स्वीकृति की संसूचना के ढंग

स्वीकृति की संसूचना देने की विधियाँ

स्वीकृति की संसूचना देने की विधियाँ

स्वीकृति की संसूचना निम्नलिखित ढंग से दी जा सकती है-

  1. जब प्रस्तावक ने संसूचना की विधि बतायी हो –

    इस सम्बन्ध में अंग्रेजी तथा भारतीय विधि में अन्तर है।

अंग्रेजी विधि –

अंग्रेजी विधि में जब प्रस्तावक द्वारा बतायी गयी विधि से स्वीकृतिकर्ता की संसूचना नहीं भेजता है तो अवैध मानी जाती है। इस सम्बन्ध में अमेरिकन वाद एलियासन v. हेन्शा का वाद प्रमुख है-‘अ’ ने ‘ब’ से आटा खरीदने का प्रस्ताव वैगन द्वारा भेजा और ‘ब’ से स्वीकृति की वैगन द्वारा भेजने की इच्छा की। ‘ब’ ने सोचा कि पत्र वैगन से पहले पहुँचेगा इसलिए स्वीकृति डाक से भेज दी। परन्तु पत्र वैगन पहुँचने के बाद पहुँचा। ‘अ’ ने आटा लेना अस्वीकार कर दिया।

निर्णीत हुआ कि ‘अ’ को आटा खरीदने से अस्वीकार करने का अधिकार था क्योंकि संस्वीकृति की सूचना उसके द्वारा बतायी गयी विधि से नहीं दी गयी थी।

भारतीय विधि (धारा 7(2))-

भारत में जब संस्वीकृति की सूचना प्रस्तावक द्वारा बतायी गयी विधि से नहीं होती है तब प्रस्तावक युक्तियुक्त समय के अन्दर अस्वीकार कर सकता है परन्तु जब युक्तियुक्त समय के अन्दर प्रस्तावक अस्वीकार नहीं करता है तब यह मान लिया जाता है कि उसने स्वीकार कर लिया है।

‘B’ ने ‘A’ से प्रस्ताव किया कि मैं अपना मकान 50,000 रुपये में बेचना चाहता यदि तुम खरीदना चाहो तो H को उसके पते पर लिखो। A ने लिखने के बजाय अपने एजेन्ट को H के पते पर 50,000 रु. सहित भेजा। ‘B’ ने मकान बेचने से इन्कार कर दिया। ‘B’ का तर्क था कि स्वीकृति की सूचना बतायी गयी विधि से नहीं की गयी थी इसलिए विधिमान्य नहीं थी।

यहाँ स्वीकृति विधिमान्य होगी क्योंकि B का यह कहना कि संस्वीकृति की सूचना बतायी गयी विधि से नहीं की गयी थी। विधिमान्य नहीं है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सुरेन्द्र नाथ v. केदारनाथ के वाद में यह अभिनिर्णीत किया है कि जब प्रस्तावक ने यह कहा हो कि स्वीकृति की सूचना किसी निहित व्यक्ति के पत्र द्वारा भेजी जाय तो इसे उचित ढंग से लिया जाना चाहिए और इसलिए जब स्वीकृतिकर्ता ने उस व्यक्ति को स्वीकृति पत्र लिखने के बजाय स्वयं जाकर स्वीकृति पत्र दे दिया हो तो ऐसी स्वीकृति धारा 7 के अधीन विधिमान्य स्वीकृति होगी।

  1. जब संसूचना की विधि न बतायी गयी हो –

    जब प्रस्तावक ने सूचना की विधि न बतायी हो तो स्वीकृति की सूचना युक्तियुक्त ढंग से की जानी चाहिए। उदाहरणार्थ यदि प्रस्तावक ने प्रस्ताव डाक द्वारा किया है तो स्वीकृति की सूचना भी डाक द्वारा ही की जानी चाहिए।

