऋण को पौत्र द्वारा बिना किसी व्याज के अदा करना चाहिए, परन्तु प्रपौत्र के पुत्र द्वारा ऋण का अदा किया जाना आवश्यक नहीं है। पुत्र को अपने पिता द्वारा अर्जित त्रऋणों को चुकता करना आवश्यक नहीं है, यदि वह ऋण मदिरा, व्यर्थ उपहारों, प्रेम अथवा काम-प्रेरणा से युक्त मनःस्थिति में किये गये वादों अथवा प्रतिकूल से उ उत्पन्न हो। पुत्र को पिता पर लगे अर्थदण्ड अथवा कर के किसी भाग को चुकता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।“

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पवित्र दायित्व का सिद्धान्त स्त्रियों के प्रति लागू नहीं होता भले ही विभाजन होने पर उन्हें सम्पत्ति का एक अंश प्राप्त हुआ रहा हो। यदि पत्नी पति तथा पुत्रों के बीच बँटवारा होने पर सम्पत्ति के एक अंश प्राप्त करती है तो वह उस विभाजन के आधार पर ऋण को अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं हो जाती।

इस सिद्धान्त पर न्यायिक विनिश्चयों का परिणाम

मूल पाठों पर निरूपित इस सिद्धान्त में न्यायिक विनिश्चयों द्वारा कुछ परिवर्तन आ गया है। वर्तमान विधि में पुत्र का पिता के ऋण को चुकता करने का कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं है, चाहे उसको पिता की ही सम्पत्ति मिली हो। उसका यह दायित्व संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को प्राप्त उसके अंश अथवा उसमें स्थित हित तक सीमित होता है। पुत्र वयस्क हो अथवा अवयस्क, पिता जीवित हो अथवा उसकी मृत्यु हो चुकी हो, इस दायित्व का भार उस पर होता है। यदि पिता द्वारा ऋण लिया गया हो तथा वह किसी अनैतिक अथवा अधार्मिक कार्य हेतु न हो, तो पुत्र के हित तक सहदायिकी सम्पत्ति से वह ऋण वसूल किया जा सकता है।

अन्थोनी स्वामी बनाम एम. आर. चिन्नस्वामी कोन्दन के वाद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने धार्मिक दायित्व को विधिक दायित्व के आवरण से आच्छादित कर दिया। न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि पुत्रों का ऋण अदा करने का पवित्र दायित्व न केवल धार्मिक दायित्व है बरन् एक विधिक दायित्व की सीमा में आ गया है। यह सिद्धान्त पैतृक सम्पत्ति में पुत्रों के जन्मतः हक के नियम का परिणामी आधार है। दोनों नियम आपस में सम्बन्धित हैं। पुत्रों का पूर्वजों द्वारा लिया गया ऋण अदा किया जाना कोई कृपापूर्ण कृत्य नहीं है, बल्कि इस सिद्धान्त का प्रतिलक्षी है कि वह पूर्वजों की सम्पत्ति में जन्म से ही एक अंश पाने का अधिकारी हो जाता है।

वेंकटेश ढोंडदेव देशपांडे बनाम कुसुम दत्तादेय कुलकरनी के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने पुनः यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता ने कर्ता की हैसियत से संयुक्त परिवार की भूमि के विकास के लिए ऋण लिया है वहां ऐसे ऋण स्वतः विधिक आवश्यकता माने जायेंगे और उसके पुत्र पैतृक सम्पत्ति में अपने अंश तक (पिता द्वारा लिये गये) त्रऋण अदी करने के लिए बाध्य हैं। जहाँ पुत्र अपने पिता के साथ रहते हैं और पिता ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए ऋण लिया है। यदि ऋण अनैतिक तथा अवैध उद्देश्यों के लिए नहीं लिया गया तो पुत्रगण ऋण अदा करने के लिए बाध्य होंगे। इस प्रकार का दायित्व पुत्रों पर पिता के जीबन-काल में तथा उसकी मृत्यु के बाद भी बना रहता है। इस प्रकार का दायित्व धर्म तथा पवित्रता के सिद्धान्त से उत्पन्न हुआ, किन्तु कालान्तर में विधिक दायित्व की सीमा में सम्मिलित कर लिया गया। पवित्र दायित्व का सिद्धान्त विधिक आवश्यकता के निमित्त लिए गये ऋण तक ही सीमित नहीं है बल्कि पिता द्वारा लिये गये किसी ऋण की अदायगी, यदि वह अनैतिक अथवा अवैध उद्देश्य के लिए नहीं है, पुत्रों का परम दायित्व है। इस प्रकार यदि पिता ने ऋण को अदा करने के लिए संयुक्त सम्पत्ति को बेच दिया है और ऋण किसी विधिक आवश्यकता के लिये नहीं थी तब भी विक्रय बाध्यकर होगा।