डाक द्वारा स्वीकृति –

डाक द्वारा स्वीकृति के मामले में संविदा उस समय पूर्ण होती है, जब स्वीकृति का पत्र डाक में डाला जाता है। इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण वाद एडम्स v. लिण्डसेल का है- प्रतिवादी ने वादी से पत्र द्वारा ऊन बेचने का प्रस्ताव 2 सितम्बर 1817 को किया, जो वादी को 5 सितम्बर को प्राप्त हुआ। वादी ने 5 सितम्बर को ही स्वीकृति का पत्र डाक में डाल दिया जो प्रतिवादी को 9 सितम्बर को प्राप्त हुआ परन्तु प्रतिवादी ने 8 सितम्बर तक वादी की स्वीकृति की प्रतीक्षा करके 9 सितम्बर को ही ऊन किसी और को बेच दिया। अधिनिर्धारित हुआ कि प्रतिवादी संविदा उल्लंघन के लिए दायी था ।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत कल्लूराम केशरवानी v. स्टेट ऑफ एम०पी० तथा अन्य के बाद में गजट अभिसूचना द्वारा रीवा के जंगल पर तेंदू की पत्ती इकट्ठा करने के लिए 5000 रु. जमानत के साथ निविदा माँगी गयी। याचिकाकर्ता ने निविदा भरकर भेजा। प्रत्यर्थी का तर्क था कि स्वीकृति की सूचना पत्र द्वारा भेज दी गयी थी जो पिटीशनर के अनुसार उसे प्राप्त नहीं हुई। यह अवलोकन किया गया कि प्रत्यर्थी द्वारा अभिकथित स्वीकृति पत्र की जो प्रतिलिपि डी०ओ० रीवा फारेस्ट को भेजी गयी थी उस पर दिनांक मेमो संख्या तथा वन संरक्षक के हस्ताक्षर नहीं थे।

अत: अभिनिर्धारित हुआ कि वैध संविदा निर्मित नहीं हुई थी क्योंकि प्रत्यर्थी यह करने में असफल रहे कि स्वीकृति की सूचना याचिकाकर्ता को भेजी गयी थी।

परन्तु यदि यह साबित हो जाता है कि स्वीकृति की सूचना डाक द्वारा भेजी गयी थी तो चाहे प्रस्तावक को वह पत्र कभी न मिले परन्तु स्वीकृति पूर्ण मानी जायेगी और दोनों पक्षकार संविदा से बाध्य होंगे। उदाहरणार्थ- हाउस होल्ड फायर एण्ड एक्सीडेन्ट इंश्योरेन्स कं० v. ग्रन्ट के वाद में-

प्रतिवादी ने वादी कम्पनी से 100 अंश खरीदने के लिए प्रस्ताव किया । वादी ने स्वीकृति का पत्र समय से ही भेज दिया परन्तु प्रतिवादी को कभी नहीं मिला । अभिनिर्धारित हुआ कि संविदा का निर्माण हो चुका था और प्रतिवादी संविदा से बाध्य था।

उपर्युक्त सिद्धान्त भारत में भी मान्य है जैसा कि बड़ौदा आयल केक्स ट्रेडर्स v. पुरुषोत्तम दास नरायण दास बगूलिया के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि यदि स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक के पास किसी कारण से नहीं पहुँचती है तो भी संविदा वैध एवं पूर्ण मानी जायेगी।

भारतीय विधि (धारा 4) –

स्वीकृति की संसूचना प्रस्तावकर्ता के विरुद्ध तब पूर्ण हो जाती हैं जब वह उसके प्रति इस प्रकार पारेषण के अनुक्रम में कर दी जाती है कि वह स्वीकृतिकर्ता की शक्ति के बाहर हो जाय । स्वीकृतिकर्ता के विरुद्ध तब पूर्ण हो जाती है जब वह प्रस्तावकर्ता के ज्ञान मैं. आ जाती है। धारा 4 का संलग्न दृष्टान्त (ख) इस प्रकार है-

‘ख’ डाक द्वारा भेजे गये ‘क’ के प्रस्ताव को स्वीकार करता है। स्वीकृति की सूचना ‘क’ के विरुद्ध तब पूर्ण हो जाती है जब वह पत्र डाक में डाल दिया जाता है, ‘ख’ के विरुद्ध तब पूर्ण हो जाती हैं जब ‘क’ का पत्र प्राप्त होता है।

टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा स्वीकृति-

कभी-कभी ऐसा होता है कि संविदा के पक्षकार एक दूसरे से बातचीत तो सीधे करते हैं परन्तु एक दूसरे के सामने नहीं होते अथवा दूर होते हैं। उदाहरण टेलीफोन द्वारा बातचीत। जब टेलीफोन द्वारा स्वीकृति की सूचना भेजी जाती है तो संविदा का निर्माण तब होता है जब स्वीकृति का तथ्य प्रस्तावकर्ता के ज्ञान में आ जाता है। इस सम्बन्ध में कोर्ट आफ अपील द्वारा निर्णीत इन्टोर्ड्स लि० v. मिल्स फार ईस्ट कारपोरेशन का वाद इसका उदाहरण है-

वादी ने लन्दन से टेलेक्स द्वारा हालैण्ड की एक पार्टी को कुछ सामान खरीदने का प्रस्ताव भेजा और उसी टेलेक्स से प्रतिवादी पार्टी ने अपनी स्वीकृति दे दी जो प्रस्तावकर्ता को प्राप्त हो गयी। अब प्रश्न यह था कि संविदा लन्दन में उत्पन्न हुई या हालैण्ड में ?

न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संविदा लन्दन से उत्पन्न हुई क्योंकि टेलीफोन और टेलेक्स द्वारा तुरन्त संदेश पहुँच जाता है जबकि डाक में समय लगता है इसलिए डाक द्वारा स्वीकृति का नियम टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा स्वीकृति के मामलों में लागू नहीं होता। इसलिए जब प्रस्ताव टेलेक्स या टेलीफोन से किया जाता है और स्वीकृति भी उसी से हो जाती है तो संविदा तब पूर्ण होती है जब स्वीकृति की सूचना प्रस्तावकर्ता को प्राप्त हो जाती है एवं उस स्थान पर संविदा पूर्ण होती है जहाँ स्वीकृति प्राप्तकर्ता को प्राप्त होती है।

परन्तु टेलीफोन द्वारा स्वीकृति के मामले में वहाँ स्थिति भिन्न होगी जहाँ प्रस्ताव टेलीफोन से किया गया है और स्वीकृति कर्ता ने स्वीकृति भी टेलीफोन द्वारा भेज दी है परन्तु प्रस्तावक को स्वीकृति की सूचना नहीं मिल पायी है। उदाहरण ‘अ’, ‘ब’ से कुछ सामान खरीदने के लिए प्रस्ताव करता है ‘ब’ टेलीफोन से ही स्वीकृति दे देता है परन्तु प्रस्तावक ‘अ’ को स्वीकृति की सूचना मिलने के पहले ही टेलीफोन की लाइन कट जाती है जिससे ‘अ’, ‘ब’ की स्वीकृति की बात नहीं सुन पाता है। वहाँ ‘अ’ और ‘ब’ के बीच कोई संविदा उत्पन्न नहीं हुई।

उपर्युक्त मत का समर्थन सर्वोच्च न्यायालय ने भगवानदास गोवर्धन दास केडिया v. गिरधारी लाल पुरुषोत्तम दास एण्ड कम्पनी के वाद में कर दिया है, इस वाद में-

वादी ने अहमदाबाद से टेलीफोन द्वारा खामगाँव में प्रतिवादी से कुछ सामान क्रय करने के लिए प्रस्ताव किया। प्रतिवादी ने अपनी स्वीकृति तुरन्त दे दी। यहाँ वादी का कथन था कि संविदा अहमदाबाद में पूर्ण हुई क्योंकि स्वीकृति की सूचना अहमदाबाद में प्राप्त हुई। प्रतिवादी का कथन था कि संविदा खामगाँव में पूर्ण हुई क्योंकि उसने संविदा को खामगाँव में स्वीकार किया ।