दायित्व कब आरम्भ होता है?

पुत्र का दायित्व उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाता है जिस समय पिता ऋण अदा नहीं कर पाता अथवा पिता की संयुक्त सम्पत्ति अथवा स्वयं अर्जित सम्पत्ति ऋण की अदायगी में अपर्याप्त होती है।

दायित्व की अवधि-

पुत्रों द्वारा पिता के ऋणों को चुकता करने का दायित्वं ऋण की समाप्ति तक होता है। उनका यह दायित्व संयुक्त तथा पृथक् दायित्व नहीं होता। यह दायित्व केवल पिता की मृत्यु के पश्चात् नहीं वरन् पिता की जीवितावस्था में भी हो सकता है।

पुत्र का दायित्व-

पिता द्वारा लिये गये ऋण को चुकाने का दायित्व पुत्र का व्यक्तिगत दायित्व नहीं है। यह केवल सहदायिक सम्पत्ति में उसके हित तक सीमित होता है।

एक मिताक्षरा सहदायिकी परिवार में पिता के उन त्रऋणों को अदा करने का दायित्व हिन्दू पुत्रों पर होता है जो अनैतिकता अथवा अवैधता से प्रच्छन्न नहीं हैं। यह दायित्व पुत्रों के पुनीत दायित्वों के रूप में है जो पुत्रों पर पिता के जीवन काल में उसकी मृत्यु के बाद भी उनके ऊपर होता है। यह दायित्व संयुक्त परिवार में विभाजन के बाद भी पुत्रों पर तब तक होता है जब तक कि पिता के उचित ऋणों की अदायगी का उपबन्ध विभाजन के समय नहीं कर दिया जाता। यद्यपि विभाजन के परिणामस्वरूप अपने पुत्रों की सम्पत्ति में अंशों को ऋण की अदायगी से बेचने का हक समाप्त हो जाना है. फिर भी निर्णीत ऋणदाता को यह हक है कि सहदायिकी सम्पत्ति से जो पुत्रों के साथ में है, आज्ञप्ति की रकम वसूल कर सकता है। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के द्वारा वर्तमान हिन्दू विधि में पवित्र दायित्व का सिद्धान्त समाप्त कर दिया गया है। उपर्युक्त (संशोधन) अधिनियम द्वारा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा (4) निम्न उपबन्ध करती है-

हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के बाद कोई न्यायालय पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह, प्रपितामह से किसी बकाया ऋण की वसूली के लिए एकमात्र हिन्दू विधि के अधीन पवित्र कर्तव्य के आधार पर किसी ऐसे ऋण का उन्मोचन करने के लिए ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के हिन्दू विधि के अधीन पवित्र आबद्धता के आधार पर कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा।

परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के पूर्व लिये गये किसी ऋण के मामले में इस उपधारा के अन्तर्विष्ट कोई चीज-

  • पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध यथास्थिति, कार्यवाही करने के लिए किसी लेनदार के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा, या
  • किसी ऐसे ऋण के सम्बन्ध में या तुष्टि में किये गये किसी अन्यसंक्रामण को प्रभावित नहीं करेगा और कोई ऐसा अधिकार या अन्य संक्रामण उसी ढंग में और उसी विस्तार तक पवित्र कर्तव्य के नियम के अधीन प्रवर्तनीय होगा, जैसे प्रवर्तनीय होता मानों हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 प्रवर्तित किया गया हो।

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