निर्णीत हुआ कि संविदा अहमदाबाद में पूर्ण हुई थी क्योंकि स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक को अहमदाबाद में प्राप्त हुई थी। इसलिए संविदा से सम्बन्धित विवादों के लिए वाद अहमदाबाद के न्यायालय में दायर किया जा सकता है।

मेसर्स गैम्पेन इंडिया लि० v. पंजाब इलेक्ट्रिीसिटी बोर्ड के मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि फैक्स के माध्यम से भी प्रस्ताव प्रतिग्रहण हो सकता है।

स्वीकृति का प्रतिसंहरण-

स्वीकृति का प्रतिसंहरण, प्रतिसंहरण करने वाले पक्षकार के किसी ऐसे कार्य या लोप से हुआ समझा जाता है जिसके द्वारा वह ऐसे प्रतिसंहरण को संसूचित करने का आशय रखता हो या जो उसे संसूचित करने का प्रयास रखता हो। (धारा 3)

प्रतिसंहरण कब पूर्ण होता है इसके बारे में भाग 4 बताती है कि ‘प्रतिसंहरण की संसूचना उसे करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध तब पूर्ण हो जाती है जब वह उस व्यक्ति के प्रति, जिससे प्रतिसंहरण किया गया हो, इस प्रकार पारेषण के अनुक्रम में कर दी जाती है कि वह उस व्यक्ति की शक्ति के बाहर हो जाय, जो उसे करता है। उस व्यक्ति के विरुद्ध, जिससे प्रतिसंहरण किया गया है, तब पूर्ण हो जाती है जब वह उसके ज्ञान में आ जाती है। उदाहरणार्थ ‘ख’ अपनी स्वीकृति का प्रतिसंहरण तार द्वारा करता है। ‘ख’ का प्रतिसंहरण ‘ख’ के विरुद्ध तब पूर्ण हो जाता है जब तार प्रेषित किया जाता है और ‘क’ के विरुद्ध तब, जब तार उसके पास पहुँचता है।

प्रतिसंहरण कब तक हो सकता है (धारा 5) –

कोई भी स्वीकृति, स्वीकृति की संसूचना स्वीकृति के विरुद्ध पूर्ण हो जाने के पूर्व प्रतिसंहरित की जा सकेगी परन्तु इसके पश्चात नही। उदाहरणार्थ ‘क’ द्वारा डाक से भेजे गये प्रस्ताव को ‘ख’ स्वीकार करता है। ‘ख’ अपनी स्वीकृति का प्रतिसंहरण क को स्वीकृति की संसूचना पहुँचने के पहले किसी भी समय या पहुँचने के क्षण तक कर सकता है, किन्तु इसके पश्चात नहीं।

प्रतिसंहरण से सम्बन्धित एक अंग्रेजी वाद काउन्टेस आफ डनमोर . अलेक्डोर, कोर्ट आफ सेशन का वाद उल्लेखनीय है-‘A’ ने ‘B’ के एजेण्ट के पास नौकरी देने के लिए प्रस्ताव भेजा। एजेण्ट ने प्रस्ताव ‘B’ को भेज दिया परन्तु ‘B’ अनुपस्थित था। दूसरे दिन ‘A’ ने ‘B’ के एजेण्ट को सूचित किया कि वह अपने प्रस्ताव का प्रतिसंहरण कर रहा है। एजेन्ट ने प्रतिसंहरण पत्र भी ‘B’ को भेज दिया। ‘B’ को प्रस्ताव का पत्र और प्रतिसंहरण पत्र एक साथ मिला।

निर्णीत हुआ कि ‘A’ के प्रस्ताव का प्रतिसंहरण हो गया था। क्योंकि जहाँ दो सूचनाएँ साथ-साथ मिलें वहाँ दूसरी सूचना प्रभावी होती है।

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